नए और पुराने राजनय में अंतर

राज्यों के मध्य राजनयिक सम्बन्ध अति प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। ये उतने ही प्राचीन हैं जितने कि राज्य। यूनान, रोम व प्राचीन भारत में राजनयिक सम्बन्ध अति व्यापक थे तथा इन सम्बन्धों को निर्धारित करने वाले नियम भी प्रतिपादित किये जा चुके थे। पुराने राजनय का अर्थ प्राचीन कालीन राजनय से कदापि नहीं है। इसका तात्पर्य सोलहवीं और सत्राहवीं शताब्दी में योरोप में प्रचलित राजनय से है। रिचलु द्वारा प्रतिपादित व कैलियर्स द्वारा व्याख्यायित राजनय को, जिसे पुराने राजनय की संज्ञा दी जाती है, सारे यूरोप ने स्वीकार किया थां यह राजनय अठारहवीं शताब्दी तक गोपनीयता के आधार पर सफलतापूर्वक चलता रहा। 

1919 के पूर्व का राजनय पुराना राजनय था। 1815 की वियाना की संधि और 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध के बीच का काल प्रतिष्ठित राजनय का स्वर्णकाल था। यह निश्चित नियमों से बंधा था। इस समय का राजनय शिष्टता, अनुभव एवं वस्तुस्थित पर आधारित था। यह विश्वास, स्पष्टता और यथार्थ को सफल राजनय का आधार मानता था। वार्ताएं गुप्त रूप से होती थीं। आवागमन व संदेह वाहन के साधनों के समुचित विकास के अभाव में राजनीयक प्रक्रिया की गति मंद थी। वार्ताएं धीरे-धीरे चलती रहती थीं। इसमें गतिरोध आने पर, इन्हें थोड़े समय के लिए स्थगित कर दिया जाता था, एवं अनुकूल समय व परिस्थिति आने पर इन्हें फिर चालू कर दिया जाता था। लोगों को कानोंकान खबर नहीं मिलती थी। 1907 में ऐग्लोरशन कन्वेन्शन की वार्ताएं पन्द्रह माह तक चलती थी।

1918 के बाद राजनय का जो नया स्वरूप हमारे समक्ष आया उसे नवीन राजनय की संज्ञा दी जाती थी। यद्यपि 1919 में राजनय की स्थिति में परिवर्तन आया, किन्तु 1919 का वर्ष वास्तव में कोई विभाजक रेखा नहीं है। निकलसन के अनुसार केवल इतना ही हुआ है कि राजनय ने नयी बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको बदल लिया है। जूलेस केम्बान का भी मत था कि पुराने तथा नए राजनय के मध्य भेद भ्रम है। रेगाला का तो यहां तक मत है कि भले ही कार्य करने की विधि में परिवर्तन आया हो, परन्तु आधुनिक नवीन राजनय अभी भी पुराने राजनय के कई गुणों को अपनाये हुए है। राजनय एक निरन्तर गतिशील व्यवस्था है। इसके आज के विचार तथा सिद्धान्तों का आधार सैंकड़ों वर्षों का अनुभव है। वे, जिन्होंने पुराने राजनय की कटु आलोचना की और नयी व्यवस्था को स्वीकार किया, जैसा राष्ट्रपति विलसन ने किया था, उन्हें भी शीघ्र ही पुरानी व्यवस्था पर फिर आना पड़ा था। 

खुले राजनय के इस युग में सन्धि वार्ताएं आज भी गुप्त चलती हैं। इतना सब कुछ लिखने के बाद भी इस बात से नकारा नहीं जा सकता है कि यद्यपि टेलंरा और बिस्मार्क तथा किसिंगर के द्वारा प्रयुक्त राजनय के साधनों में विभाजन रेखा खींची जा सकती है, तथापि राजनयिक विचारधारा में क्रान्तिकारी परिर्वतन आये हैं। आज राजनय कुछ गिने चुने व्यक्तियों - राजा महाराजाओं अथवा उनके प्रिय पात्रों द्वारा संचालित न होकर अब जनता तथा उनके प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है।

राजनय के प्रकार

1. पुराना राजनय

पुराना राजनय के काल में राजा सर्वोच्च होता था। राजनय का उपयोग राजाओं का ही कार्य क्षेत्र था। इनके निर्णय अन्तिम होते थे। ये अपने देश के भाग्य निर्माता होते थे। राजनय इनके ही चारों ओर विद्यमान था। संवैधानिक राजतन्त्रा के आगमन के बाद भी राजा स्वयं ही राजनयिक गतिविधियों के केन्द्र बने रहे। फ्रांस का राजा लूई चतुर्दश, रूस की साम्राज्ञी केथरीन, प्रशा का सम्राट फ्रेडरिक महान् अपने देश की विदेश नीति के संचालक थे। जर्मन सम्राट कैसर स्वयं ही पत्राचार करता था। बजारकों का समझौता इसी ने किया था। 

सम्राट एडवर्ड सप्तम की रोम, बर्लिन व पैरिस यात्रा के परिणामस्वरूप ही ब्रिटेन अपने पार्थक्य से निकलने में सफल रहा था। रानी विक्टोरिया भी विदेश मामलों से सरकार को प्रभावित करती थी। इसके कई यूरोपीय राज्यों के साथ वंशीय सम्बन्ध भी थे। यह इसी का प्रयास था कि बिस्मार्क ने 1875 में फ्रांस पर आक्रमण नहीं किया। 

इस प्रकार पुराना राजनय राजाओं से प्रभावित था। राजा, महाराजाओं के अतिरिक्त उनके कुछ कृपापात्रा राजनयिक भी राजनय को प्रभावित करते थे। विशिष्ट व्यक्तियों का व्यक्तिगत प्रभाव अधिक महत्व रखता था। इस काल में राजदूत उच्च सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित घराने से ही नियुक्त किये जाते थे। ये राजा के व्यक्तिगत प्रतिनिधि होते थे। इनकी अपनी अलग प्रतिष्ठा थी। वे अपने स्वामी के प्रति पूर्ण निष्ठा रखते थे तथा इनके प्रति विशेष उत्तरदायी होते थे। यह राजनय विश्वास, स्पष्टता और यथार्थ पर आधारित था। मित्रता, मानवता और शिष्टता इसके मूल नियम थे। इसमें घृणा और कटुता का अभाव था। दूत अपने राजा के लिए झूठ बोलता था। इसका मूल कार्य जहां एक ओर मित्रा प्राप्ति और संधि समझौता करना था, तो दूसरी ओर दूसरों के मित्रों को अपनी ओर मिलाना भी रहता था। फ्रांस के संदर्भ में बिस्मार्क का राजनय इसका उदाहरण है।

पुराने राजनय की विशेषताएँ

1. यूरोप की प्रभुता :- पुराने राजनय के समय यूरोप को सभी महाद्वीपों से महत्वपूर्ण माना गया है। इस समय एशिया तथा अफ्रीका को साम्राज्यवाद, व्यापार एवं धर्म प्रचार के लिए उपयुक्त क्षेत्रा माना गया। संयुक्त राज्य अमेरिका अवश्य इस युग में शक्तिशाली राज्य बन गया था पर वह 1897 तक विश्व राजनीति में भाग नहीं लेता था। वह अपने महाद्वीप तक सीमित रहा और पृथकतावादी नीति अपनाए रहा। इस काल में कोई भी युद्ध उस समय तक बड़ा युद्ध नहीं माना जाता था जब तक कि पाँच यूरोपीय महाशक्तियों में से कोई एक भाग न ले। यूरोपीय राज्यों द्वारा ही अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और युद्ध सम्बन्धी प्रश्नों का निर्णय किया जाता था।

2. महाशक्तियों और छोटी शक्तियों में भेद :- यूरोप की महाशक्तियां जिनके पास आर्थिक और सैनिक शक्तियां थीं, वे अपने हितों की रक्षा के लिए राजनय का खुलकर प्रयोग करती थी। छोटे और कम शक्ति वाले राज्यों के हितों की उपेक्षा की जाती थी। उनका महत्व उनके सैनिक साधनों, युद्ध नीति, बाजार सम्बन्धी मूल्यों और कच्चे माल के òोतों के आधार पर आंका जाता था। छोटी शक्तियों के हित, मत एवं समर्थन महाशक्तियों के निर्णयों को बदल नहीं सकते थे। राजनय में महान शक्तियों का ही प्रभाव रहता था। छोटे राज्य उन्हीं का अनुसरण करते थे तथा उन्हीं के समर्थन से अपने हितों को सुरक्षित रख पाते थे।

3. महाशक्तियों का दायित्व :- इस काल में महाशक्तियों का यह उत्तरदायित्व था कि छोटी शक्तियों के आचरण का निरीक्षण करें और उनके बीच शान्ति स्थापित करें। छोटी शक्तियों के बीच संघर्ष होने पर महाशक्तियां हस्तक्षेप करती थी। इस संघर्ष को महाशक्तियों का संघर्ष बनने से रोकने का पूरा प्रयास किया जाता था।

4. व्यवसायिक राजनयिक सेवा :- पुराने राजनय की अन्य विशेषताओं में एक विशेषता यह भी थी कि यूरोप के प्रत्येक राज्य ने एक जैसी ही व्यवसायिक राजनयिक सेवा स्थापित कर रखी थी। ये राजनयिक अधिकारी विदेशों की राजधानियों में अपने देश के प्रतिनिधि माने जाते थे। इनकी शिक्षा, अनुभव तथा लक्ष्यों में पर्याप्त रूप से समता दिखाई देती थी। इनका एक पृथक वर्ग बन गया था। उनकी सरकार की नीति कुछ भी हो पर उनका लक्ष्य शान्ति की रक्षा करना था। राज्यों के मध्य शान्ति अथवा सन्धि वार्ताओं में इन राजनयिक अधिकारियों का प्रभाव काफी रहता था। इनका सदैव लक्ष्य यही रहता था कि आपसी संघर्ष को जहां तक संभव हो टाला जाये। 

5. निरन्तर एवं गोपनीय सन्धि वार्ता :- पुराने राजनय की पांचवी मुख्य विशेषता यह थी कि इसमें सन्धिवार्ताओं के निरन्तर तथा गोपनीय होने के नियम को मान्यता दी जाती थी। इसके लिए सार्वजनिक सम्मेलन आयोजित नहीं किये जाते थे। सन्धिकेर्ता राजदूत को स्वागतकर्ता राज्य की जनता की पूरी जानकारी रहती थी, वह उनकी शक्ति एवं कमजोरियों का पहले से ही अनुमान लगा सकता था। उसे स्थानीय हितों, दुराग्रहों एवं महत्वाकांक्षाओं की जानकारी रहती थी। वहाँ के विदेश मन्त्राी से बार-बार मिलने पर भी जनता का ध्यान आकर्षित नहीं होता था। वार्तालाप गोपनीय होने के कारण बुद्धिपूर्ण और सम्मानजनक सन्धियां की जा सकती थीं। सन्धि वार्ता के दौरान जनता की महत्वाकांक्षायें नहीं बढ़ पाती थी। दो राज्यों की सन्धि में प्रत्येक पक्ष को थोड़ा अवश्य झुकना पड़ता है। यदि जनता को यह बात पहले से ही ज्ञात हो जाये तो विरोधी आन्दोलन भड़कने की आशंकाएँ पैदा हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में सन्धि-वार्ता असफल हो जाती हैं। पुराने राजनय में गोपनीयता और विश्वसनीयता रहने के कारण ऐसी आशंका नहीं रहती थी।

पुराने राजनय के तरीकों के अनुसार सन्धि वार्ता करने वाले राजनयज्ञ को समय की कमी नहीं रहती थी। इस काल में दोनों पक्षों की सरकारें सन्धि पर अपना मत व्यक्त कर देती थी। यदि सन्धि वार्ता में कोई गतिरोध पैदा हो जाता था तो वार्ता को कुछ समय के लिये रोक दिया जाता था। अन्त में जो समझौता होता था वह जल्दबाजी का परिणाम न होकर पर्याप्त सोच विचार एवं गम्भीर विचार विमर्श का परिणाम होता था। उदाहरण के लिए 1907 का आँग्ल-रूसी अभिसमय एक वर्ष तीन माह के विचार-विमर्श का परिणाम था।

पुराने राजनय के दोष

यद्यपि आज के राजनय की अपेक्षा पुराना राजनय निकलसन की दृष्टि में उच्च स्तर का था क्योंकि उसमें गम्भीर बुद्धिमता, परिपक्वता एवं गोपनीयता जैसे गुण पाये जाते थे, परन्तु वह सर्वथा दोष रहित न था। उसमें प्रमुख दोष ‘गोपनीयता’ बताया जाता है। आलोचकों का कहना है कि सन्धिवार्ता को विश्वसनीय बनाने के लिए गोपनीयता की आदत विकसित की गई। उच्च अधिकारी तथा आदरनीय व्यक्ति भी ऐसी गुप्त सन्धियों में उलझ गये जिनका वे उल्लंघन नहीं कर सकते थे। निकलसन ने स्वयं स्वीकार किया है कि “गुप्त बातों को प्रोत्साहन करने वाली विश्वसनीय सन्धि वार्तायें आज के खुले राजनय में बुरी मानी जाती हैं।

पुराने राजनय में व्यावसायिक राजनयज्ञ कुछ कार्यात्मक दोष भी विकसित कर लिया करते थे। उनमें अहंकार या मूर्खता से पूर्ण कार्य करने का दोष भी आ जाता था। कभी-कभी वे राष्ट्रहित की चिन्ता न कर भावावेश में आकर सन्धि कर बैठने की गलती कर देते थे। जिससे राष्ट्र का पतन भी हो जाता था। वे यह भी समझने लगते थे कि विदेशों की स्थिति का जितना ज्ञान उन्हें है, उतना अन्य राजनीतिज्ञों को नहीं। इस अहंकार में वे गलत निर्णय कर बैठते थे। उस समय के राजनयज्ञों में यह गलत मान्यतायें प्रचलित हो गई थी कि समय बीतने पर स्वत: ही समझौता हो जाएगा, अत: महत्वहीन बातों की चिन्ता करना बेकार है। महत्वपूर्ण बातें स्वयं सुलझ जायेंगी, अत: जल्दबाजी करने की कोई आवश्यकता नहीं। इस लापरवाही का परिणाम कभी-कभी समस्त राष्ट्र को भोगना पड़ता था। इस प्रकार कह सकते हैं कि पुराना राजनयज्ञ एक आत्मतुष्ट व्यक्ति होता था। उसके कार्य, अनुभव और चरित्र की कमजोरियां अनेक बार राजनयिक असफलता के कारण बन जाती थी।

2. नवीन राजनय

सभी मानवी संस्थाओं की भाँति राजनय भी गतिशील है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ, विशेषकर प्रथम महायुद्ध के बाद, राजनय में हुए परिवर्तनों को नवीन राजनय की संज्ञा दी गई है जिसके परिणामस्वरूप राजनय की कार्य पद्धति में अनेक नवीनताओं का समावेश हुआ है। बीसवीं शताब्दी, नये राजनय, नये राजदूत, नये राजनयिक तरीकों और नई व्यवस्था का युग है। हैरल्ड निकलसन के अनुसार पुराने राजनय के पतन तथा नवीन राजनय के उदय के तीन कारण हैं (Three developments which contributed to the decline of old or the classical diplomacy and the emergence of the new diplomacy)।

1. राष्ट्रों के मध्य सामुदायिक भाव का विकास :- उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक विभिन्न घटनाओं और परिस्थितियों के कारण राष्ट्रों में सामुदायिक भाव विकसित हुआ। धीरे-धीरे राष्ट्रीय हितों से हटकर सामुदायिक भाव से प्रेरित होने लगे। परिणामस्वरूप नेपोलियन के डर से योरोप एक हो गया। इस काल में कई अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों तथा शान्ति सम्मेलनों का आयोजन हुआ। मेटरनिक व्यवस्था (Metternich System) यूरोप को प्रभावित करती रही। इस व्यवस्था ने कुछ समय के लिए यूरोपीय राज्यों के विदेश सम्बन्धों का आधार सामुदायिक हित बना दिया। 

प्रथम महायुद्ध के काल के पश्चात अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों, गुटों तथा सम्मेलनों की संख्या बढ़ी। इनका परिणाम था बहुपक्षीय राजनय। आधुनिक युग की जटिल समस्याओं के समाधान के लिए सभी सम्बन्धित राज्यों के सहयोग की आवश्यकता थीं, यही बहुपक्षीय राजनय का आधार था। इसने व्यक्तिगत राष्ट्रीय स्वार्थों को पीछे छोड़ दिया और यूरोपीय संहति (Concert of Europe) विश्व व्यवस्था और सामान्य राष्ट्रीय हितों पर बल दिया।

2. जनमत का प्रभाव :- राजनय के प्रारम्भिक काल में यह सोचना भी अजीब लगता था कि सामान्य जनता का विदेश दीति व राजनय पर प्रभाव हों, परन्तु मध्य वर्ग के बढ़ते प्रभाव ने राजनय के स्वरूप को बदल दिया। अब मध्य वर्ग के राजनयिक अभिकर्ता योग्यता और शिक्षा के आधार पर चुने जाते थे। धीरे-धीरे यह धारणा घर कनने लगी है कि जनमत से प्रभावित विदेश नीति निश्चित ही शान्ति लायेगी। जनमत का प्रभाव बढ़ा और 19वीं शताब्दी तक राजनय व विदेशनीति जनमत से प्रभावित होने लगे। कैनिंग व बिस्मार्क ने इस प्रबुद्ध जनमत का उपयोग अपने उद्देश्य पूर्ति के लिये किया। 

पामस्र्टन का तो यहां तक मत था कि जनमत सेना से भी अधिक शक्तिशाली है जो संगीनों और गोलियों से भी अधिक सफलता प्रदान करता है। आज तो हर राज्य के नीति-निर्माता जनमत से प्रभावित हैं, अत: किसी भी प्रकार का निर्णय लेने से पूर्व सामान्य जनता की क्या प्रतिक्रिया होगी इस बात पर अवश्य विचार कर लेते हैं। शिक्षा के विकास, समाचार पत्रों, रेडियो और टेलीविजन के उदय ने निश्चय ही विदेश नीति तथा राजनय को प्रभावित किया है।

3. यातायात के साधनों में सुधार :- आधुनिक युग में यातायात के द्रुतगामी साधनों के विकास ने राजनय को पर्याप्त प्रभावित किया है। निकलसन के अनुसार भाप के इंजिन, बेतार के तार, वायुयान तथा दूरभाष ने पुराने राजनय के व्यवहार को बदलने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। पहले यातायात एवं संचार के आधुनिक साधन न होने के कारण राजनयज्ञों को अपनी बुद्धि के अनुसार ही निर्णय लेने होते थे और प्रत्येक कार्य के लिए वही उत्तरदायी होते थे। आज की परिस्थितियों में वे आवश्यकता के समय अपनी सरकार से शीघ्र सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं। आजकल दूतों की योग्यता और कुशलता का पुराने समय जैसा महत्व नहीं है। इसके बावजूद भी राजदूत के अनुभव, स्वभाव, बुद्धिमता, सदाचरण आदि की उपयोगिता है।

नया राजनय वास्तविक अर्थ में प्रथम महायुद्ध के पश्चात आरम्भ हुआ जबकि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों ने विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया। अब अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध यूरोप तक ही सीमित नहीं रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया तथा अफ्रीका के नवोदित राज्यों की भूमिका अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रा में पर्याप्त महत्वपूर्ण बन गई है। अमेरिका और जापान ने अब अपनी पृथकतावादी नीति त्याग कर विश्व राजनीति में सक्रिय रूचि लेना प्रारम्भ कर दिया।

नवीन राजनय को प्रभावित करने वाले तत्व 

  1. संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी पृथकतावादी नीति के लिए प्रसिद्ध था। प्रथम विश्व युद्ध के समय उसने इस नीति को अल्पकाल मे लिये बदल दिया था। लेकिन द्वितीय युद्ध में जब से उसने भाग लिया है, तब से विश्व राजनीति का वह प्रसिद्ध खिलाड़ी माना जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के अतिरिक्त लैटिन अमेरिका के राज्य भी विश्व राजनीति में सक्रिय भाग लेने लगे हैं। के0एम0 पानिक्कर के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों और राजनय का कार्य क्षेत्र अब केवल यूरोपीय राष्ट्रों तक ही सीमित नहीं रहा है, अब उसका केन्द्र यूरोप से हटकर अन्य महाद्वीपों में बिखर गया है।”
  2. एशिया तथा अफ्रीका के देशों को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई तथा वे भी अपने आपको अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच का एक अभिनेता मानने लगे। प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व जापान के अतिरिक्त किसी एशियाई देश का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में नाम नहीं था। विश्व रंगमंच में न तो उनकी कोई स्थिति थी और न ही उनकी आवाज को कोई महत्व दिया जाता था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद स्थिति में परिवर्तन आया तथा राष्ट्रवादी चीन, अफगानिस्तान, ईरान और स्याम आदि एशियाई देश राष्ट्र संघ के सदस्य बन गये। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया के अनेक देशों को स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई। ये संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बन गये तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में इनकी आवाज का महत्व बढ़ गया। प्रसिद्ध इतिहासकार ऑरनाल्ड टायनवी ने लिखा है कि 1919 से पहले केवल 16 छोटे राज्य गम्भीरतापूर्वक विश्व राजनीति में भाग लेते थे। इनमें से 15 यूरोपीय देश थे। 1919 के बाद यह संख्या बढ़ कर 47 हो गई। इनमें से केवल 22 ही यूरोपीयन थे। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इस नये वातावरण में एशिया के देश यूरोपीय अथवा अमेरिका राजनयिक दांव पेचों के अखाड़े मात्रा नहीं रह गये। राजनय पर अब यूरोप का एकाधिकार नहीं रहा।
  3. नवीन राजनय के उदय का तीसरा कारण पुराने शक्ति सन्तुलन का नष्ट होना था। शक्ति संतुलन में परिवर्तन आने के कारण राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों में परिवर्तन आने लगता है। हिटलर तथा उसके सहयोगियों की पराजय के बाद संसार स्पष्ट रूप से दो सैद्धान्तिक दलों में बंट गया। पूर्वी एशिया में लाल चीनी का उदय हुआ। इन नए परिवर्तनों से युक्त विश्व के राजनय का स्वरूप बदलना भी स्वाभाविक था।
  4. सोवियत रूस में होने वाली महान क्रान्ति के बाद लेनिन तथा उसके साथियों ने रूसी राज्यभिलेखागारों के गुप्त अभिलेखों को प्रकाशित किया। इस प्रकार गोपनीय सन्धिवार्ता का प्रकाशन करके एक नये राजनय का सूत्रापात किया गया। अनेक देशों ने जारशाही रूस के साथ जो संधियां की थी, वे उनकी जनता के सामने खुल गई। अत: गुप्त संधियों के प्रति विभिन्न देशों का शासन एवं जनता चौकन्नी रहने लगी।
  5. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद प्रारम्भ होने वाले शीत युद्ध ने संसार को स्पष्टत: दो शिविरों में विभाजित कर दिया। इसगें से प्रत्येक शिविर दो प्रकार के राजनय प्रयोग करता था-एक, शिविर के साथ राज्यों के साथी तथा दूसरे, शिविर के साथ विरोधी राज्य। इस परिवर्तित सन्दर्भ में पुराना राजनय समयातीत बन गया। सन् 1991 ई0 में सोवियत संघ के अवसान के बाद ही संयुक्त राज्य अमेरिका ही विश्व की एकमात्रा महाशक्ति रह गई है, और शीतयुद्ध की समाप्ति हो गई। इससे भी राजनय के स्वरूप में परिवर्तन आना अपरिहार्य है।

नवीन राजनय की विशेषतायें

श्री के0 एम0 पनिक्कर ने नए राजनय की पांच मुख्य विशेषताओं का उल्लेख किया है-
  1. नवीन राजनय के अन्तर्गत एक देश अपनी बात को समझाने के लिए अन्य देश के शासकों से ही अपील नहीं करता, वरन् वहां की जनता से अपील करता है।
  2. विरोधी राज्य की सरकार को बदनाम करने के लिए उसके लक्ष्यों को तोड़-मरोड़ कर रखा जाता है, तथा दोषारोपण किया जाता है।
  3. अपने राज्य की जनता का विरोधी राज्य की जनता से सम्पर्क तोड़ दिया जाता है। केवल अधिकारी स्तर पर ही राजनयिक सम्बन्ध बनाये रखे जाते हैं। साम्यवादी चीन तथा तानाशाही पाकिस्तान द्वारा भारत के प्रसंग में इसी प्रकार की नीति अपनाई गई है।
  4. विरोधी राज्यों के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्कों को कम से कम कर दिया जाता है तथा किसी भी समझौते के साथ आक्रमणकारी भाषा में अधिक से अधिक शर्तें लगाई जाती हैं।
  5. प्रत्येक राज्य अपने विरोधी पक्ष को डराने की दृष्टि से अस्त्रा-शस्त्रों के लिए बहुत सा धन खर्च करता है तथा हड़तालों, सम्मेलनों और आन्दोलनों का आयोजन करता है।
स्पष्ट है कि आधुनिक राजनय का स्परूप अपने पूर्ववर्ती से पर्याप्त भिन्न है। आजकल अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक नई पद्धति का विकास हो रहा है। राजनय के पुराने तरीके अपनाने से अनेक बार कठिनाईयां एवं समस्यायें राजनय की नई विधियों की खोज के आधार बन जाती हैं। जब कभी एक नया राज्य विश्व शक्ति के रूप में उदित होता है तो राजनय के तरीकों में एक संकट आ जाता है। इस संकट से उत्पन्न अस्थिरता एवं अनिश्चितता को पनिक्कर महोदय ने चिन्तनीय माना है।

पुराने और नए राजनय में अन्तर

पुराने और नये राजनय के बीच लक्ष्य एवं प्रक्रिया की दृष्टि से कुछ महत्वपूर्ण अन्तर हैं :-

1. लक्ष्य की दृष्टि से :- पुराने राजनय ;1500 से 1914 तक) का मुख्य उद्देश्य मित्र बनाना और दूसरे के मित्रों को उनसे तोड़ना था। नये राजनय का लक्ष्य इसके साथ-साथ राज्य की प्रादेशिक, राजनीतिक तथा आर्थिक अखण्डता की रक्षा करना है। आधुनिक राजनय में यह माना जाता है कि राज्य की सुरक्षा के लिए केवल विदेशी सेनाओं से ही खतरा नहीं रहता वरन् आर्थिक और राजनीतिक मोर्चों पर भी खतरा हो सकता है। अत: एक राज्य सदैव दूसरे राज्य की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर नजर रखता है तथा उनको निष्फल बनाने का प्रयास करता है। आजकल राजनय का मुख्य दायित्य देश के व्यापारिक हितों की उपलब्धि है। व्यावसायिक राजनय आज के अन्तर्राष्ट्रीय जीवन का एक सक्रिय अंग बन गया है।

2. सद्व्यवहार की दृष्टि से :- पुराने राजनय में पत्रा-व्यवहार तथा दूसरे विचार-विमर्शों में सभ्य तथा शिष्ट भाषा का प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक राज्य अपना दृष्टिकोण तथा लक्ष्य इस प्रकार प्रकट करता था ताकि दूसरे राज्य को बुरा प्रतीत न हो।

के0एम0 पनिक्कर के मतानुसार, “पुराना राजनय एक मैत्राीपूर्ण उदार तथा शिष्ट कला थी जिसकी साधना बड़ी दक्षता के साथ की जाती थी और उसमें पारस्परिक सहिष्णुता बरती जाती थी।” इसके विपरीत नया राजनय अपने विरोध को कड़े रूप में प्रदर्शित करता है तथा समय-समय पर अशिष्ट भाषा का प्रयोग भी करता है। 

संयुक्त राष्ट्र संघ में अनेक बार गालियों का प्रयोग जूते उठाने की सीमा तक भी जा पहुंचता है। आज शिष्टाचार की भाषा का युग नहीं रहा। विरोधी के साथ नम्रतापूर्ण व्यवहार को सामान्य जनता विश्वासघात की परिधि में मानती है। आज अनौपचारिक मेलजोल का सर्वथा बहिष्कार किया जाता है।

3. क्षेत्र की दृष्टि से :- पुराने राजनय का क्षेत्रा सीमित था और केवल यूरोपीय राज्यों, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान तक ही सीमित था। आज इसका सम्बन्ध विश्व के छोटे से छोटे राज्य से भी है। विश्व राजनीति में लिए जाने वाले निर्णय महाशक्तियों की मनमानी से नहीं वरन् छोटे राज्यों की आवाज के अनुसार लिये जाते हैं। इस प्रकार नये राजनय का क्षेत्रा अत्यन्त व्यापक हो गया है।

4. तरीकों की दृष्टि से :- पुराने राजनय का व्यवहार रूढ़िवादी और पुराने तरीकों से संचालित किया जाता था। अब यह सिद्धान्त और तरीके पुराने और बेकार हो चुके हैं। आज के राजनयज्ञों के सम्पर्कों की नयी पद्धतियां हैं। निकलसन के कथनानुसार “आज पुरानी मुद्रा चलन से बाहर हो चुकी है। हम नये सिक्कों को काम में ले रहे हैं।

5. गोपनीयता की दृष्टि से :- पुराने राजनय के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियां और समझौते गुप्त हुआ करते थे। प्रशासकों द्वारा गुप्त रूप से पूरे देश की कुछ शर्तों से बद्ध कर दिया जाता था। सोवियत संघ में साम्यवाद का उदय होने के बाद गुप्त सन्धियों का युग समाप्त हो गया और इसके स्थान पर खुली सन्धियां की जाने लगी। अमेरिकी राष्ट्रपति ने खुले ढंग से किये गये खुले करारों का समर्थन किया। विश्व के राज्यों ने इसे मान्यता दी।

6. जन सम्पर्क की दृष्टि से :- पुराने राजनय में मुख्य कार्यकर्ता राज्यों की सरकारों होती थीं। किन्तु नये राजनय में जनता प्रत्यक्ष रूप से भाग लेती है। जनसम्पर्क के लिए रेडियो, समाचार पत्रा, सांस्कृतिक संगठन आदि का सहारा लिया जाता है। आजकल प्रेस तथा सूचना विभाग राजदूत के कार्यालय का एक आवश्यक अंग बन गया है। कुछ दूतावासों में सांस्कृतिक सहचारी भी रखे जाते हैं।

7. व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की दृष्टि से :- पुराने राजनय में राजदूतों का व्यक्तिगत उत्तरदायित्व अधिक होता था। उस समय यातायात और संचार के साधनों का विकास नहीं हो पाया था। अत: वे अपनी सरकार से पथ-प्रदर्शन प्राप्त किये बिना ही व्यक्तिगत सूझ-बूझ तथा योग्यता के आधार पर कार्य करते थे। आजकल यातायात एवं संचार के द्रुतगामी साधनों ने यह सम्भव बना दिया है कि राजदूत किसी भी समय अपनी सरकार का निर्देशन एवं पथ-प्रदर्शन प्राप्त कर सके। इसलिए आज के राजनयज्ञ अपने कार्यों के लिए पूर्ववत् व्यक्तिगत उत्तरदायित्व नहीं रखते।

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