सहभागी अवलोकन का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, लाभ, दोष

सहभागी अवलोकन सन् 1924 में लिण्डमैन ने अपनी पुस्तक ‘सोशल डिस्कवरी’ में सर्वप्रथम सहभागी अवलोकन शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने अनुसूची और प्रश्नावली के द्वारा किये जाने वाले अध्ययनों की कमियों एवं सहभागी अवलोकन की उपयोगिता की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। लिण्डमैन ने सहभागी अवलोकन के बारे में लिखा है, सहभागी अवलोकन इस सिद्धात पर आधारित है कि किसी घटना का निर्वाचन तभी करीब-करीब शुद्ध हो सकता है जब वह बाह्य तथा आंतरिक दृष्टिकोण से मिलकर बना हो। इस प्रकार उस व्यक्ति का दृष्टिकोण, जिसने घटना में भाग लिया तथा जिसकी इच्छाएँ एवं स्वार्थ उसमें किसी न किसी रूप में निहित थे, व्यक्ति के दृष्टिकोण से निश्चय ही कहीं अधिक यथार्थ व भिन्न होगा जो सहभागी न होकर केवल ऊपरी द्रष्टा या विवेचनकर्ता के रूप में रहता है।

सहभागी अवलोकन का अर्थ एवं परिभाषा

सहभागी अवलोकन करने के लिए अवलोकनकर्ता उस समूह अथवा समुदाय में जाकर रहने लगता है जिसकी सामाजिक घटनाओं का वह अध्ययन करना चाहता है। वह लोगों की दैनिक एवं अन्य सभी क्रियाओं में भाग लेता है और उनका निरीक्षण भी करता है। इसमें अवलोकनकर्ता को समूह के लोग अपना लेते हैं और वे उसे अपना एक सदस्य समझने लगते हैं। इस प्रकार अध्ययनकर्ता अस्थायी रूप से समूह का आंतरिक व्यक्ति बन जाता है।

सहभागी अवलोकन को परिभाषित करते हुए गुडे एवं हाट लिखते हैं, इस कार्य-प्रणाली का उस समय प्रयोग किया जाता है जबकि अनुसंधानकर्ता अपने को इस प्रकार छिपा लेता है कि वह समूह के एक सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है।

पी.वी. यंग के अनुसार, अनियंत्रित अवलोकन का प्रयोग करने वाला सहभागी अवलोकनकर्ता साधारणतया उस समूह के जीवन में रहता तथा भाग लेता है जिसका कि वह अध्ययन कर रहा है।

लुण्डबर्ग के अनुसार, अवलोकनकर्ता अवलोकित समूह के प्रति यथासंभव पूर्णतया घनिष्ठ संबंध स्थापित करता है आर्थात् वह समुदाय में बस जाता है तथा उस समूह के दैनिक जीवन में भाग लेता है। फोरकेस तथा रिचर लिखते हैं, सहभागिक अवलोकन से अनुसंधानकर्ता अध्ययन किये जाने वाले समूह का सदस्य बन जाता है। ऐसा करने के पीछे मूल भावना यही रहती है कि वह समूह की विशेषताओं को निकट से जान सके जो कि समूह के बाहर रहने पर संभव नहीं होती।

जाॅन मेज लिखते हैं, फ्जब अवलोकनकर्ता के हृदय की धड़कनें समूह के अन्य व्यक्तियों के हृदयों की धड़कनों से मिल जाती हैं और वह बाहर से आया हुआ कोई अनजान नहीं रह जाता तो यह समझना चाहिए कि उसने सहभागी अवलोकनकर्ता कहलाने का अधिकार प्राप्त कर लिया है।

पी. एच. मान के अनुसार, फ्सहभागी अवलोकन का तात्पर्य एक ऐसी दशा से है जिसमें अवलोकनकर्ता अध्ययन किये जाने वाले समूह की सभी सामान्य गतिविधियों में स्वयं भी भाग लेता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता अध्ययन किये जाने वाले समूह में रहता है और उसका एक अंग बनकर तथ्यों का संकलन करता है।

अनेक समाज-वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में सहभागी अवलोकन विधि का प्रयोग किया है। जाॅन हावर्ड ने वैफदियों का, लीप्ले तथा बूथ ने श्रमिक परिवारों का, मैलिनोवस्की ने ट्रोब्रियाण्डा द्वीप की ‘अग्रोनाट जनजाति’ का, रेमण्ड फर्थ ने ‘टिकोपिया’ लोगों का, नेल्स एण्डरसन ने होबो लोगों का एवं वाईट ने सड़कों पर जीवन व्यतीत करने वाले लोगों का सहभागी अवलोकन विधि से ही अध्ययन किया। इस विधि द्वारा सामान्यतः समुदायों, आदिम जातियों एवं उनकी संस्कृति का अध्ययन किया जाता रहा है। किसी भी समूह की प्रथाओं, उत्सवों, विश्वासों, लोकगीतों, धा£मक क्रियाओं एवं व्यवहारों के अध्ययन के लिए यह एक उपयुक्त विधि मानी जाती है।

इस संदर्भ में ये प्रश्न उठते हैं कि एक अवलोकनकर्ता को किस सीमा तक अपने को अध्ययन किये जाने वाले समूह के साथ घुला-मिला देना चाहिए, किन-किन क्रियाओं में उसे भाग लेना चाहिए और किन में नहीं। क्या उसे समूह के लोगों को अपना उद्देश्य एवं परिचय बता देना चाहिए? अध्ययनकर्ता का समूह में क्या स्थान होना चाहिए? इनके उत्तर में मत भिन्नता पायी जाती है। अमेरिकन समाजशास्त्रिायों का मत है कि एक अवलोकनकर्ता को अपना परिचय एवं उद्देश्य बताए बिना ही समूह का अध्ययन करना चाहिए। उसे इस चालाकी और सतर्वफता से काम करना चाहिए कि समूह के लोग उसे अपना ही व्यक्ति समझने लगें। ऐसा करने पर ही वह समूह का वास्तविक अध्ययन कर सकता है।

दूसरी ओर भारतीय समाजशास्त्रिायों का मत इसके विपरीत है। वे कहते हैं कि भारत जैसे देश में अवलोकनकर्ता को समूह के लोगों को अपना परिचय एवं उद्देश्य स्पष्ट कर देना चाहिए ताकि लोग उसे शंका की दृष्टि से नहीं देखें और तथ्यों के संकलन में वे अपना सहयोग दे सवेंफ। ऐसा करने से अवलोकनकर्ता को समूह के लोगों का विश्वास प्राप्त हो जायेगा और वे उसे समूह में उचित स्थान प्रदान करेंगे। भारत जैसे देश में जहाँ अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, बिना अपना परिचय एवं उद्देश्य बताए लोगों के सामाजिक जीवन में भाग लेना उनमें अनुसंधानकर्ता के प्रति संदेह ही उत्पन्न करता है, तब वे अपने वास्तविक व्यवहार में परिवर्तन कर सकते हैं। नैतिक दृष्टि से भी यह उचित है कि अवलोकनकर्ता समूह के लोगों को मिथ्या बातें न कहें।

श्री बी. डी. पाल ने उन कार्यों का उल्लेख किया है जिनमें सहभागी अवलोकनकर्ता भाग ले सकता है, जैसेμखेत जोतने में सहायता देना, मकान बनाने में मदद करना, धनुष-बाण से शिकार करने वाली जनजाति के लिए अपनी बन्दूक से शिकार कर उन्हें भोजन उपलब्ध कराना, अपनी गाड़ी में बिठाकर ले जाना व उनसे बातचीत करना, उनमें चित्रा और फोटो का वितरण करना, त्यौहारों पर भोजन व धन बाँटना, वाद्य यंत्रा बजाना, लोगों को अपने घर पर गपशप के लिए बुलाना, बच्चों को मिठाइयाँ व खिलौने देना आदि।

सफल सहभागी अवलोकनकर्ता के लिए आवश्यक है कि उसे अपने अध्ययन समूह के लोगों की भाषा, रीति-रिवाज, व्यवहार, प्रथाओं एवं परंपराओं की पूर्ण जानकारी हो। जब वह समूह के लोगों से उनकी भाषा में बात करता है तो वे उसे अपना ही व्यक्ति समझने लगते हैं और उससे किसी बात को साधारणतः छिपाते नहीं। सहभागी अनुसंधानकर्ता को वाकपटु एवं व्यवहारकुशल भी होना चाहिए। एक अनुसंधानकर्ता किस सीमा तक सहभागी बन सकता है, यह समूह के आकार पर भी निर्भर करता है। परिवार में पूर्ण सहभागिता सरल है जबकि एक बड़े नगर में सीमित मात्रा में ही संभव है। इसके अतिरिक्त अनुसंधान के विषय एवं अवलोकनकर्ता के व्यक्तित्व एवं कुशलता पर भी सहभागिता की मात्रा निर्भर है। सहभागी अवलोकनकर्ता को चाहिए कि वह अपने को समूह से इतना घनिष्ठ नहीं बना ले कि समूह के प्रति उसमें पक्षपात की भावना आ जाए।

जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है कि सहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता अध्ययन की जाने वाली परिस्थितियों में स्वयं भाग लेता है और उस समूह का औपचारिक सदस्य बन जाता है। इस पद्धति का प्रयोग तब किया जाता है, जबकि अनुसंधानकर्ता उस समूह से स्वयं घुलमिल जाता है, जिसका कि वह अध्ययन करना चाहता है। सहभागी अवलोकन शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम लिण्डमैन ने 1924 में अपनी पुस्तक सोषल डिस्कवरी में किया। लिण्डमैन ने लिखा है, सहभागी अवलोकन इस सिद्धान्त पर आधारित है कि किसी घटना का विश्लेषण तभी करीब-करीब शुद्ध हो सकता है, जब वह बाह्य तथा आन्तरिक दृष्टिकोण से मिलकर बना हो। इस प्रकार उस व्यक्ति का दृष्टिकोण जिसने घटना में भाग लिया तथा जिसकी इच्छाएं एवं स्वार्थ उसमें किसी न किसी रूप में से निहित थे, उस व्यक्ति के दृष्टिकोण से निश्चय ही कहीं अधिक यथार्थ व भिन्न होगा, जो सहभागी न होकर केवल ऊपरी दृष्टा या विवेचन कर्ता के रूप में रहा है।

एम. एच. गोपाल ने सहभागी अवलोकन का आधार बताते हुए लिखा है कि, यह अवलोकन इस मान्यता पर आधारित है कि किसी घटना की व्याख्या उस समय अधिक विस्तृत एवं विश्वसनीय हो सकती है जबकि अनुसंधानकर्ता उक्त परिस्थिति की गहराई में पहुंच जाता है।

सहभागी अवलोकन की विशेषताएं

सहभागी अवलोकन की निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती है-

(i) इसमें अवलोकन अध्ययन की जाने वाली इकाइयों जीवन और कार्यों में क्रियाशील सदस्य के रूप में भाग लेता है और घुलमिल जाता है।

(ii) अध्ययन की जाने वाली इकाईयों के अनुसार ही सुख और दुख की अनुभूति करता है और समूह को अपना मानता है।

सहभागी अवलोकन के लाभ

सामाजिक अनुसंधान में सहभागी अवलोकन का अत्यधिक महत्व है। इस पद्धति के निम्न गुण या लाभ हैं-

(1) प्रत्यक्ष अध्ययन- यह सामाजिक अनुसंधान की वह पद्धति है, जिसमें अनुसंधानकर्ता प्रत्यक्ष रूप से अपने नेत्रों की सहायता से समूह कि क्रियाओं में भाग लेकर अध्ययन करता है।

(2) विस्तृत अध्ययन- सहभागी अवलोकन के माध्यम से सामाजिक घटनाओं का विस्तृत अध्ययन किया जाता है और विस्तृत सूचनाएं एकत्रित की जाती है, क्योंकि अनुसंधानकर्ता जीवन के सभी पहलुओं का स्वयं अवलोकन करता है।

(3) वास्तविक अध्ययन- सहभागी अवलोकन के द्वारा अनुसंधानकर्ता समुदाय के व्यवहारों और जीवन का वास्तविक अध्ययन करता है। इसका कारण यह है कि अनुसंधानकर्ता और सूचना दाता के बीच घनिष्ठ, प्राथमिकता और प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो जाते है।

(4) संग्रहीत सूचनाओं की परीक्षा- अवलोकन के द्वारा हम जो सूचनाएं प्राप्त करते हैं, उनकी पुनः परीक्षा कर सकते हैं। इसका कारण है कि अवलोकित घटनाओं की कभी भी जांच की जा सकती है।

(5) सूक्ष्म तथा अतिगहन अध्ययन- सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता जिस घटना का अध्ययन करता है उसका स्वयं सहभागी होता, जिससे निरीक्षणकर्ता को अति गहन एवं सूक्ष्म अध्ययन करने का अच्छा अवसर प्राप्त हो जाता है।

सहभागी अवलोकन के दोष

उपर्युक्त गुणों के साथ ही सहभागी अवलोकन के अनेक दोष हैं, निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता हैः-

(1) खर्चीली पद्धति- सहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता को स्वयं ही क्षेत्र में जाकर निवास करना होता है और वहाॅं के सदस्यों के जीवन में भाग लेना पड़ता है। ऐसा करने से अत्यधिक धन खर्च होता है।

(2) सीमित क्षेत्र- सहभागी अवलोकन के द्वारा सीमित क्षेत्र का ही अध्ययन किया जा सकता है, क्योंकि जीवन व्यापार की क्रियाओं में भाग लेना पड़ता है। ऐसा करने से सीमित क्षेत्र में ही अध्ययन सम्भव हो सकता है।

(3) सीमित ज्ञान- इस पद्धति का यह भी दोष है कि इसके द्वारा सीमित क्षेत्र का अध्ययन करने के कारण मनुष्य का ज्ञान और अनुभव भी सीमित हो जाते हैं।

एम. एन बसु के अनुसार, एक क्षेत्रीय कार्यकर्ता कुछ व्यावहारिक कारणों से समुदाय के जीवन में कभी पूर्णरूप से भाग नहीं ले सकता। वह समुदाय की क्रियाओं में अपना ध्यान केन्द्रित करता है, लेकिन उसका ध्यान अवश्य ही समूह के प्रति उसकी मूल विचारधारा के कारण कुछ सीमा तक हट जाता है, क्योंकि अपनी आयु, लिंग व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की भिन्नता के कारण वह समूह के जीवन में पूर्णतः भाग नहीं ले सकता। समूह के साथ बहुत घनिष्ठ या व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करना उसके लिऐ एक बाधा बन जाती हैं, क्योंकि उसे लोगों की कई छोटी-छोटी समस्याओं व झगड़ों में किसी का पक्ष लेना पड़ता है।

(4) सीमित उपयोग- सहभागी अवलोकन पद्धति का क्षेत्र सीमित होता है, क्योंकि प्रत्येक परिस्थति में इस अध्ययन पद्धति काप्रयोग नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, पति-पत्नी के दाम्पत्य सुख का अध्ययन सहभागिता के आधार पर सम्भव नहीं है।

(5) समूह व्यवहार में परिवर्तन- सहभागी अवलोकन में सहभागिता के कारण कभी-कभी अवलोकनकत्र्ता को समूह में उच्च स्थान एवं पद प्राप्त हो जाते हैं, जिससे वह समूह के व्यवहार को प्रभावित एवं परिवर्तित करने लगता है। अवलोकनकत्र्ता के व्यक्तित्व एवं गुणों के प्रभाव से उस समूह के लोगों के वास्तविक व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है और उस समूह का वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो पाता है।

(6) सही आलेखन की समस्या- सहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता द्वारा समूह के सदस्य की भूमिका अदा करने तथा समूह की गतिविधियों में भाग लेने के कारण समस्त सूचनाओं को उनके वास्तविक राज्य में तुरन्त लिखना कठिन होता है। अवलोकन के साथ-साथ सूचनाओं को लिखने से समूह में उसके प्रति सन्देह होने लगता है। घटनाके बाद लिखने पर किसी तथ्य के भूल जाने या छूट जाने की सम्भावना रहती है।

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