सार्वभौमिकता किसे कहते हैं? सार्वभौमिकता की विशेषताएँ

सार्वभाौमिकता की अवधारणा स्थानीयकरण की अवधारणा के विपरीत है। शाब्दिक दृष्टि से सार्वभौमिकता का आशय किसी संस्कृति विशेषता का प्रत्येक स्थान में प्रसार होना है। मैकिम मेरियट ने सार्वभौमिकता की प्रक्रिया का उल्लेख किसी ऐसी स्थिति के लिए किया है, जिसमें स्थानीय एवं लघु परम्पराओं से धीरे‘-धीरे बहुल परम्परा का निर्माण होता है। किसी भी समाज के सांस्कृतिक जीवन को सुस्पस्ट करने के लिए सार्वभौमीकरण अत्यन्त महत्वपूर्ण अवधारणा है।

सार्वभौमिकता की प्रक्रिया का उल्लेख मिल्टन सिंगर एवं रावर्ट रेडफील्ड ने किया था। बाद में इसका प्रयोग मैकिम मेरियट ने लघु परम्परा एवं वृहत् परंपरा के पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट करने के लिए किया। उन्होने स्वयं अपनी सम्पादित कृति ‘विलेज इण्डिया’ में लिखा है कि, यह समझने के लिए कि अक्सर प्राचीन संस्कृत कर्मकाण्ड, असंस्कृत कर्मकाण्डों को हटाए बिना उनसे क्यों जुड़ जाते हैं? हमें उस प्रक्रिया को समझना होगा जो स्वदेशी सभ्यता से सम्बधित है।

परिभाषा के दृष्टिकोण से स्वदेशी सभ्यता वह है जिससे सम्बद्ध वृहत् परम्पराओं की उत्पत्ति पहले से विद्यमान छोटी परम्पराओं के तत्वों के मिलने से होती है। वृहत् परम्पराओं की इस प्रक्रिया को हम सार्वभौमिकता, सार्वभौमीकरण या सर्वदेशीकरण के नाम से जानते हैं। स्पष्ट है कि जब स्थानीय लघु या छोटी परम्पराओं के मिलने से एक बड़ी परम्परा का निर्माण होता है तथा उनका विवेचन धर्मग्रन्थों में कर लिया जाता है तब संस्कृति के प्रसार की प्रक्रिया सर्वभौमिकता कहलाती है।

मेरियट के अनुसार - जब लघु परंपरा के तत्व (देवी- देवता, संस्कार आदि) ऊपर की ओर बढ़ते हैं अर्थात् उनका फैलाव का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है, जब वे वृहत् परम्परा स्थिर तक पहुँच जाते हैं और उनका मूल स्वरूप परिवर्तित हो जाता है, तो इस प्रक्रिया को हम सार्वभौमीकरण कहते है।‘‘ सार्वभौमिकता की प्रक्रिया का तात्पर्य वृहत परम्परा का उन तत्वों से निर्मित होना है जो छोटी परम्पराओं में पहले से ही विद्यमान होते हैं तथा जिनसे वृहत परम्पराएँ सदैव आच्छादित रहती है। जब लघु परम्परा से सम्बधिन्त सांस्कृतिक तत्वों के फैलाव का क्षेत्र बढ़ता जाता है तो इस दौरान उनका स्वरूप भी बदल जाता हैं। ये सांस्कृतिक तत्व कालान्तर में धीरे-धीरे वृहत् परम्परा के अंग बन जाते है। जब लघु परम्परा के तत्व देवी देवता, प्रथाएँ संस्कार वृहत् परम्परा के स्तर तक प्रचलित हो जाते हैं और उन्हें वृहत् परम्परा का ही अंग माना जाने लगता है तो इस प्रक्रिया को सार्वभौमिकता से ही जानते हैं।

सार्वभौमिकता की विशेषताएँ

1 सार्वभौमिकता की प्रक्रिया का विकास लघु एवं वृहत् परम्पराओं के पारस्परिक सम्बंधों में होता है।

2. सार्वभौमिकता में लघु परम्पराएँ अपना अस्तित्व समाप्त नहीं करती, वरन् वे अपने अस्तित्व को बनाए रखने के बाद भी अपने से भिन्न एक नई वृहत् परम्परा का निर्माण करती है।

3. लघु एवं वृहत् दोनों परंपराएँ पवित्रता के दृष्टिकोण से समान रूप से बनी रहती हैं। इसका आशय है कि किसी समाज में अधिकांश व्यक्ति इन परंपराओं में समान रूप से भाग लेते हैं और दोनों से सम्बद्ध कर्मकाण्डों को पूरा करना अनिवार्य मानते हैं।

4. इस प्रकार वृहत् परम्पराएँ पूर्णतः नवीन दिखाई देने के बाद भी पूरी तरह नवीन नहीं होती, बल्कि वे वृहत् परम्पराएँ मूलतः लघृ परम्पराओं का ही संशोधित रूप होती हैं।

5. सार्वभौमिकता स्थानीय धार्मिक विश्वासों एवं कर्मकाण्डों का व्यापक विस्तार है।

संदर्भ -

1. मित्र, विधानिवास (2000), नदी नारी और संस्कृति, प्रभात पब्लिषर्स, नई दिल्ली
2. कुपुस्वामी, बी. (2003), समाज मनोविज्ञान, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला
3. लाल बच्चन (2003), आधुनिक सामाजिक मनोविज्ञान, एच.पी. शर्गव बुक हाउस, आगरा
4. रमाषंकर (2004), सामाजिक षोध एवं सांख्यिकीय तार्किकता, विजय प्रकाशन मन्दिर, वाराणसी

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