सार्वजनिक ऋण के प्रकार या वर्गीकरण



वर्तमान समय में सरकार के आर्थिक और विकास सम्बन्धी कार्य पहले से काफी अधिक हो गये है। इन कार्यों में वृद्धि होने के कारण सार्वजनिक व्यय में भी काफी अधिक वृद्धि हुई  है। इसके लिए सरकार को कई  साधनों से धन प्राप्त करना अर्थात् ऋण लेना पड़ता है। सरकार द्वारा लिये गये इस ऋण को ही सार्वजनिक ऋण कहा जाता है। 

अन्य शब्दों में, प्रत्येक सरकार अपने व्यय को पूरा करने के लिए कई  प्रकार के ऋण लेती है, इन ऋणों को ही सार्वजनिक ऋण कहते है। 

सार्वजनिक ऋण के प्रकार या वर्गीकरण

लोक ऋण का वर्गीकरण 8 आधारों पर किया जा सकता है -
  1. ऋण स्रोत के आधार पर - 
  2. ऋण के उपयोग के आधार पर
  3. ऋण प्राप्ति की प्रकृति के आधार पर
  4. ऋण की अवधि के आधार पर
  5. ऋण के भुगतान के आधार पर
  6. ब्याज के आधार पर
  7. विपणन योग्य और विपणन अयोग्य ऋण
  8. सकल ऋण एवं शुद्ध ऋण 

1. ऋण स्रोत के आधार पर 

ऋण कहाँ से प्राप्त किया गया है, के आधार पर लोक ऋण दो प्रकार के हो सकते हैं : 
  1. आन्तरिक ऋण
  2. वाह्य अथवा विदेशी ऋण।
1. आन्तरिक ऋण  - जब सरकार अपने देश में नागरिकों को प्रतिभूतियाँ बेचकर उनसे ऋण प्राप्त करती है तो इसे आन्तरिक ऋण कहते हैं। प्रो. डाल्टन के अनुसार, ‘‘एक ऋण आन्तरिक है यदि वह उन व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा दिया जाता है जो उस क्षेत्र में रहते हैं, जिसे ऋण लेने वाली लोक सत्ता द्वारा नियन्त्रित किया जाता है।’’

2. बाह्य ऋण - यदि लोक ऋण विदेशों में रहने वाले व्यक्तियों या संस्थाओं या सरकारों से प्राप्त किए जाते हैं तो उन्हें बाह्य ऋण कहते हैं। 

(i) आन्तरिक और वाह्य ऋण में अन्तर - इन दोनों के अन्तर को निम्न तरह से स्पष्ट किया जा सकता है - 
  1. आन्तरिक ऋण अपने देश की मुद्रा में लिया जाता है जबकि वाह्य ऋण विदेशी मुद्रा में प्राप्त होता है। 
  2. आन्तरिक ऋणों की अदायगी अपने देश की मुद्रा में ही की जाती है जबकि वाह्य ऋणों की अदायगी विदेशी मुद्रा में की जाती है।
  3. आन्तरिक ऋण में मुद्रा का हस्तान्तरण एक ही देश में नागरिकों से सरकार को होता है, जबकि वाह्य ऋण में यह हस्तान्तरण एक देश से दूसरे देश को होता है। 
  4. आन्तरिक ऋण ऐच्छिक या अनिवार्य हो सकते हैं, जबकि वाह्य ऋण केवल ऐच्छिक होते हैं अर्थात् विदेशी सरकारों की इच्छा के विरूद्ध ऋण प्राप्त नहीं जा सकता। 
  5. सरकार आन्तरिक ऋणों को प्राथमिकता देती है। किन्तु जब इनसे सरकार की आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती तो वाह्य ऋण लिए जाते हैं।
(ii) आन्तरिक ऋणों का भार - जब सरकार देश के नागरिकों से ही ऋण लेती हैं तो इसमें लोगों के पास से क्रय-शक्ति का हस्तान्तरण सरकार को होता है अर्थात् साधनों का पुनर्वितरण होता है। आन्तरिक ऋणों से देश का धन देश के भीतर ही रहता है। इस प्रकार आन्तरिक ऋणों से देश के भीतर धन का पुनर्वितरण होता है, इसलिए इन ऋणों का प्रत्यक्ष मौद्रिक भार नहीं पड़ता है। जहाँ तक वास्तविक भार का प्रश्न है वह इस बात पर निर्भर करता है कि ऋणों का उपयोग कैसे किया जा रहा है और उन्हें कहाँ से प्राप्त किया जा रहा है। यदि इनके प्रयोग से उत्पादकता में बृद्धि होती है एवं वितरण में समानता स्थापित होती है तो इन ऋणों का भार नगण्य होता है, किन्तु यदि ऋणों को अनुत्पादक कार्यों में प्रयुक्त किया जाता है तथा इनके भुगतान के लिए निर्धन व्यक्तियों पर कर लगाया जाता है तो इससे वितरण में असमानता बढ़ती है और लोगों पर इसका भार पड़ता है।

(iii) बाह्य ऋणों का भार - आन्तरिक ऋण-भार की तरह बाह्य ऋण भार भी देश के नागरिकों को वहन करना पड़ता है। जब सरकार बाह्य ऋणों की वापसी करती है तो मूलधन और ब्याज की राशि देश के नागरिकों पर कर लगाकर वसूल की जाती है। इससे जो हानि देश के लोगों को होती है, वही इन ऋणों का प्रत्यक्ष वास्तविक भार है। यदि इन ऋणों के प्रयोग से उत्पादकता में बृद्धि होती है तथा देश की राष्ट्रीय आय बढ़ती है जिससे ऋण की अदायगी की जा सकती है तो देश के नागरिकों पर इन ऋणों का भार भी बहुत कम पड़ता है। यदि ऐसे ऋणों को चुकाने के लिए अमीर लोगों पर कर लगाया जाता है तो वास्तविक कर-भार कम होगा। इसके विपरीत, यदि निर्धनों से कर वसूल करके ऋण व ब्याज का भुगतान किया जाता है तो वास्तविक कर भार अधिक होगा। 

कुछ लोगों का कहना है कि बाह्य ऋणों का वास्तविक भार बुरा नहीं है, क्योंकि वाह्य ऋणों की सहायता से बड़े पैमाने पर देश में आर्थिक विकास होता है, जिससे देश में उत्पादन व रोजगार में बृद्धि होती है। क्योंकि प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है, इसलिए लोगों की कर देय-क्षमता भी बढ़ती है। फलत: सरकार नागरिकों को मिलने वाले लाभ में से ही थोड़ी-थोड़ी राशि संग्रह करके ऋणों का भुगतान कर सकती है, ऐसी दशा में वास्तविक भार अधिक नहीं होता। यदि वाह्य ऋणों का उपयोग अनुत्पादक कार्यों के लिए होता है तो यह कहा जायेगा कि इससे रोजगार व उत्पादन में बृद्धि नहीं होगी। लोगों की कर देय-क्षमता भी नहीं बढ़ेगी और ऐसी दशा में वास्तविक भार बढ़ेगा।

(iv) बाह्य ऋणों के पक्ष में तर्क - वाह्य ऋणों के पक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं :
  1. युद्ध व्यय हेतु पर्याप्त संसाधन एकत्रित करने का वाह्य ऋण एक प्रमुख स्रोत है। 
  2. आर्थिक विकास की अनेक दीर्घकालीन परियोजनाओं के वित्त पोषण के लिए बाह्य ऋण संसाधनों की प्राप्ति के प्रमुख स्रोत हैं। वाह्य ऋणों का उत्पादकीय कार्यों में प्रयोग करके देश में पूंजी निर्माण की दर को आसानी से बढ़ाया जा सकता है। 
  3. दैवी विपदाओं एवं संकटकालीन परिस्थितियों में वाह्य ऋण आय का एक प्रमुख स्रोत है। वाह्य ऋणों की सहायता से संकटकालीन समस्याओं का निराकरण आसान हो जाता है। 
  4. अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए बाह्य ऋण आवश्यक होते हैं। 
  5. वाह्य ऋणों द्वारा विदेशी विनिमय के संकट को दूर करने में सहायता मिलती है।
(v) बाह्य ऋणों के विपक्ष में तर्क -  
  • वाह्य ऋणों पर दिया जाने वाला ब्याज देश के सामने विदेशी विनिमय की प्रमुख समस्या उत्पन्न करता है। वाह्य ऋणों की अदायगी भी विदेशी मुद्रा में की जाती है जिससे विदेशी विनिमय संकट उत्पन्न होता है। 
  • वाह्य ऋण ऋणभार को संचयी क्रम में बढ़ाता है, जिससे देश में मितव्ययिता के सिद्धान्त की उपेक्षा होती है। 
  • वाह्य ऋणों की अधिकता दासता का मार्ग प्रशस्त करती है - ऋण देने वाला देश अथवा विदेशी संस्थायें देश की नीतियों में हस्तक्षेप करती हैं।

2. ऋण के उपयोग के आधार पर

ऋणों के उपयोग के आधार पर लोक ऋण को उत्पादक तथा अनुत्पादक ऋणों में विभाजित किया जा सकता है।

1. उत्पादक ऋण - उत्पादक ऋण वे होते हैं जिनका प्रयोग ऐसे उत्पादक कार्यों में किया जाता है, जिनसे इतनी आय प्राप्त हो सके कि उससे ऋण के मूलधन और ब्याज राशि का भुगतान किया जा सके। इन्हें सक्रिय ऋण भी कहते हैं, क्योंकि उत्पादक ऋणों से देश में धन व उत्पादन की मात्रा, राष्ट्रीय लाभांश, जनता की कर दान क्षमता तथा सरकार की आय में बृद्धि होती है। डाल्टन के अनुसार, ‘‘उत्पादक ऋण वह ऋण है जिसकी पूर्ति पूरी तरह समान मूल्य की सम्पत्ति के स्वामित्व से हो जाय।’’ इसी तरह का विचार प्रो0 शिराज तथा प्रो0 मेहता भी दिये हैं। फिण्डले शिराज के अनुसार, ‘‘उत्पादक ऋण वे ऋण हैं जिनके फलस्वरूप बराबर या अधिक मूल्य की सम्पत्ति का निर्माण होता है और इसी सम्पत्ति की आय से ब्याज का भुगतान किया जाता है। प्रो. जे. के. मेहता के शब्दों में, ‘‘उत्पादक ऋण वे हैं जिनसे प्राप्त राशि को ऐसे व्यवसायों में लगाया जाता है जिनकी आय से मूलधन और ब्याज की राशि को ऋण की परिपक्वता के बाद लौटाया जा सके। उपर्युक्त दृष्टि से उद्योगों, सिंचाई, परिवहन, आदि के हेतु लिये गया ऋण उत्पादक माना जाता है।

2. अनुत्पादक ऋण - उन ऋणों को अनुत्पादक कहते हैं जिनके प्रयोग से सरकार को कोई आय प्राप्त नहीं होती अथवा बराबर सम्पत्ति का निर्माण नहीं होता। इन्हें निश्क्रिय ऋण भी कहा जाता है। प्रो. डाल्टन के अनुसार, ‘‘वह ऋण अनुत्पादक होता है, जिसके पीछे कोई वर्तमान सम्पत्ति नहीं होती।’’ इसे दृष्टि में रखते हुए कहा जा सकता है कि युद्ध, बाढ़ अथवा अकाल इत्यादि पर व्यय के लिए जो ऋण लिया जाता है वह अनुत्पादक होता है। यद्यपि कि उपर्युक्त वर्गीकरण सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से भले ही सही हैं पर यदि सरकार ऋणों का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से करती है तो किसी भी ऋण को अनुत्पादक नहीं कहा जा सकता। उदाहरणत: यदि युद्ध पर व्यय किया जाता है तो इससे देश की स्वतन्त्रता की रक्षा होती है और लोगों में कार्यक्षमता की बृद्धि होती है तथा देश में शान्ति और व्यवस्था का निर्माण होता है जो अप्रत्यक्ष रूप से उत्पादन में सहायक होता है।

    3. ऋण प्राप्ति की प्रकृति के आधार पर

    इस आधार पर लोक ऋण को दो भागों में बांटा जाता है - 
    1. ऐच्छिक ऋण
    2. अनिवार्य ऋण।
    1. ऐच्छिक ऋण  - ऐच्छिक ऋण से तात्पर्य ऐसे ऋण से है जिसे सरकार ऋण देने वालों की इच्छा से लेती है अर्थात् उन्हें ऋण देने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। बाह्य ऋण ऐच्छिक प्रकृति के होते हैं। सरकार देश के लोगों से भी ऐच्छिक ऋण लेती है। सरकार ऋण की अवधि, राशि, ब्याज आदि का विज्ञापन कर देती है तथा जिन व्यक्तियों की इच्छा होती है, वे ऋणपत्र खरीदते हैं।

    2. अनिवार्य ऋण - जब सरकार देश के नागरिकों को ऋण देने के लिए बाध्य करती है तो ऐसे ऋणों को अनिवार्य ऋण कहते हैं। आन्तरिक ऋण ही अनिवार्य हो सकते हैं, बाह्य ऋण नहीं क्योंकि सरकार विदेशी नागरिकों या सरकारों को ऋण देने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। उदाहरण के लिए भारत में अनिवार्य जमा योजना अनिवार्य ऋण का उदाहरण है। डाल्टन के अनुसार, ‘‘आधुनिक राजस्व में अनिवार्य ऋण का महत्व बहुत कम रह गया है।’’

      4. ऋण की अवधि के आधार पर

      ऋण की अवधि के आधार पर भी लोक ऋण को दो भागों में बांटा जाता है -
      1. अल्पकालीन या निश्चित कालीन अथवा अनिधिक ऋण,
      2. दीर्घकालीन या अनिश्चित कालीन अथवा निधिक ऋण।
      1. अल्पकालीन या निश्चित कालीन अथवा अनिधिक ऋण  - जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है कि ये ऋण अल्प अवधि के होते हैं। सामान्य रूप से इनकी अवधि एक वर्ष की होती है। इन्हें सरकारें किसी विशेष उद्देश्य से नहीं वरन् अपने नियमित खर्च चलाने के लिए लेती हैं। सरकारें इन ऋणों की अदायगी के लिए किसी कोष की व्यवस्था नहीं करतीं, अत: इन्हें अनिधिक ऋण भी कहते हैं। राजकोषीय पत्र (Treasury Bills) के आधार पर लिये जाने वाले ऋण अल्पकालीन होते हैं ये 6 माह के भीतर शोधनीय होते हैं। अत: इन्हें अल्पकालीन ऋण हैं।

      2. दीर्घकालीन या अनिश्चित कालीन अथवा निधिक ऋण - ये ऋण लम्बी अवधि के लिए सरकार द्वारा लिए जाते हैं। इन ऋणों को लेते समय इनकी अदायगी, अवधि तथा अन्य शर्तों को निश्चित कर लिया जाता है। इनकी अदायगी के लिए अलग एक कोष की स्थापना की जाती है अत: इन्हें निधिक या स्थायी ऋण भी कहते हैं। क्योंकि सरकार इस कोष में प्रतिवर्ष एक निश्चिम रकम जमा करती रहती है इसी कारण इसे कोशित ऋण भी कहते हैं। इस प्रकार का ऋण प्राय: सरकार नहरें, सड़कें, रेल तथा अन्य उत्पादक एवं स्थायी निर्माण कार्यों के लिए लेती हैं। इसके विपरीत अल्पकालीन ऋणों के लिए सरकार किसी प्रकार के कोष का निर्माण नहीं करती और इन ऋणों का भुगतान अपनी चालू आय में से नए लिए गए ऋणों से करती हैं।

        5. ऋण के भुगतान के आधार पर

        भुगतान के आधार पर ऋणों का भुगतान निम्न दो प्रकार से किया जा सकता है -
        1. प्रतिदेय अथवा शोध्य ऋण, 
        2. अप्रतिदेय अथवा अशोध्य ऋण।
        1. प्रतिदेय अथवा शोध्य ऋण - प्रतिदेय ऋण वे ऋण होते हैं जिनका एक निश्चित अवधि के बाद भुगतान का चयन सरकार द्वारा किया जाता है। प्रो. जे.के. मेहता के अनुसार, ‘‘प्रतिदेय ऋण वे ऋण हैं, जिसको सरकार द्वारा एक भावी तिथि पर भुगतान करने का वचन दिया जाता है।’’

        2. अप्रतिदेय अथवा अशोध्य ऋण - अप्रतिदेय ऋण वे ऋण होते हैं जिनके मूलधन के भुगतान की कोई तिथि नहीं होती किन्तु ब्याज के भुगतान की गारण्टी सरकार द्वारा दी जाती है। इस ऋण को सार्वकालिक ऋण अथवा बेमियादी ऋण भी कहते हैं।दूसरे शब्दों में, शोध्य ऋण वे होते हैं, जिनका भुगतान सरकार को ब्याज सहित एक निश्चित अवधि तक कर देना पड़ता है। इसके विपरीत अशोध्य ऋणों के सम्बन्ध में ऐसा कोई वादा सरकार नहीं करती। इस प्रकार अशोध्य ऋणों में सरकार केवल ब्याज का भुगतान करती है और मूलधन के भुगतान की चिन्ता नहीं करती है। 

        इन ऋणों की विशेषताएँ इस प्रकार हैं - 
        1. शोध्य ऋण की दशा में मूलधन तथा ब्याज दोनों का भुगतान किया जाता है जबकि अशोध्य ऋण में केवल ब्याज का भुगतान करना पड़ता है। 
        2. अशोध्य ऋण उन व्यवस्थाओं हेतु लेना चाहिए जिनसे निरन्तर आय प्राप्त होती रहे, जबकि शोध्य ऋण किसी भी कार्य के लिए लिया जा सकता है। 
        3. शोध्य ऋण समय के दृष्टिकोण से अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन होते हैं, जबकि अशोध्य ऋण सदैव के लिए अर्थात् कालरहित होते हैं। 
        4. अशोध्य ऋणों का भार भावी पीढ़ी पर पड़ता है और शोध्य ऋण का भार केवल वर्तमान पीढ़ी पर।
        5. अशोध्य ऋणों का प्रचलन आजकल नहीं है क्योंकि इनका भार नागरिकों पर सदैव पड़ता रहता है। जब तक ऋण राशि का भुगतान नहीं हो जाता तब तक सरकार नियमित रूप से ब्याज का भुगतान करती रहती है और सरकार कभी भी इस ऋण से मुक्त नहीं हो पाती है।
        शोध्य ऋणों के लाभ - 
        • संकट काल में अल्पकालीन आय स्रोतों को जब सरकार कर द्वारा पूरा नहीं कर पाती तो वह शोध्य ऋणों की सहायता लेती है क्योंकि ये ऋण अल्पकालीन ऋण के समान होते हैं। 
        • शोध्य ऋणों में ब्याज की दर कम रहने की सम्भावना होती है, जिसके कारण इन ऋणों पर दिए जाने वाले ब्याज का भुगतान आसान हो जाता है। 
        • शोध्य ऋण में ऋण लेने और देने की साख बनी रहती है, जिसके कारण ऋण सुगमता से सहज रूप में मिल जाते हैं।
        शोध्य ऋणों की हानियाँ - 
        1. शोध्य ऋण देश के पूंजीपतियों एवं धनी व्यापारियों से सुगमता से प्राप्त हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप लोगों की व्यक्तिगत पूँजी निजी विनियोग से निकलकर सरकार के हाथो में चली जाती है जिसका सरकार उत्पादकीय एवं अनुत्पादकीय दोनों ही प्रकार की क्रियाओं में प्रयोग करती है। निजी पूँजी के इस स्थानान्तरण का उत्पादन एवं विनियोग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 
        2. शोध्य ऋणों की प्राप्ति सहज होने के कारण अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है जिससे अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति उत्पन्न होने का भय सदैव बना रहता है।
        3. शोध्य ऋणों की अधिकता सरकार को ऋणों के दुश्चक्र में फंसा देती है और ऐसे ऋण दीर्घकालीन बन जाते हैं क्योंकि सरकार एक ऋण का भुगतान करने के लिए क्रमश: दूसरा ऋण लेती चली जाती है तथा अर्थव्यवस्था में ऋणों का बोझ कभी समाप्त नहीं होता।
        4. शोध्य ऋणों को लेने की बारम्बारता अधिक होती है। सरकार द्वारा बार-बार ऋण लिए जाने के कारण सरकार की साख गिर जाती है जिसका प्रतिकूल प्रभाव विशेष रूप से बाहरी ऋणों पर पड़ता है।
        अशोध्य ऋणों के लाभ - 
        1. अशोध्य ऋणों का ऋण भार कम होता है क्योंकि इस भार को भविष्य के लिए टाला जा सकता है। 
        2. देश में दीर्घकालीन आर्थिक संकट उत्पन्न होने पर शोध्य ऋणों की तुलना में अशोध्य ऋण अधिक सहायक होते हैं क्योंकि अशोध्य ऋणों के भुगतान की अवधि बहुत लम्बी होती है और इस अवधि के दौरान देश अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार कर सकता है। 
        3. अशोध्य ऋणों के भुगतान की समस्या सरकार के सामने ज्वलंत रूप में नहीं होती क्योंकि इन ऋणों की अदायगी की कोई विशेष तिथि नहीं होती और सरकार आसानी से इन ऋणों के ब्याज का भुगतान करती रहती है। 
        4. अशोध्य ऋण प्राय: दीर्घकालीन होते हैं, जिनका प्रयोग आर्थिक विकास की दीर्घकालीन परियोजनाओं में किया जाता है। दूसरे शब्दों में अशोध्य ऋण आर्थिक विकास के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन एकत्रित करने में सक्षम हैं।
        अशोध्य ऋणों से हानियाँ - 
        • अशोध्य ऋणों में भुगतान की विशेष समस्या नहीं रहती जिससे फिजूलखर्ची को बढ़ावा मिलता है तथा मितव्ययिता के सिद्धान्त की उपेक्षा होती है। 
        • अशोध्य ऋणों में व्यक्तियों का धन लम्बे समय तक सरकार के पास जमा रहता है, जिससे निजी क्षेत्र का विनियोग घट जाता है, जिसका पूंजी निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 
        • अशोध्य ऋणों में ब्याज की दर ऊंची होती है जिसके कारण भुगतान का भार न केवल वर्तमान पीढ़ी पर पड़ता है बल्कि भावी पीढ़ी को भी इस भार को वहन करना पड़ता है।

        6. ब्याज के आधार पर

        ब्याज के आधार पर भी लोक ऋण को दो भागों में विभाजित किया जाता है-
        1. ब्याज सहित ऋण 
        2. ब्याज रहित ऋण।
        1. ब्याज सहित ऋण  - जिस ऋण की अदायगी में मूलधन के साथ ब्याज का भुगतान भी किया जाता है उसे ब्याज सहित ऋण कहते हैं। सामान्य रूप से ऋणों की यही प्रकृति होती है।

        2. ब्याज रहित ऋण - जिस ऋण की अदायगी के समय केवल मूलधन की वापसी की जाती है तथा ब्याज का भुगतान नहीं किया जाता है ऐसे ऋण को ब्याज रहित ऋण कहते हैं। ऋण लेते समय ही यह निश्चित कर लिया जाता है कि इस ऋण पर ब्याज नहीं लिया जाएगा। कुछ विशेष परिस्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीय वित्त संस्थाओं द्वारा इस प्रकार के ऋण दिए जाते हैं।

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