शिक्षा का संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ता है?

सभ्यता के विकास के साथ-साथ श्रम-विभाजन की प्रक्रिया और अधिक जटिल होती गयी, परिणामतः सीखने की प्रक्रिया में ‘‘विद्यालय’’ व्यवस्था की शुरूआत हुई। इससे परिवार तथा परिवार के बाहर की व्यवस्था प्रक्रियाओं तथा संबंध निर्धारण की प्रक्रिया की जानकारी दी जाने लगी। यही मुख्य कारण है जिससे संस्कृति का प्रसार अधिक तीव्र हुआ है। इस हेतु शिक्षा का मूल उद्देश्य बालक को सामुदायिक जीवन के लिए तैयार करना जिसे व्यक्तित्व के विकास की संज्ञा दी जा सकती है। सामुदायिक जीवन की शैली, जिसे बालक शिक्षा द्वारा ग्रहण करता है, उसे समाज-शास्त्र की भाषा में ‘‘संस्कृति का हस्तान्तरण’’ कहा जाता है।

संस्कृति और शिक्षा, दोनों ही घटक एक-दूसरे के पूरक हैं, जिनकी सम्बद्धता मूलतः तीन स्तरों पर है - प्रथम, शिक्षा संस्कृति की वाहक है अर्थात् शिक्षा के माध्यम से ही संस्कृति का हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के लिए संभव हो पाता है। द्वितीय, शिक्षा संस्कृति की प्रसारक है अर्थात् शिक्षा के द्वारा ही संस्कृति का विस्तार एवं प्रसार समाज के सदस्यों में हो पाता है। तृतीय, शिक्षा संस्कृति की निर्धारक है। यही सांस्कृतिक परिवर्तनों आदि की दृष्टि से महत्ती भूमिका निभाती है।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि शिक्षा द्वारा संस्कृति को जीवित रखा जा सकता है तथा संस्कृति का विकास किया जाना संभव हो पाता है। इसका आशय है कि शिक्षा और संस्कृति एक-दूसरे के पूरक है और दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते है।

शिक्षा का संस्कृति पर प्रभाव

शिक्षा व्यवस्था का संस्कृति पर प्रभाव निम्नलिखित विवेचन से स्पष्ट है -

शिक्षा संस्कृति की निरन्तरता में सहायक - संस्कृति किसी भी मानव जाति के इतिहास का विशुद्ध सार है। यह उन नीतियों और परम्पराओं से मिलकर बनती है, जिनमें उस जाति के दीर्घ समय के अनुभवों का परिणाम निहित होता है। अतः किसी जाति का अपनी संस्कृति से संबंध समाप्त होना विनाशकारी होता है। ऐसी स्थिति में समाज में ठहराया आ जाता है तथा वह जंगलीपन की ओर बढ़ने लगता है। इस स्थिति में शिक्षा ही एक मात्र उपाय है जो संस्कृति को निरन्तरता प्रदान करता है तथा संस्कृति के वर्तमान स्वरूप का अस्तित्व बनाए रखकर उसे विकास की ओर अग्रसर करता है।

संस्कृति के हस्तांतरण में सहायक - व्यक्ति समाज के सदस्य के रूप में संस्कृति को सीखता है और उसे आगामी पीढ़ी को हस्तान्तरित करता है। इस कार्य में शिक्षा, संस्कृति को अपूर्व सहायता करती है। यह सत्य है कि व्यक्ति अज्ञात रूप से संस्कृति की अनेक बातें सीखता है, किन्तु अधिकांश भाग अपने अध्यापकों से विद्यालयी व्यवस्था में जानता है।

संस्कृति के परिवर्तन में सहायक - बालक अपनी वृद्धि के साथ-साथ संस्कृति के प्रचलित रीति-रिवाजों, आदतों, नियमों आदि को सीखता रहता है। वह इसके लिए अपने अभिभावकों, परिवार के सदस्यों और विद्यालय के अध्यापकों पर निर्भर रहता है। इन सभी से सीखे गये व्यवहार से ही वह अपने व्यवहार का निर्धारण करता है अर्थात् अधिगम (शिक्षा) द्वारा ही संस्कृति में आने वाले परिवर्तनों को बालक अपने व्यवहार में उतारता है।

व्यक्तित्व के विकास में सहायक - बालक के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास का कार्य शिक्षा संस्कृति की सहायता से ही करती है। इसका कारण शिक्षा को संस्कृति से अधिगम उपकरण प्राप्त होना है, जिन्हें बालक के बौद्धिक, चारित्रिक, संवेगात्मक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयुक्त करती है।

व्यक्ति के सांस्कृतिक विकास में सहायक - बालक जन्म के समय न तो सामातजिक होता है और नही असामाजिक। उसके व्यक्तिव में वह सीखने के आधार पर संस्कृति का ज्ञानार्जन कर अपने व्यवहार का निर्धारण करता है। वह शिक्षा के माध्यम से संस्कृति का अधिकाधिक अधिगम करता है, जिससे उसके व्यक्तित्व के सांस्कृतिक विकास में सहायता मिलती है।

शिक्षा पर संस्कृति का प्रभाव 

यह पूर्व में ही विवेचित कर चुके हैं कि शिक्षा और संस्कृति एक-दूसरे के लिए पूरक के रूप में है। शिक्षा जिस प्रकार संस्कृति के संरक्षण एवं प्रोत्साहनमें अपना योगदान देती है, उसी भाँति संस्कृति भी शिक्षा के स्वरूप के निर्धारण में अपना योग प्रदान करती हैं, जो निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट है -

शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्यों पर प्रभाव - यह सत्य है कि शिक्षा द्वारा व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया निर्धारित होती है। इसका अभिप्राय प्रचलित व्यवस्थाओं के अनुरूप लगाया जाता है। समाज की आवश्यकताएँ, आकांक्षाएँ, शिक्षा के अर्थ को प्रभावित करती है। जिस समाज में संस्कृति का जो स्वरूप अस्तित्व में होगा, वहाँ शिक्षा का अर्थ भी उसी भाँति ही प्रचलित रहेगा। जिस समाज में आध्यात्मिकता पर अधिक बल होगा, वहाँ शिक्षा का प्रमुख कार्य बालक में आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना होगा तथा जिस समाज में भौतिकता का अधिक प्रचलन होगा, वहाँ उत्पादकता का विकास करना शिक्षा का प्रमुख कार्य होगा।

पाठ्यक्रम पर प्रभाव - संस्कृति शिक्षा के लिए प्रचलित पाठ्यक्रम को भी प्रभावित करती है, इसका कारण समाज के उद्देश्यानुकूल ही पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाना है। पाठ्यक्रम के आधार तत्व शिक्षा के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही निर्धारित किए जाते है। इसका तात्पर्य है कि विद्यालय में बालकों को पढ़ायी जाने वाली विषय-वस्तु समाज की आवश्यकतानुकूल एवं संस्कृति के अनुसार होती है।

शिक्षण विधियों पर प्रभाव - शिक्षण विधि अध्यापक तथा छात्र के मध्य संबंध स्थापित करने की प्रक्रिया है। प्रत्येक विद्यालय में छात्र और अध्यापक के मध्य संबंध वहाँ प्रचलित सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुसार ही होते हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रत्येक संस्कृति समयानुकूल अपने स्वरूप में परिवर्तन करती रहती है। इस परिवर्तन को आधार स्वीकार करके ही अध्यापक अपने छात्रों के साथ तथा छात्र अपने अध्यापक केन्द्र बिन्दु हुआ करता था, वहीं आज जनतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था के प्रचलन के कारण बालक और अध्यापक दोनों ही महत्वपूर्ण पक्ष बन गए है।

विद्यालय पर प्रभाव - विद्यालय को समाज का लघु रूप माना जा सकता है। किसी स्थान विशेष के समाज और संस्कृति के अध्ययन के लिए विद्यालय सर्वोपयुक्त स्थान है। विद्यालय वहाँ की संस्कृति का केन्द्र होता है। स्थान-विशेष की प्रचलित संस्कृति अर्थात् रहन-सहन, आचार-व्यवहार, खान-पान आदि का प्रत्यक्षीकरण विद्यालय में अवश्य होता है। इसका अभिप्राय है कि संस्कृति के अनुरूप ही विद्यालय में वातावरण का सृजन होता है। इसे एक सामाजिक संस्था के रूप में जाना जा सकता है।

अध्यापक और संस्कृति - विद्यालय में अध्यापक सम्पूर्ण समाज की संस्कृति का प्रतिनिधि होता है। वह संस्कृति को सजीव बनाए रखता है तथा महत्व के अनुसार हस्तांतरण करता रहता है। अध्यापक का व्यवहार, उसके द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान, स्थान विशेष की संस्कृति के अनुरूप ही निर्धारित होता है।

छात्र और संस्कृति - सांस्कृतिक व्यवस्थाओं के अनुरूप ही बालक को विद्यालय में ज्ञानार्जन एवं अध्यापकों का व्यवहार प्राप्त होता है, जिससे वह अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। शिक्षा के उद्देश्य, प्रचलित पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधि, अध्यापक का व्यवहार, विद्यालय का वातावरण बालक के व्यक्तित्व के परिष्करण के प्रमुख आधार हैं, जिनका निर्धारण संस्कृति से ही होता है।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि किसी भी समाज की संस्कृति, समाज के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है तथा वह अपने अनुसार ढालने का प्रयास करती है। विज्ञान के आविष्कारों तथा तकनीकी प्रसारण ने संस्कृति में परिवर्तन की गति को तीव्र बना दिया है जिसको समाज के सदस्यों तक पहुँचाने का सबसे सफल साधन शिक्षा है। प्रत्येक समाज की शिक्षा का स्वरूप उस समाज की संस्कृति पर निर्भर करता है। शिक्षा के अभाव में कोई भी समाज न तो संस्कृति को सुरक्षित रख सकता है और न ही उसका विकास कर सकता है। शिक्षा का स्वरूप समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप होता है जो कि संस्कृति द्वारा निर्धारण होती हैं, अर्थात् शिक्षा और संस्कृति एक दूसरे के पूरक है।

Post a Comment

Previous Post Next Post