वस्तुनिष्ठता का अर्थ एवं परिभाषा?

वस्तुनिष्ठता किसी अध्ययन से सम्बन्धित वह विशेषता है जो यथार्थ अवलोकन पर आधारित होती है। जब हम अपने धर्म, जाति प्रजाति, विष्वास-क्षेत्र एवं निजी विचारों से पृथक रहकर कोई अध्ययन करता है, तब ऐसे अध्ययन को हम वस्तुनिष्ठ अध्ययन कहते हैं। ऐसे अध्ययन का उद्देश्य किसी तथ्य की अच्छाई-बुराई अथवा उससे सम्बन्धित उचित और अनुचित को देखना नहीं होता बल्कि तथ्यों का विश्लेषण करना होता है। इस प्रकार उनके वास्तविक रूप में प्रवृत्ति तथा वैज्ञानिक प्रयास की संयुक्तता को ही हम वस्तुनिष्ठता के अर्थ के रूप में स्पष्ट करते हैं।

वस्तुनिष्ठता का अर्थ

ग्रीन के शब्दों में- ‘‘वस्तुनिष्ठता निष्पक्ष रूप से किसी तथ्य का परीक्षण करने की इच्छा और योग्यता है। ’’ इस कथन से स्पष्ट होता है कि वस्तुनिष्ठता एक ऐसी विेशेषता है जिसमें निष्पक्ष अध्ययन की इच्छा और योग्यता दोनों का होना आवश्यक है। इच्छा’ का तात्पर्य विभिन्न घटनाओं को यथार्थ रूप से प्रस्तुत करने की इच्छा से है जबकि ’योग्यता’ का सम्बंध व्यक्तिनिष्ठता को दूर रखने की कुशलता से है। इसका तात्पर्य है कि एक अध्ययनकर्ता जब कुशलतापूर्वक तथ्यों को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है तब इसी विशेषता को हम वस्तुनिष्ठता कहते हैं।

फेयर चाइल्ड के अनुसार - ‘‘ वस्तुनिष्ठता का अभिप्राय एक ऐसी योग्यता से है जिसके द्वारा अनुसंधानकर्ता स्वयं को उन दशाओं से पृथक् रख सके जिसका कि वह स्वयं एक अंग है तथा किसी तरह के लगाव अथवा भावना के स्थान पर पक्षपातरहित और पूर्वाग्रहों से मुक्त तर्को के आधार पर विभिन्न तथ्यों को उनके स्वाभाविक रूप में देख सके।’’

उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट होता है कि घटनाओं को स्वाभाविक रूप में देखना ही वस्तुनिष्ठता का वास्तविक आधार है। वस्तुनिष्ठता के अभाव में किसी भी अध्ययन को

वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता चाहे वह वाह्म रूप से कितना ही श्रम-साध्य और आकर्षक प्रतीक क्यों न होता हो।

वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता

वस्तुनिष्ठता के अर्थ से यह स्पष्ट हो जाता है किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन के लिए वस्तुनिष्ठता सबसे अधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण तथ्य है। इसके बिना किसी अध्ययन का कोई भी वैज्ञानिक मूल्य नहीं रह जाता। वास्तव में वैज्ञानिक अध्ययन का आधारभूत उद्देश्य एक सर्वभौमिक निष्कर्ष प्राप्त करना होता है जो वस्तुनिष्ठता के द्वारा ही सम्भव है।

1. यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए - यह सच है कि प्रत्येक अध्ययन का उद्देश्य कुछ विशेष तथ्यों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना होता है लेकिन सामाजिक घटनाओं के सन्दर्भ में इस प्रवृति की आवश्यकता कहीं अधिक है। सामाजिक अनुसंधानों में वस्तुनिष्ठता के द्वारा ही यथार्थ और उपयोगी ज्ञान का संचय करना सम्भव है। सामाजिक परिवर्तन के कारण आज विभिन्न सामाजिक घटनाओं एवं मूल्यों में तीव्रता से परिवर्तन हो रहे हैं। इस स्थिति में एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाकर ही समकालीन दशाओं से सम्बन्धित यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

2. वैज्ञानिक पद्धति के सफल प्रयोग के लिए - वस्तुनिष्ठता और वैज्ञानिक पद्धति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना निरर्थक है। इसीलिए वैज्ञानिक पद्धति की प्रथम शर्त वस्तुनिष्ठता है और इसकी प्राप्ति वस्तुनिष्ठ पद्धति के द्वारा ही सम्भव है। अतः यदि हमारा उद्देश्य वैज्ञानिक पद्धति का सफल प्रयोग है तो अपने अध्ययन में वस्तुनिष्ठता लाने का प्रयत्न हमें करना ही होगा। वास्तविकता यह है कि यदि अध्ययन-कार्य में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण को अपनाया गया तो सत्य की खोज कठिन होने पर भी असम्भव या दूर

का सपना नहीं रह जायेगी। पर यदि वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण को अपनाया नहीं गया तो केवल वैज्ञानिक पद्धति हमें सत्य निष्कर्ष तक नहीं पहुँचा सकेगी।

3. सामान्य भ्रान्तियों को दूर करने के लिए - मानव की यह प्रवृत्ति है कि वह अपने सामान्य ज्ञान के आधार पर ही बहुत भ्रमों को विकसित कर लेता है यथा विभिन्न प्रकार के व्यवहारों को समझने के लिए अपने विश्वासों को ही निर्णायक मानता रहता है।ऐसी सभी भ्रान्तियों को केवल वस्तुनिष्ठ अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्षो के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अभी तक यह एक सामान्य भ्रान्ति थी कि अन्तर्जातीय विवाहों से उत्पन्न सन्तानें मूर्ख, अकुशल, अविवेकी यथ कभी- कभी अपंग होती है। इसके विपरीत जब वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित वस्तुनिष्ठ अध्ययन किये गये तो यह निष्कर्ष निकला कि अन्तर्जातीय विवाहों से उत्पन्न सन्तानें उन माता - पिता के बच्चों से अधिक योग्य एवं कुशल होती हैं जिन्होनें अपनी जाति में विवाह किया हो।

4. अनुसंधान के नये क्षेत्रों को विकसित करने के लिए -एक अध्ययनकर्ता जब वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाकर अध्ययन कार्य करता है तो अनेक ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हो जाते हैं जिन पर पहले कभी विचार नहीं किया गया था। यद्यपि ऐसे तथ्यों का अनावरण करना अध्ययनकर्ता का उद्देश्य नहीं होता लेकिन तो भी उसे आकस्मिक रूप से ऐसे तथ्य प्राप्त हो जाते हैं। इससे अनुसंधान के अनेक नये क्षेत्र स्पष्ट होते हैं तथा विभिन्न अध्ययनकर्ताओं को उनका व्यापक रूप से अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हो जाता है। सच तो यह है कि वस्तुनिष्ठता के आधार पर हम ज्ञान के क्षेत्र में जितना आगे बढते जाते हैं हमें अनेक नवीन लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते रहते है।

5. निष्पक्ष निष्कर्षों की प्राप्ति के लिए - सामाजिक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता की सर्वप्रथम आवश्यकता व उसका महत्व यह है कि इसके बिना निष्पक्ष निष्कर्षों तक पहुँचना अनुसंधानकर्ता के लिए कदापि संभव नहीं। वस्तुनिष्ठता का अर्थ ही है पक्षपातरहित होकर घटनाओं की वास्तविकताओं को ढूंढ निकालना। अतः योग्य निष्कर्षों तक पहुँचना अनुसंधानकर्ता के लिए तब तक

सम्भव नहीं होता तब तक उसमें वस्तुनिष्ठ अध्ययन या अनुसंधान करने की क्षमता न हो। इस अर्थ में वस्तुनिष्ठता वह साधन है जिनके द्वारा सामाजिक घटनाओं के सम्बन्ध में वैज्ञानिक निष्कर्ष प्रस्तुत किया जा सकता है।

6. तथ्यों के सत्यापन के लिए आवश्यक - वैज्ञानिक अध्ययन की एक प्रमुख विशेषता उसकी सत्यापनशीलता है। इसका तात्पर्य है कि किसी भी ऐसे अध्ययन को वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता जिससे प्राप्त तथ्यों की पुनर्परीक्षा न की जा सकती हो। अध्ययन से सम्बन्धित निष्कर्ष यदि यथार्थ हों तो उनकी किसी भी समय पुनर्परीक्षा करके उनका सत्यापन किया जा सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता इसलिए भी आवश्यक है जिससे सम्बधिन्त निष्कर्षों का कोई भी अन्य अध्ययनकर्ता सत्थापन कर सके।

वस्तुनिष्ठता प्राप्त करने के साधन अथवा विधियाँ

अपने अनुभवों तथा अन्वेषणों के आधार पर सामाजशास्त्रियों ने उन अनेक साधनों का पता लगा लिया है जिनके द्वारा सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में भी वस्तुनिष्ठता प्राप्त की जा सकती है। कहा जा सकता है कि वस्तुनिष्ठ रहने की इच्छा और वस्तुनिष्ठ करने में प्रयत्नशील करना इस दिशा में महत्वपूर्ण है। तटस्थ रहने की इच्छा का सम्बन्ध स्वयं अनुसंधानकर्ता से है और उनकी अभिव्यक्ति इस रूप में होती है कि अनुसंधानकर्ता स्वयं वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति के लिए सचेत रहता है। उसके लिए समस्त व्यक्तिगत राग-द्वेष, विचार मूल्य, पक्षपात, मिथ्या-झुकाव आदि से हर पग पर बचता है। दूसरी ओर, वस्तुनिष्ठता प्राप्त करने का प्रयत्न इस बात का द्योतक है कि उसका अध्ययन अधिकाधिक वस्तुनिष्ठ हो सके। इन इच्छाओं तथा प्रयत्नों को ही उन साधनों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो कि सामाजिक अनुसंधान में वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है।

1. अवधारणाओं का मानवीकरण - समाजिक घटनाओं के अध्ययन में अनेक ऐसे महत्वपूर्ण शब्दों अथवा अवधारणाओं का उपयोग होता है जिनका अर्थ स्पष्ट न होने से सम्पूर्ण अध्ययन दोषपूर्ण बन जाता है। विभिन्न अवधारणओं का अर्थ स्पष्ट न होने से शोधकर्ता सूचनादाता एवं सामान्य व्यक्ति उसका अलग-अलग अर्थ लगाने लगते है’। विभिन्न शब्दों और धारणाओं को जब एक सुनिश्चित रूप प्राप्त हो जाता है तो सभी शोधकर्ता सूचनादाता और विवेचनकर्ता उनका समान अर्थों में उपयोग करते हैं जिसके फलस्वरूप अध्ययन में वस्तुनिष्ठता आने की सम्भावना बढ़ जाती है।

2. सामूहिक अनुसंधान - शोधकर्ता में व्यक्तिगत अभिनति को दूर करने तथा वस्तुनिष्ठता प्राप्त करने में सामूहिक अनुसंधान का भी विशेष महत्व है सामूहिक अध्ययन प्रमुख रूप से दो प्रकार से किया जा सकता है। प्रथम एक ही समस्या का किसी विशेष अध्ययन-पद्धति द्वारा और दो या अधिक शोधकर्ताओं द्वारा अध्ययन किया जाय और बाद में वे एक-दूसरे की सहायता से अन्तिम निष्कर्षों को प्रस्तुत करें। ऐसी विधि से व्यक्तिनिष्ठता से सम्बन्धित दोषों की सम्भावना बहुत कम रह जाती है दूसरा तरीका यह है कि एक ही प्रकार की समस्या का दो या दो से अधिक अनुसंधानकर्ताओं द्वारा अलग-अलग- विरोधाभासों को दूर करके एक समान्य निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाय।

3. प्रयोगसिद्ध पद्धतियों का उपयोग -अध्ययन में वस्तुनिष्ठता लाने का सर्वप्रमुख व उल्लेखनीय साधन यह है कि सम्पूर्ण अध्ययन कार्य में कहीं भी काल्पनिक या दार्शनिक अथवा आध्यात्मिक विचारों को कोई भी स्थान न देकर केवल प्रयोग सिद्धि पद्धितियों का उपयोग किया जाता है। प्रयोगसिद्ध पद्धति से हमारा तात्पर्य अध्ययन की ऐसी प्रणाली से है जो कि वास्तविक निरीक्षण सुनिश्चित तथ्य परिमाणत्मक आंकड़ो तथा ठोस प्रमाणों पर आधारित हो और सर्वप्रकार से गुणात्मक दृष्टिकोण से बिल्कुल परे हो। प्रयोगसिद्ध प्रणाली व्यक्ति के व्यक्तिगत विचारों भावनाओं, आदर्शों, मूल्यों या मानदण्डों पर विश्वास नहीं करती है और न ही इन्हीं के आधार पर अपने निष्कर्षों को प्रभावित होने देती है।

4. अनुसूची एवं प्रश्नावली प्रविधियों का प्रयोग - वस्तुनिष्ठ अनुसंधान के लिए यह भी आवश्यक है कि हम अपने अनुसंधान- कार्य में उन प्रविधियों का प्रयोग करे जिनमें पक्षपात तथा मिथ्या-झुकाव के प्रवेश की सम्भावनायें न्यूनतम हो। निरीक्षण पद्धति में इस प्रकार की सम्भावना अधिक होती हैं। अतः प्रश्नावली एवं अनुसूची प्रविधियों को अधिक निर्भर योग्य माना गया है। इनमें कुछ प्रमाणित प्रश्न होते हैं जिनका उत्तर सूचनादाताओं को देना होता है। अतः स्वयं अनुसंधानकर्ता का पक्षपात तथा मिथ्या-झुकाव इसमें अधिक हस्तक्षेप नहीं कर पाता है इसके सिवा कि प्रश्नों को ही वह तोड़ मरोड़कर प्रश्नावली में प्रस्तुत किया जाता है। वे सभी मानवीकृत होते है।

5. दैव निदर्शन पद्धति का उपयोग - वस्तुनिष्ठता प्राप्ति में एक कठिनाई दोषपूर्ण ढंग से निदर्शनों का चुनाव करने के कारण भी उत्पन्न होती है। अपनी किसी पूर्वधारणा या पक्षपात के कारण अनुसंधानकर्ता ऐसे निदर्शनों को चुनता है जो कि उस घटना का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करते। इस दोष से बचने क के लिए दैव निदर्शन पद्धति का उपयोग लाभप्रद सिद्ध होता है।

6. अन्तर- अनुशासनिक विधि का प्रयोग - सामाजिक घटनाओं के गहन, निष्पक्ष तथा यथार्थ अध्ययन के लिए आजकल अन्तर अनुशासनिक विधि को बहुत उपयोगी समझा जाने लगा है। यह वह विधि है जिसके द्वारा किसी समस्या के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन विभिन्न विषयों के विद्वानों द्वारा पारस्परिक सहयोग से किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी समस्या के आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पक्षों का अध्ययन क्रमशः अर्थशास्त्रियों, राजनीतिशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों द्वारा मिल - जुलकर किया जाय तब हम इस पद्धति को अन्तर-अनुशासनिक विधि कहते हैं।

7. मिश्रित सांस्कृति उपागम का उपयोग - जब दो या दो से अधिक सांस्कृतिक समूहों अथवा क्षेत्रों के विशेषज्ञ मिलकर किसी एक ही स्थान पर एक विशेष समस्या का अध्ययन करते हैं, तब इसे मिश्रित

सांस्कृतिक उपागम कहा जाता है। यदि एक अध्ययनकर्ता उसी सांस्कृतिक समूह का सदस्य हो जिसका वह अध्ययन कर रहा है तो वह कहीं अधिक तटस्थ रहकर यथार्थ तथ्यों को एकत्रित कर सकता है।

संदर्भ -

1. त्रिपाठी, रमाषंकर (2004), सामाजिक शोध एवं सांख्यिकीय तार्किकता, विजय प्रकाशन मन्दिर, वाराणसी
2. सिंह, अरूण कुमार (2014), मनोविज्ञान समाज तथा शिक्षा में शोध विधियाॅ, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली
3. दुबे, के. एस.(2015), षालेय संस्कृति, नेतृत्व एवं परिवर्तन, राधा प्रकाशन मन्दिर

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