व्यापार चक्र की सामान्य अवस्थाएं

व्यापार चक्र की सामान्य अवस्थाएं

कसी भी देश में आर्थिक क्रियाकलापों में उतार-चढ़ाव आते ही रहते है - जहाँ कुछ अवधियों में संवृद्धि दर ऊंची होती है, वहीं कुछ अन्य अवधियों में यह गिर जाती है। यह आमतौर पर देखा जाता है कि ऊंची और नीची संवृद्धि दरों के बारी-बारी से अनेक दौर होते हैं। संवृद्धि के ऐसे ही दौर ‘व्यापार चक्र‘ कहलाते हैं।

व्यापार चक्र की परिभाषा

प्रो0 डब्लू0सी0 मिचेल (W.C. Mitchell) के शब्दों में, ‘‘व्यापार चक्रों से आशय संगठित समुदायों की आर्थिक क्रियाओं में होने वाले उच्चावचनों की श्रृंखला से होता है।’’ (Busines cycles are a series of fluctuations in the economic activities of organised communities) चूँकि यह व्यचापार चक्र है,

अत: इसका आशय इन क्रियाओं में होने वाले उतार चढ़ावों से है जो व्यापारिक आधार पर संचालित की जाती हैं किन्तु व्यापार चक्र के अन्तर्गत के उच्चावचन सम्मिलित नहीं किये जाते जिनकी पुनरावृत्ति नियमित नहीं होती। 

प्रो0 जे0 एम0 कीन्स (J.M. Keynes) ने व्यापार चक्र की व्याख्या करते हुये लिखा है ‘‘व्यापार-चक्र उत्तम व्यापार अवधि, जिसमें कीमतों में वृद्धि तथा बेरोजगारी के प्रतिशत में गिरावट होती है तथा खराब व्यापार अवधि, जिसमें कीमतों में गिरावट तथा बेरोजगारी के प्रतिशत में वृद्धि होती है, का जोड़ होता है।’’ 

व्यापार चक्र की सामान्य अवस्थाएं

शुम्पीटर ने अपने पुस्तक Trade Cycle में व्यापार चक्र सम्बन्धी चार अवस्थाओं को बताया है और ये अवस्थाएं अर्थव्यवस्था में एक चक्रीय प्रभाव को जन्म देती है। इन अवस्थाओं की समयावधि निश्चित नहीं होती है। विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक उन्नति सन्तुलित पथ के अनुसार न होकर इन उतार-चढ़ाव के माध्यम से होती रही है। यह जरूरी नहीं है कि ये व्यापारिक चक्र विभिन्न देशों या समयावधियों में बिल्कुल एक जैसे हों। व्यापारिक चक्र विभिन्न देशों में विभिन्न प्रकार के होते हैं।

व्यापार चक्र की चार अवस्थाएं इस प्रकार है:  विस्तार या तेजी, सुस्ती, मन्दी तथा पुनरुत्थान या समुत्थान। 

1. विस्तार या तेजी (Expansion or Boom)

व्यापार चक्र की इस अवस्था में आय, रोजगार, माँग व कीमतें आदि न केवल ऊंचे स्तर पर होती हैं बल्कि वे बढ़ भी रही होती हैं। इस अवस्था में वस्तुओं की कीमतें तेजी से बढ़ती हैं परन्तु साधनों की आय जैसे मजदूरी, ब्याज दर, लगान आदि इतनी तेजी से नहीं बढ़ती हैं। अर्थात् वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि की तुलना में उत्पादन लागत कम बढ़ती है। इससे उत्पादकों के लाभ बढ़ते रहते हैं। अर्थव्यवस्था में आशावादी वातावरण छा जाता है तथा निवेश व अन्य आर्थिक क्रियाओं का तेजी से विस्तार होता है। इसमें मुद्रास्फीति की पूर्ण रोज़गार से अधिक वाली अवस्था उत्पन्न हो जाती है।

2. सुस्ती या अवसाद (Recession)

जब आर्थिक क्रियाएँ उच्चतम सीमा को प्राप्त करने बाद नीचे गिरना शुरू करती हैं तो वह सुस्ती या अवसाद की अवस्था कहलाती है। यह अवस्था अपेक्षाकृत कम समय अवधि की होती है। इसका विस्तार उच्चतम सीमा से सन्तुलन पथ तक का होता है। इस अवस्था में संकुचनवादी शक्तियां विस्तारवादी शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेती हैं तथा विस्तारवादी चक्र को नीचे मोड़ने में सफल हो जाती हैं। इसके अन्तर्गत कीमतें गिरने लग जाती हैं जो फर्मों के लाभ को कम करती रहती हैं। कुछ फर्में अपना उत्पादन कम कर देती हैं तथा अन्य बन्द कर देती हैं। अत: इस अवस्था में एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसमें निवेष, रोजगार, आय, माँग तथा कीमतें इत्यादि सभी निरन्तर गिरते रहते हैं।

3. मन्दी (Depression or Trough or Contraction)

इस अवस्था में लोगों की क्रय शक्ति में कमी के कारण कीमतें गिरती रहती हैं। सामान्य आर्थिक क्रियाओं में निरन्तर गिरावट की प्रक्रिया अर्थव्यवस्था में अति उत्पादन, बेरोज़गारी आदि समस्याओं को और गम्भीर बना देती है। सामान्य आर्थिक क्रियाओं में गिरावट के कारण साख का संकुचन होता जाता है। ब्याज दर काफी नीचे आ जाती है परन्तु निवेश नहीं बढ़ा पाता क्योंकि उद्यमियों में निराषावादी वातावरण छाया रहता है। अत: मन्दी की विशेषता यह है कि इस अवस्था में बड़े  पैमाने पर बेरोज़गारी, कीमतों में सामान्य गिरावट के कारण लाभ, मजदूरी, ब्याज दर, उपभोग, निवेश, बैंक जमा व साख सभी निरन्तर गिर कर निम्नत्तम सीमा तक पहुंच जाते हैं।

4. पुनरुत्थान या समुत्थान (Recovery or Revival)

मन्दी काल के थोड़े समय बाद कुछ वस्तुओं की मांग होने लगती है जो उत्पादन, रोज़गार आदि को बढ़ावा देती है तथा पुनरुत्थान की अवस्था को जन्म देती है। जैसे कम टिकाऊ पदार्थ कुछ समय बाद समाप्त हो जाते हैं तथा इन पदार्थों की मांग अर्थव्यवस्था में अपने आप बढ़ जाती है। इस बढ़ी हुई  मांग को पूरा करने के लिए निवेश बढ़ता है जो आय व उत्पादन तथा रोज़गार को बढ़ाता रहता है। इससे उद्योगों का उत्थान शुरू हो जाता है। इससे पूंजीपत पदार्थ के उद्योगों में भी उत्थान शुरू हो जाता है तथा अर्थव्यवस्था में आषावादी वातावरण शुरू हो जाता है। व्यावसायिक आषंसाएं बढ़ जाती हैं तथा निवेश बढ़ने लग जाता है। इस अवस्था में साख का विस्तार होने लग जाता है। इस प्रकार निवेश, आय, उत्पादन, रोज़गार, मांग, कीमतें आदि सभी एक-दूसरे को निरन्तर बढ़ाती रहती हैं। अन्तत: पुनरुत्थान की अवस्था तेजी की अवस्था में प्रवेश कर जाती है।

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