बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य

बौद्ध धर्म के संस्थापक
गौतम बुद्ध

बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध हैं । जिनका जन्म नेपाल की तराई में कपिलवस्तु के समीप लुम्बिनी गाँव में हुआ । बुद्ध ने जो उपदेश और शिक्षा दी वह बौद्ध धर्म के नाम से जानी जाती है । भारत में बौद्ध धर्मावलम्बियों की संख्या करीब 60.30 लाख है जो कुल जनसंख्या का 0.77 प्रतिशत है । 

तथागत गौतम बुद्ध की देशना का उद्देश्य उन लोगों को उत्तम मार्ग दिखाना था, जो मार्ग से भटक गये थे। उनका ज्ञान अनन्त था ( बृज्ञानमनन्त) । बुद्ध का ज्ञान संसार की अनित्यता और दुःखों से परितत्प मनुष्य की पीड़ा पर आधारित था। उन्होंने मनुष्य को उसकी विविध दशाओं में रोग आदि विपत्तियों से पीड़ित पाया है और संसारको दुःख वशीभूत जान कर क्रोधरहित होकर मानव के दोषा से भरा देख कर वैद्य के समान उसकी व्याधियों को दूर करने के लिए समुचित औषधि उपचार और सुपथ्य बताया। वे महावैद्य थे। यही उनका सद्धर्म था, जिसको सरल और सुबोध समझ कर साधारण से साधारण मनुष्य और स्त्रियों ने भी अपनाने का प्रयत्न किया । इसे मध्यम मार्ग कहा गया है, जो दोनों अन्तों तप और राग और विराग के बीच चलने वाला मार्ग था और जिससे दुःखों से निवृत्त होकर सुख मिलता था । ' इस मार्ग को 'सम्यक् दृष्टिरूपी सूर्य प्रकाशित करता है, सम्पक संकल्परूपी रथ इस पर चलता है ठीक-ठीक बोली गई सम्यक् वाणी विहार (विश्रामस्थल) हैं और यह सम्यक् कर्मान्त के सौ-सौ उपवनों से प्रसन्न करता है, सम्यक् व्यायाम (प्रयत्न) रूपी सेना व परिचारक गुण से युक्त हैं, यह सम्यक् स्मृति (सावधानी, जागरुकता ) रूपी किलेबन्दी से सब ओर से सुरक्षित है। और सम्यक् समाधि (मानसिक एकाग्रता ) रूपी शय्या व आसन से सुसज्जित है । यही उत्तम अष्टांगिक मार्ग हैं, जिसके द्वारा मौत, बुढ़ापे से मुक्ति मिलती है।' इस अष्टांगिक मार्ग के अतिरिक्त बुद्ध ने अपनी अभूतपूर्व और अश्रुत पूर्व धर्म पद्धति को चार आर्य सत्यों- दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध और दुःख निराधगामिनी प्रतिपदा - द्वारा प्रचलित किया। बुद्ध के अनुसार सम्पूर्ण दुःख स्कन्ध, अविद्या और तृष्णा पर आधारित है । इसी को प्रतीत्यसमुत्पाद भी कहा गया है। बौद्ध धर्म आचार - मार्ग पर आधारित है । मध्यम मार्ग दो अतियों- काय - सुख और कार्य क्लेश को त्याग कर मध्यम मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर है। इसे 'मध्यमा प्रतिपदा' भी कहा गया है। 

बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य

उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का निष्कर्ष आर्यसत्यचतुष्टय है। भगवान् ने इन चार आर्य- सत्यों (चत्वारि आर्य - सत्यानि) का रहस्योद्घाटन किया। 58 1. दुःख ( संसार में जीवन दुःखमय है), 2. दुःख - समुदय (इन दुःखों के कारण विद्यमान हैं), 3. दु:ख निरोध (दुःखों से मुक्ति सम्भव है ) तथा दुःखनिरोधगामिनीप्रतिपदा ( दुःखों से निरोध के लिए उचित उपाय अथवा मार्ग) है। सत्यों की संख्या अनन्त है, पर अत्यन्त महत्वपूर्ण होने का कारण ये चार ही सत्य सर्वश्रेष्ठ है । इन सत्यों के मूल तक आर्य अर्थात् विद्वज्जन ही पहुँच सकते हैं, अतः उनको 'आर्य' कहा गया।

1. प्रथम आर्य सत्य है - दुःख । इस संसार में दुःख की सत्ता इतनी ठोस और स्थूल है कि उसका अपलाप नहीं किया जा सकता । प्राणिमात्र किसी न किसी कष्ट से पीड़ित है। 

2. द्वितीय आर्य सत्य है दुःख समुदय, अर्थात् दुःखों का कारण विद्यमान है। दुःख की उत्पत्ति के यथाभूत ज्ञान के बिना दु:ख निरोध सम्भव नहीं । दुःख की उत्पत्ति का एक ही कारण नहीं है, अपितु कारणों की एक लम्बी श्रृंखला है। इस कारण परम्परा की संज्ञा है- - द्वादश निदान । 

'द्वादश निदान' का दूसरा नाम है - प्रतीत्यसमुत्पाद ( हेतु - परम्परा) । यह बौद्ध धर्म का मूल सिद्धान्त माना जाता है। इसका अर्थ है- किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति, अर्थात् सापेक्ष कारणवाद । ये द्वादश निदान हैं - 59 1. जरामरण, 2 जाति, 3. भव, 4. उपादान 5. तृष्णा, 6. वेदना 7. स्पर्श 8 षडायतन 9 नामरूप 10. विज्ञान 11. संस्कार एवं 12. अविद्या । इनमें प्रत्येक पूर्व निदान का कारण परनिदान है। जरामरण का कारण है जाति, जन्म लेना । जाति का कारण है भव, अर्थात् प्राणिमात्र के पुनर्भव या पुनर्जन्म उत्पन्न करने वाले कर्म । भव की उत्पत्ति होती है उपादान, अर्थात् आसक्ति से । उपादान भी अनेक हैं, जैसे- कामोपादान ( स्त्री में आसक्ति), शीलोपादान ( व्रतों में आसक्ति), आत्मोपादान (आत्मा को नित्य मानने में आसक्ति) । कामोपादान से बढ़कर है शीलोपादान और उससे बढ़कर है आत्मोपादान। आसक्ति का कारण है तृष्णा (इच्छा)। तृष्णा उत्पन्न होती है इन्द्रियों द्वारा बाह्य अर्थानुभव से, अतः वेदना (इन्द्रिय-जन्य अनुभूति) ही तृष्णा की जननी है। वेदना का स्रोत है स्पर्श, अर्थात् विषयेन्द्रिय सम्पर्क । और स्पर्श की उत्पत्ति होती है षडायतन (मन सहित ज्ञानेन्द्रिय पंचक) से । षडायतन नामरूप (दृश्यमान शरीर तथा मन से संचलित स्थान ) विशेष का कार्य है । नामरूप की सत्ता विज्ञान (चैतन्य) पर प्रतिष्ठित है। विज्ञान उत्पन्न होता है संस्कार ( पूर्वजन्म के कर्म और अनुभव से उत्पन्न संस्कार) है, अविद्या । द्वादश निदानों के इस चक्र की संज्ञा भवचक्र है । 

3. तृतीय आर्य सत्य है - दुःख - निरोध, अर्थात् निर्वाण । कारण की सत्ता पर ही कार्य की सत्ता अवलम्बित रहती है । अतः यदि कारण- परम्परा का निरोध कर दिया जाय, तो कार्य का निरोध स्वतः सम्पन्न हो जायगा । दुःखों का आद्य कारण अविद्या है, जिसका विद्या द्वारा निरोध कर देने पर दुःखनिरोध हो जाता है।

4. चतुर्थ आर्य सत्य है - दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद्, अर्थात् निर्वाण मार्ग । भगवान बुद्ध ने न तो सांसारिक सुखोपभोग में जीवन व्यतीत करने वाले सुखमार्गियों के मार्ग को, और न कठोर व्रताचरण से शरीर को सुखाने वाले तापसों के मार्ग को निर्वाण के लिए सहायक माना। उन्होंने सुख-दुःख के उभय अन्तों छोरों) का त्यागकर " मध्यम प्रतिपदा " का प्रतिपादन किया। इस प्रतिपदा को "आर्य अष्टांगिक मार्ग" भी कहते हैं ।1 अष्टांअङ्ग ये है - 1. सम्यग्दृष्टि (आर्य सत्यों का तत्वज्ञान), 2. सम्यक् संकल्प (दृढ़ निश्चय), 3. सम्यग्वचन (सत्य-वचन), 4. सम्यक - कर्मान्त ( हिंसा - द्रोह - दुराचरण - रहित कर्म), 5. सम्यक् आजीव (न्यायपूर्ण जीविका ), 6. सम्यग्व्यायाम ( बुराइयों को न उत्पन्न होने देना तथा उपकार के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना ), 7. सम्यक् स्मृति (चित्त, शरीर, वेदना आदि के अशुचि, अनित्य रूप की उपलब्धि तथा लाभादि चित्त - संताप से दूर होना), 8. सम्यक् समाधि ( राग- द्वेषादि द्वन्द्व विनाश से उत्पन्न चित्त की शुद्ध नैसर्गिक एकाग्रता ) । इस अष्टांगिक मार्ग की सधना से प्रज्ञा का उदय होता है और निर्वाण की सद्यः प्राप्ति हो जाती है ।

भगवान् बुद्ध ने जो मोक्ष मार्ग बतलाया वह उपनिषत्प्रतिपादित मार्ग से सर्वथा भिन्न नहीं है। उन्होंने ज्ञान के महत्व को स्वीकार किया और सर्व दुःखों का मूल अज्ञान  को माना । बुद्ध ने ज्ञान के बिना मुक्ति की कल्पना नहीं की, परन्तु ज्ञान की प्राप्ति के लिए शरीर को उसके धारण के योग्य बनाना आवश्यक माना है । ज्ञानोत्पत्ति के लिए शरीर- शुद्धि पर बल दिया । शील का तात्पर्य समग्र सात्त्विक कर्मों से है और बौद्ध धर्म में गृहस्थ तथा भिक्षु दोनों के लिए कतिपय शीलों का पालन करना कर्तव्य माना गया है। गृहस्थ के पंचशील का विधान मिलता है, पर भिक्षु के लिए दसशील का । गृहस्थ के पंचशील ये हैं – प्राणातिपातविरति, अदत्तादानविरति, काममिथ्याचारविरति, मृषावादविरति तथा सुरा - मैरेय- - प्रमादस्थान विरति ।शीलों के साथ समाधि और प्रज्ञा के सेवन पर भी बुद्ध ने बल दिया । सामञ्ञफलसुत्त में चार प्रकार की समाधि का दृष्टांत सहित वर्णन उपलब्ध होता है। प्रज्ञा तीन प्रकार की बतलायी गयी है- श्रृतमयी, चिन्तामयी तथा भावनामयी। 

भगवान् बुद्ध ने कहा कि प्रज्ञा के अनुष्ठान से ज्ञान दर्शन, मनोमय शरीर का निर्माण, ऋद्धियाँ, दिव्य श्रोत्र, परचित- - ज्ञान, पूर्वजन्म - स्मरण और दिव्यचक्ष की उपलब्धि होने के अनन्तर दुःखश्रय का ज्ञान हो जाता है। जब चित्त कामाश्रव ( भोगने की इच्छा), भवाश्रव (जन्म लेने की इच्छा) तथा अविद्याश्रव (अज्ञान - मल) से सदा के लिए मुक्त हो जाता है, तब साधक निर्माण प्राप्त कर लेता है। शील, समाधि और प्रज्ञा को बौद्ध दर्शन में 'त्रिरत्न' की संज्ञा दी गयी - है इन तीन शब्दों में ही बुद्ध के उपदेशों का सारांश अभिव्यक्त होता है ।

बौद्ध धर्म के साहित्य

बौद्ध साहित्य की भी सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्ता है। बौद्ध साहित्य का संकलन चार बौद्ध संगीतियों के माध्यम से हुआ। कई स्वतंत्र ग्रथ भी लिखे गए। बौद्धों का अधिकांश साहित्य पालि भाषा में है । संस्कृत में भी बौद्ध साहित्य लिखा गया है। पालिभाषा में लिखा गया समस्त बौद्ध साहित्य तीन पिटकों में संकलित है। ये तीन पिटक है - विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिम्मपिटक, इनके अतिरिक्त अट्ट्टकहा, जातक कथा, इतिहास ग्रंथ। 

1 Comments

Previous Post Next Post