भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत कौन कौन थे?

भक्ति आंदोलन के प्रचारक आध्यात्मिक संत थे जिनके विचार कई प्रकार से समान थे। उनमें से अधिकांश ने मूर्तिपूजा का विरोध किया। वे केवल एक ईश्वर को मानते थे परंतु एक ही ईश्वर को राम, कृष्ण, शिव, अल्लाह आदि के कई नामों से पुकारते थे। 

भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत

भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत कौन कौन थे? भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों के बारे में बताइए, भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों का विस्तार से चर्चा करें, इन सभी का वर्णन नीचे दिया जा रहा है -
  1. रामानुज, 
  2. निम्बार्क, 
  3. माधवाचार्य, 
  4. कबीर, 
  5. नानक, 
  6. मीराबाई,
  7. वल्लभाचार्य, 
  8. चैतन्य, 
  9. नामदेव, 
  10. तुकाराम, 
  11. सूरदास, 
  12. तुलसीदास 

1. रामानुज

भक्ति आंदोलन के प्रथम प्रचारक रामानुज थे। उन्होंने कांची या कांचीवरम् में शिक्षा पायी थी। वे यमुनाचार्य का स्थान पाने के लिये श्रृंगेरी गए थे। रामानुज का विश्वास था कि मुक्ति प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन परमात्मा की भक्ति ही है। रामानुज के विचार उत्तर और दक्षिण दोनों में ही जनप्रिय हो उठे और इस प्रकार उन्होंने लोक कल्याण के एक शक्तिशाली आंदोलन की नीव रखी।

2. निम्बार्क

निम्बार्क रामानुज के समकालीन थे उन्होंने ऐसा माना कि भक्ति कृपा स्वरूप प्राप्त की जा सकती है वे कृष्ण और राधा के उपासक थे और भेदाभेद के दार्शनिक सिद्धांत के प्रतिपादक थे। उन्होंने 37 ग्रंथों की रचना भी की। उनका मत था कि मानव जीवन का प्रमुख उद्देश्य हरिदर्शन करना है, जिससे उसे मोक्ष तथा परमांनद की प्राप्ति होगी। इस प्रकार तेरहवी सदी के अंत तक उत्तरी  और दक्षिणी भारत के चिंतनशील हिंदुओं की विचारधारा पर माधवाचार्य के दार्शनिक सिद्धांतो का बड़ा प्रभाव पड़ा था।

3. रामानंद

उन्होंने प्रेम और भक्ति के सिद्धांतो पर आधारित एक नया वैष्णव सम्प्रदाय चलाया था। उन्होंने कृष्ण और राधा के स्थान पर राम और सीता की भक्ति का आरंभ किया। उनका मूल उद्देश्य धर्म तथा भक्ति के माध्यम से समाज सुधार करना था। उनके आराध्यदेव राम भारतीय समाज की सभी जातियों के प्रिय थे। उन्होंने जाति भेद की उपेक्षा की थी। रामानंद ने समानता पर बल दिया। रामानंद प्रथम वैष्णव धर्म गुरु थे जिन्होंने हिन्दी के माध्यम से उपदेश दिये। उनके पहले के गुरुओं ने संस्कृत भाषा का प्रयोग किया। उन्होंने भक्ति आंदोलन को लोकवादी रूप प्रदान किया। 

4. कबीर

कबीर रामानन्द के महान् शिष्यों में से थे। रामानंद के बाद कबीर भक्ति सम्प्रदाय के दूसरे महत्वपूर्ण संत थे। कबीर को किसी धर्म विशेष के प्रति मोह नहीं था। उन्होंने सभी धर्मो के बीच समन्वय करने का प्रयास किया। एक ओर वे पण्डितों को खरी-खोटी सुनाते है, तो दूसरी ओर मुल्लाओं की कटू आलोचना करते हैं। एक ओर मंदिर तथा तीर्थ यात्रा आदि को सारहीन बताते हैं तो दूसरी ओर मस्जिद, हज, नमाज की निरर्थकता सिद्ध करते हैं - 

पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार। 
ताते यह चाकी भली, पीस खाय संसार।। 

कबीर ने समझाया कि हिंदू तथा मुसलमान धर्म अलग-अलग नहीं है। उन्होंने वेद तथा कुरान दोनों के महत्व को स्वीकार किया। उन्होंने राम, रहीम, भगवान तथा अल्लाह के नाम पर झगडा़ करना व्यर्थ तथा मूर्खतापूर्ण बताया। उन्होंने अपने बीजक में बताया कि हिंदु और मुसलमान दोनों की एक ही राह है। 

कबीर मानवतावादी विचारधारा के प्रति आस्थावान थे। कबीर ने समाज के उद्धार के लिए समन्वय का मार्ग अपनाया। कबीर ने युग-युग से प्रताडि़त, पीडि़त समाज के निम्न वर्ग को अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा ऊपर उठाया तथा उनमें आत्मसम्मान जगाया।

5. नानक

गुरू नानक भी भक्ति आंदोलन के प्रमुख प्रचारक थे। कबीर की तरह नानक भी वेदों ओर कुरान को नहीं मानते थे। वे भी जाति-पाति, ब्राह्मणों और मौलवियों की प्रमुखता, रस्म रिवाज, धर्म आडम्बरों, उपवासो और तीर्थ यात्राओं के विरूद्ध थे। उन्होंने मूसलमानों और हिंदुओं की सभी जातियों के लोगों को अपना शिष्य बनाया था। वे एक निराकार ब्रह्म में आस्था रखते थे उनका अधिकतर समय साधु-संतों के साथ चर्चा और ईश्वर की भक्ति में व्यतीत होता था। कबीर की तरह उनका भी विचार था कि गृहस्थ जीवन और घरेलू काम करना आध्यात्मिक उन्नति के बीच बाधक नहीं है। उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था। उन्होंने बहुत से प्रेरक पदों और गीतों की रचना की। इन्हें एक ग्रन्थ के रूप में संकलित कर लिया गया और बाद में उन्हें आदि ग्रन््रन्थ के रूप में प्रकाशित कर दिया गया।

नानक के उपदेशों में नैतिकता, नम्रता, सत्य, दान और दया को प्रमुख स्थान प्राप्त था। अतः उन्होंने सामंजस्य का मार्ग दिखाया। 

गुरूनानक की जनम साखी में लिखा है कि जब गुरूनानक को आत्मज्ञान हुआ तो वे यह बोले न कोई हिंदू न कोई मुसलमान यही शब्द गुरुनानक के सिद्धांतों का सार है। वह हिंदुओं और मुसलमानों के मतभेदों के उपर रहना चाहते थे। उन्होंने कबीर का मार्ग अपनाया। नानक का उद्देश्य एक ही ईश्वर की मान्यता के आधार पर हिंदू धर्म में सुधार करना और हिंदुओं एंव मुसलमानों के बीच अच्छा संबंध स्थापित करना था।

 गुरूनानक ने अच्छाई की प्रशंसा की और बुराई की निंदा। नानक ने मध्यमार्ग का प्रचार किया न ही संन्यास ओर नही भोग विलास का जीवन। वे चाहते थे कि लोग सामान्य जीवन व्यतीत करे।

मध्ययुगीन परिस्थितियों का गंभीर अध्ययन करके समस्याओं के संतोषजनक समाधान के लिए उन्होंने सिख धर्म की स्थापना की।

6. मीराबाई

भक्तिकालीन संतों में मीराबाई को प्रमुख स्थान प्राप्त है। बचपन से ही वे कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित थी। बाल्यावस्था से ही इन्होंने पद रचना आरंभ कर दी थी। उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा, क्योंकि तरूणावस्था में ही उनके पति का निधन हो गया था। विधवा हो जाने पर इनके कष्ट और अधिक बढ़ गये। अपने देवर द्वारा तिरस्कृत एवं अपमानित होने पर इन्होंने अपने पिता के यहां शरण ली। अंत में भौतिक जीवन का परित्याग कर संन्यासिनी होने का निश्चय कर लिया। ये रैदास की शिष्या थी। मीरा का यह संदेश था कि किसी को जन्म के कारण, गरीबी के कारण अथवा आयु के कारण परमात्मा से परे नहीं रखा जा सकता। उनको मिलने का एकमात्र साधन भक्ति है। परमात्मा ज्ञान अथवा योग से नहीं मिलता परंतु भक्ति प्रेम से मिलता है।

7. वल्लभाचार्य

वल्लभाचार्य वैष्णव सम्प्रदाय की कृष्ण भक्ति शाखा के एक अन्य महान संत थे। उनका विचार था कि मनुष्य की आत्मा को केवल भक्ति द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। मनुष्य को अपने आपको ईश्वर सेवा में अर्पित कर देना चाहिए। तभी उसे संसारिक बंधनों से मुक्ति मिल सकती है। वल्लभाचार्य की रुचि भ्रमण में थी। इसे वह शिक्षा का अंग मानते थे। 

वल्लभाचार्य ने कृष्ण की भक्ति पर प्रचार किया। वल्लभाचार्य ने तत्कालीन सामाजिक आवश्यकताओं का अध्ययन करके हिंदू धर्म के आधार पर उन्होंने समाज सुधार करने का निश्चय किया। धर्म की आधारशिला पर तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुसार वे समाज में परिवर्तन भी करना चाहते थे। वल्लभाचार्य आध्यात्मिक समाज सुधारक थे। ईश्वर की प्राप्ति के लिये आत्मत्याग और तपस्या की आवश्यकता नहीं अपितु सांसारिक सुखों का भोग करना चाहिए। यही कारण है कि वल्लभाचार्य के दर्शन को पूर्व का आनन्द भोगवाद कहा जाता है। वल्लभाचार्य के दार्शनिक विचार अपने प्रिय परमात्मा के एक स्वरूप पर केंद्रित थे। 

8. चैतन्य

चैतन्य भक्ति आंदोलन के संत थे। चैतन्य महाप्रभु भक्ति आंदोलन के सबसे बड़े संत थे। चैतन्य को निर्धनों व कमजोरों से बहुत प्रेम था। जाति प्रथा के विरूद्ध थे और मानवजाति के सर्वव्यापी भ्रातृभाव में विश्वास रखते थे। उन्होंने देश का भ्रमण कर वैष्णव धर्म का प्रचार किया। वे शास्त्रों के बड़े विद्वान् थे। उनहोंने जातीय बंधन और अस्पृश्यता का घोर विरोध किया। चैतन्य महाप्रभु ने धार्मिक गुरुओं को भी उपदेश दिया। कृष्ण की प्रेममयी भक्ति और रस कीर्तन का उपदेश दिया। प्रेम ही उनके जीवन का आधार था। उनका विश्वास था कि जीवात्मा का सबसे उच्च लक्ष्य कृष्ण भक्ति में लीन रहना है। चैतन्य मानव कल्याण के लिये निरन्तर कृष्ण से प्रार्थना करते थे। थोड़े समय में इन्होंने व्याकरण, स्मृति, न्याय दर्शन में विशेष योग्यता प्राप्त कर ली।चैतन्य महाप्रभु ने मानव सेवा के माध्यम से उन्होंने प्रेम सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

8. नामदेव

महाराष्ट्र के सबसे महान् संत नामदेव थे। अपने युग के सुधारकों की तरह वे भी एक ईश्वर में आस्था रखते थे और मूर्तिपूजा तथा पुरोहितों के नियंत्रण के विरूद्ध नामदेव मानते थे कि भगवाद् प्रेम से ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। उनका मानना था कि परमात्मा ही सब कुछ है। उनका विश्वास एकान्तनिष्ठा में था। जनसाधारण पर नामदेव के उपदेशों का बड़ा प्रभाव पड़ा। वारकरी सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध विचारधारा की गौरवशाली परम्परा की स्थापना में नामदेव की प्रमुख भूमिका रही थी। नामदेव के कुछ भक्तिपरक गीत मराठी भाषा अंभगों के रूप में प्रसिद्ध है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के विकास और लोकप्रियता में नामदेव का महत्वपूर्ण योगदान रहा। तुकाराम ने हिन्दूधर्म और इस्लाम को नजदीक लाने का प्रयास किया।

9. सूरदास

सूरदास कवि भी थे और सन्त भी। उन्होंने ईश्वर के प्रति भक्ति का प्रचार किया। सूरदास की तीन कृतियाँ बहुत ही जनप्रिय हैं। ये हैं - सूर सारावली, साहित्य लहरी और सूर सागर। उन्होंने ब्रजभाषा में ही रचना की है और उनके ग्रन्थों में जो सन्देश निहित है। सूरदास के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनका विषय अलौकिक होते हुए भी इतना सामान्य है कि साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी उससे सहज आनन्द पा सकता है।

10. तुलसीदास

सरयू नदी के किनारे रामदासजी ने ही रामकथा का ज्ञान तुलसीदास को कराया था। तुलसीदास ने रामचरितमानस में स्वीकार किया कि यहीं से उन्होंने अपने इष्ट राम की कथा का श्रवण किया। वैवाहिक जीवन से क्षुब्ध होकर उन्होंने गृहस्थाश्रम का परित्याग कर दिया। वे हिन्दू सामाजिक जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन न करके यथास्थिति के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने प्राचीन हिन्दू सामाजिक व्यवस्था की रक्षा, शूद्रों को अधिकार देकर इस्लाम धर्म स्वीकार करने से रोकना तथा भक्ति के माध्यम से मोक्ष का सरल साधन आदि की रक्षा का साहस किया था।

सन्दर्भ -
  1. डाॅ. बी.के- देहली सल्तनत, मध्यकालीन भारत, 1952
  2. डाॅ. बी.के- मध्यकालीन भारतीय संस्कृति,
  3. आर.सी. अग्रवाल- मध्यकालीन भारत का इतिहास, भोपाल

Post a Comment

Previous Post Next Post