1861 का अधिनियम पारित किये जाने के कारण

ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित उद्देश्य के अनुसार संसद ने भारत में शासन व्यवस्था के संचालन हेतु दिशा निर्देश देने के लिये सन् 1861 ईसवी में यह अधिनियम पारित किया था। 

1861 का अधिनियम पारित किये जाने के कारण 

  1. 1858 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत केवल इंग्लैन्ड से होने वाले निर्देशन व आदेशों में ही परिवर्तन हुआ। इसका भारतीय प्रशासनिक प्रणाली पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, अतः भारतीय असंतुष्ट थे तथा सुधार करना चाहते थे। 
  2. कंपनी का शासन ब्रिटिश क्राउन को हस्तान्तरित हो जाने के पश्चात ब्रिटिश सरकार को यह स्पष्ट हो गया कि भारतीयों को विधान परिषद में शामिल किया जाना नितांत आवश्यक था। 
  3. प्रांतीय सरकारों के बढ़ते हुए रोष एवं असंतोष को दूर करने के लिये नये अधिनियम की आवश्यकता थी।
  4. विधायी शक्तियों का विकेंन्द्रीकरण किया जाना आवश्यक था जिससे कि प्रेसीडेंसी सरकार कानून बना सके। 
उपर्युक्त परिस्थितियों मे लाॅर्ड केनिंग द्वारा प्रस्तावित योजनाओं के अनुरुप तत्कालीन भारत सचिव चाल्र्स वुड ने 6 जून, 1861 ई. में ब्रिटेन की संसद के समक्ष एक विधेयक प्रस्तुत किया। दोनों सदनांे के अनुमोदन के पश्चात 1 अगस्त, 1861 ई. में विधेयक को सम्राट ने स्वीकृति प्रदान की। यह अधिनियम भारतीय परिषद अधिनियम, 1861 के नाम से जाना गया।

भारतीय परिषद अधिनियम 1861 के प्रावधान

इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नांकित थे-

(1) गवर्नर जनरल एवं वायसराय की शक्तियों में वृद्धि करते हुये उसको विशेष परिस्थितियों में अध्यादेश पारित करने का अधिकार प्रदान किया गया। यह अध्यादेश बिना अनुमोदन के छह सप्ताह तक प्रभावशील रह सकता था। गवर्नर जनरल को नये प्रान्तों का गठन करने और वहाँ पर लेफ्टिनेंट की नियुक्ति करने का अधिकार दिया गया। पंजाब तथा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त में उसको विशेषाधिकार प्रदान किये गये। वायसराय को कार्यकारिणी के कार्यों के सुचारू संचालन के लिये नियम बनाने की शक्ति दी गई।

(2) गवर्नर जनरल की परिषद् में सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 6 से 12 कर दी गई। इनमें से न्यूनतम आधे सदस्य गैर सरकारी होना आवश्यक रखा गया। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्यों की संख्या 4 से बढ़ाकर 5 कर दी गई। पांचवाँ सदस्य वित्त मंत्री होगा। इसी तरहप्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं के सदस्यों की संख्या भी बढ़ाई गई। प्रान्तों को विधि निर्माण का अधिकार पुनः प्रदान किया गया।

भारतीय परिषद अधिनियम, 1861 की मुख्य धाराएँ 

1861 ई. के अधिनियम की मुख्य धाराएँ थी- 
  1. वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्यों की संख्या चार से बढ़ाकर पाँच कर दी गयी। पाँचवा सदस्य विधि विशेषज्ञ होना अनिवार्य था।
  2. कानून बनाने के लिये लेजिस्लेटिव कौंसिल में भी सदस्यों की संख्या बढ़ायी गयी। इस कौंसिल में अब कम से कम 6 व अधिक से अधिक 12 सदस्य बढ़ाये जा सकते थे। इन अतिरिक्त सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष था तथा ये सदस्य वायसराय द्वारा नियुक्त किये जाते थे जिनमें भारतीय सदस्य भी हो सकते थे। 
  3. भारत मंत्री कमाण्डर इन चीफ को इस लेजिस्लेटिव कौंसिल का विशेष सदस्य नियुक्त कर सकते थे।
  4. प्रत्येक प्रांत के गवर्नर को यह अधिकार प्रदान किया गया कि वह अपनी परिषद में कम से कम चार व अधिक से अधिक आठ सदस्यों को नियुक्त कर सकता है परिषद मुख्यतः प्रांत के लिए नियम बना सकती थी, किंतु अंतिम स्वीकृति वायसराय की होती थी। 
  5. वायसराय किसी भी प्रांत का विभाजन कर सकता था। उसकी सीमाएँ घटा एवं बढ़ा सकता था। 
  6. लेजिस्लेटिव कौंसिल का कार्य केवल कानून बनाना था, वह कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी। गवर्नर जनरल कौंसिल के किसी भी प्रस्ताव को अस्वीकार कर सकता था तथा उसे अध्यादेश जारी करने का अधिकार था।

भारतीय परिषद अधिनियम 1861 की समीक्षा

कुछ कारणों से 1861 के भारतीय परिषद् अधिनियम का विशेष महत्व है। इसको भारत में संवैधानिक विकास के प्रारंभिक दौर का महत्वपूर्ण चरण माना जाता है। इसमें पहली बार गैर सरकारी सदस्यों की परिषद् में नियुक्ति की व्यवस्था की गई। इससे भारतीयों को भी परिषद् में प्रविष्ट होकर विधि निर्माण में सहभागी बनने का अवसर प्राप्त हुआ। यही कारण है कि इस अधिनियम को भारत में उदार निरंकुशता की नीति का प्रवर्तक माना जाता है। गवर्नर जनरल को अध्यादेश जारी करने की शक्ति दिये जाने से विषम परिस्थितियों में त्वरित निदान की व्यवस्था हो सकी। प्रान्तों को विधि निर्माण की शक्ति दिये जाने से विकेन्द्रीकरण की प्रथा प्रारम्भ हुई।

इसमें अनेक दोष भी थे, जिससे यह भारतीयों के लिये अधिक लाभदायक सिद्ध नहीं हो सका। गैर सरकारी सदस्यों को परिषद् में सम्मिलित किये जाने से भारतीयों का विशेष हित नहीं सध पाया, क्योंकि सरकार उन्हीं भारतीयों को परिषद् में स्थान देती थी, जो उसके विश्वासपात्र होते थे। अधिकांश गैर सरकारी सदस्य अंग्रेजों के पिट्ठू बने रहे। गवर्नर जनरल की शक्तियों में अत्यधिक वृद्धि हो जाने से वह मनमाने निर्णय लेने की स्थिति में आ गया। 

परिषद् शक्तिहीन थी, उसकी सलाह मानने के लिये गवर्नर जनरल बाध्य नहीं था। अध्यादेश जारी करने के अधिकार के रूप में उसको ऐसा शस्त्र प्राप्त हो गया, जिसका उपयोग उसने ब्रिटिश साम्राज्य के हितों के संवर्धन के लिये बहुत ही अलोकतांत्रिक तरीके से किया। स्पष्ट है कि अधिनियम में धनात्मक पहलुओं की अपेक्षा ऋणात्मक पहलुओं का आधिक्य था। इससे भारतीयों की अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं हो सकीं और सुधारों की माँग पूर्ववत् बनी रही।

भारतीय परिषद अधिनियम, 1861 का महत्व

1861 का भारतीय कौंसिल अधिनियम कुछ दृष्टिकोणों से अत्यंत महत्वपूर्ण था। इस अधिनियम की सर्वप्रमुख विशेषता यह थी कि इसने भारतीयों को भी संवैधानिक कार्यों में भागीदार बनाया। इसके अतिरिक्त, विभाग प्रणाली के लागू किये जाने से इसने प्रशासनिक क्षमता को भी बढ़ाया। इस अधिनियम के द्वारा ही प्रांतांे को भी अपने प्रांत से संबंधित कानून बनाने का अधिकार दिया गया। इन्हीं कारणांेवश अनेक विद्वानों ने इस अधिनियम की प्रशंसा की है। 

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