भारतीय परिषद अधिनियम 1892 क्या था ?

सन् 1885 ई. में एलन ओक्टेवियन ह्यूम के द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई। यह संस्था क्रमशः भारतीयों के कल्याण एवं उनके अधिकारों की माँग का दृढ़ मंच बनती चली गई। सन् 1905 ई तक कांग्रेस में उदारवादी विचारधारा वाले भारतीयों का बाहुल्य बना रहा। ये ब्रिटिश प्रभुसत्ता के अधीन रहते हुये कतिपय अधिकारों का उपभोग करना चाहते थे और बड़ी विनम्रतापूर्वक प्रस्तावों एवं आवेदनों के माध्यम से अपनी मांगें प्रस्तुत करते थे। ब्रिटिश संसद द्वारा पारित 1892 का भारतीय परिषद् अधिनियम कांग्रेस के उदारवादी नेताओं की माँगों का परिणाम था।

भारतीय परिषद अधिनियम 1892  के प्रावधान

इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नांकित थे-

(अ) केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्यों की संख्या न्यूनतम 10 एवं अधिकतम 16 तय की गई। इनमें से कम से कम दस गैर सरकारी सदस्य होना अनिवार्य रखा गया। सदस्यों की नियुक्ति प्रभावशाली संस्थाओं एवं प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं के गैर सरकारी सदस्यों की सलाह से किये जाने की व्यवस्था की गई।

(ब) व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों को वार्षिक बजट के आर्थिक प्रस्तावों पर बहस करने का अधिकार दिया गया, किन्तु वे मतदान में भाग नहीं ले सकते थे। ये सदस्य छह दिन की पूर्व सूचना देकर गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्यों से सार्वजनिक महत्व के प्रष्न कर सकते थे।

(स) प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं में भी कुल सदस्यों एवं गैर सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई।

भारतीय परिषद अधिनियम 1892  की समीक्षा

इस अधिनियम के कारण व्यवस्थापिका सभाओं में भारतीयों की संख्या और उनके अधिकारों में वृद्धि हुई। इसके प्रावधान 1861 के भारतीय परिषद् अधिनियम से कुछ कदम आगे थे, इसीलिये अनेक इतिहासकार मानते हैं कि भारत में वस्तुतः उत्तरदायी शासन की स्थापना सन् 1861 ई. में नहीं, अपितु सन् 1892 ई. में हुई थी। इस एक्ट ने भारतीय शासन पद्धति में संसदात्मक प्रणाली का बीजारोपण किया। किन्तु अधिनियम द्वारा उपबन्धित सुधार भारतीयों को संतुष्ट नहीं कर सके। सदस्यों को आर्थिक प्रस्तावों पर मतदान का अधिकार नहीं दिये जाने से धन के दुरूपयोग की आशंका यथावत् बनी रही। व्यवस्थापिकाओं में सरकार का समर्थन करने वाले सदस्यों का ही बहुमत बना रहा।

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