गयासुद्दीन बलबन कौन था ? बलबन के बाद दिल्ली की गद्दी पर कौन बैठा?

गयासुद्दीन बलबन इलबरी तुर्क था। बचपन में मंगोलों ने पकड़कर इसे गुलाम के रूप में बेच दिया। अपनी योग्यता के बल पर बलबन उन्नति करता गया तथा इल्तुतमिश के ‘‘चालीसा’’ का सदस्य बनने में सफल हो गया। रनासिरूद्दीन की मृत्यु के बाद बलबन दिल्ली की गद्दी पर बैठा।  जिस समय बलबन गद्दी पर बैठा उसकी स्थिति सुदृढ़ नहीं थी । दिल्ली के मध्यकालीन सुल्तानों में बलबन का स्थान बहुत उंचा है। 1287 ई. में बलबन की मृत्यु हुई । बलबन की मृत्यु के बाद सरदारों ने उसके पौत्र कैकुवाद को गद्दी पर बैठाया।

बलबन के गद्दी पर बैठने के समय हिन्दुओं ने विद्रोह करने शुरू किये थे। वे निरन्तर स्वतंत्र होने के प्रयास में लगे हुये थे। अवध तथा दोआब में निरन्तर विद्रोह होते रहे। तुर्कों के ठिकानों पर धावे करते रहते थे। दिल्ली के आसपास उन्होंने लूटमार मचा रखी थी। सर्वप्रथम बलबन ने विद्रोही मेवातियों के विरूद्ध प्रशिक्षित सेना भेजकर उनका बड़ी कठोरता पूर्वक दमन किया। उनके कत्लेआम करवाये गये, जंगल कटवा दिये गये। स्त्रियों एवं बच्चों को दास बनाकर बेच दिया गया। उनका दमन करने के लिये एक सेना वहीं रखवा दी गई। इस प्रकार रक्तपात का पालन कर बलबन ने मेवातियों के विद्रोह का दमन किया। 

सन् 1279 ई. में बंगाल में तुगरिल बगे ने विद्रोह खड़ा कर दिया और अपने नाम के सिक्के जारी कर दिये। बलबन ने उसका दमन करने के किये लगातार तीन बार सेनाये भजे ी, जिसमें असफलता मिली अंक में क्रोधित होकर स्वयं बलबन ने दो लाख सेना लेकर बंगाल पहुंचा, जिसे देखकर डरकर तुगलक भाग निकला, पीछा करते हुए ढांका के पास उसका वध कर दिया गया। बाकी पकड़ े गये उसके साथियों को बलबन ने बाजार में फांसी पर लटकाया, देखने वालों ने ऐसा भंयकर दृश्य कभी नहीं देखा था। इस दृश्य को देखकर लोग अत्यधिक आतंकित हो गये। 

बलबन शिष्टाचार पालन के प्रति बड़ा गंभीर था। वह हमेशा शाही वस्त्रों में रहता था। वह दरबार में सदा गंभीर बना रहता था। पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर भी उसने अपनी मनोदशा में कोई परिवर्तन नहीं होने दिया। कभी किसी अमीर से उसने घनिष्ठता नहीं बनायी। वह किसी से हसं ी-मजाक नहीं करता था और न ही दरबार मे ं किसी को एसे े व्यवहार की अनुमति थी। 

बलबन ने अपनी निरंकुशता कायम रखने के लिये सेना के संगठन की ओर ध्यान दिया। बलबन से पहले तुर्की सैनिकों को सेवा के बदले जागीर देने की प्रथा प्रचलित था। अधिकांश भूमि बूढ़े सैनिकों, विधवाओं तथा नाबालिगों के अधिकार में थी। बलबन ने इन लोगों के जीवित रहते तक इस भूमि पर उनका अधिकार मान्य कर लिया, मृत्यु उपरांत ये भूमि राज्य के अधिनस्थ मानी गई।

बलबन ने सैनिको  की संख्या में वृद्धि की आरै उनके वते न बढ़ा दिये। बलबन ने घोड़ों को दागने की प्रथा का प्रारंभ किया। इस व्यवस्था से सेना पूर्ण अनुशासित तथा सुव्यवस्थित हो गयी।

बलबन की शासन व्यवस्था 

बलबन की शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने का श्रेय गुप्तचर व्यवस्था को था। उसने राज्य के प्रत्येक विभाग में गुप्तचर रखे। प्रत्येक प्रांत तथा जिले में गुप्त संवाददाता नियुक्त किये। उनके द्वारा प्रतिदिन राज्य के महत्वपूर्ण समाचार सुल्तान के पास पहुंचते थे, जा े गुप्तचर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता था। उस े कठारे दण्ड दिया जाता था। गुप्तचरो  को नकद वेतन मिलता था। वे सीधे सुल्तान के नियंत्रण में होते थे।

बलबन की न्याय व्यवस्था

बलबन की न्याय व्यवस्था कठोर तथा पक्षपात रहित थी। अपराधियों को वह बर्बरतापूर्वक दण्ड देता था। दण्ड देने में अवस्था, पद तथा स्त्री-पुरुष का भेद नहीं करता था। अपने प्रभावशाली अमीर बकबक (बदायूंका) को जिसने नाकैर की काडे ़ो ं से मारकर हत्या की थी। उसकी विधवा को एसे े ही काडे ़ े मारकर हत्या करने के लिये सौंप दिया आरै कहा - ‘‘वह हत्यारा मेरा गुलाम था, अब तुम्हारा है। जैसे इसने तुम्हारे पति की हत्या की तुम भी इसको मार डालो।’’ सुल्तान प्रमुख अपराधो से संबंधित मामलों का न्याय स्वयं करता था।

प्रशासक के रूप में बलबन सफल रहा। उसकी शासन व्यवस्था का आधार रक्त तथा लौह नीति थी। उसने अपने विरोधियों का नृशंसतापूर्वक दमन करके चारों ओर आतंक पैदा कर दिया, किन्तु शांति स्थापित करने लिये इतनी कठोरता आवश्यक थी। बलबन ने अपने साम्राज्य का विस्तार नहीं किया। इसका अर्थ यह नहीं था कि उसमें सैनिक निपुणता या योग्यता नहीं थी। उसने अपने सभी विरोधियों एवं ं विद्रोहियों ं का सेना के बल पर ही दमन किया और दिल्ली को  मंगोलों के आक्रमण से सुरक्षित रखा।

गयासुद्दीन बलबन की मृत्यु

1287 ई. में गयासुद्दीन बलबन की मृत्यु हुई । उसका उत्राधिकारी शाहजाद मुहम्मद पहले ही मंगोल आक्रमण में मारा जा चुका था । इसलिए बलबन की मृत्यु के बाद सरदारों ने उसके पौत्र कैकुवाद को गद्दी पर बैठाया। वह अपने से पूर्व हुए अनेक सुल्तानों की भांति निर्बल और विलासप्रिय सिद्ध हुआ । एक बार फिर दरबार में दलबन्दी हुई । जिस समय कैकुवाद को पक्षाघात् हुआ सरदारों ने उसके अल्पव्यस्क पुत्र कैमूर को गद्दी पर बैठाया । गद्दी पर तुर्को का अधिकार बनाए रखने के लिए ही यह किया गया था ।

तथापि बलबन का वंश अपने अंत की ओर था । गैर-तुर्क और भारतीय मुसलमान सदा से ही तुर्को के एकाधिकार के विरोधी रहे थे । जमालुद्दीन खलजी के नेतृत्व में खलजी सरदारों ने 1290 ई. में कैमूर को गद्दी से उतार कर अपना अधिकार बना लिया और इस प्रकार बलजी वंश की नीव रखी गई ।

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