जीनोम या
जीन एडिटिंग (Genome editing) प्रौद्योगिकियों का वह समूह है जो वैज्ञानिकों को किसी
जीव के डीएनए में परिवर्तन के लिए सक्षम बनाता है। ये प्रौद्योगिकियां
किसी जीनोम में किसी विशेष जगह पर आनुवंशिक सामग्रियों को जोड़ने,
हटाने या परिवर्तित करने की अनुमति प्रदान करती हैं। यह एडिटिंग
एंजाइम आधारित हो सकती है जो प्राकृतिक रूप से मौजूद एंजाइम
अथवा इंजीनियरित एंजाइम द्वारा उत्प्रेरित होती है, या फिर किसी एंजाइम
के बगैर भी हो सकती है। इस प्रौद्योगिकी के माध्यम से डीएनए में जो
परिवर्तन किए जाते हैं उससे शारीरिक विशेषताएं जैसे कि आंखों का रंग
बदल जाता है बीमारी के खतरों को कम कर दिया जाता है। एडिटिंग
के लिए वैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल किया जाता
है। ये प्रौद्योगिकियां कैंची की तरह काम करती हैं जिससे किसी विशेष
जगह पर डीएनए को काटा जा सके।
यह एक त्वरित, सस्ती, अध्कि सटीक
तथा पहले से मौजूद प्रौद्योगिकियों की तुलना में अध्कि कुशल जीनोम
एडिटिंग तकनीक है। कई वैज्ञानिक जो जीनोम एडिटिंग करते हैं वे,
‘क्रिस्पर-कास9’ का उपयोग करते हैं। ‘क्रिस्पर-कास9’, बैक्टीरिया में
प्राकृतिक तौर पर उत्पन्न होने वाली जीनोम एडिटिंग प्रणाली पर आधरित
है। यह उस स्वाभाविक प्रतिरक्षा प्रणाली का हिस्सा है जो बैक्टीरिया
जन्य रोगाणुओं के विरुद्ध अनेक बैक्टीरिया में देखने को मिलती है। यह
प्रणाली उसी वायरस द्वारा बाद में होने वाले आक्रमण को रोकती है,
और इस प्रकार अनुकूलित प्रतिरक्षा द्वारा बैक्टीरिया का बचाव करती है।
Genome editing का विकास वर्ष 2009 में किया गया था। यह ‘क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पेस्ड शाॅर्ट पैलिनड्रोमिक रिपिट्स’ (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats) का संक्षिप्त रूप है।
जीनोम एडिटिंग का एक उद्देश्य
जीनोम एडिटिंग का एक उद्देश्य मानव को प्रभावित करने वाले रोगों के बारे में पता लगाना होता है। इसके लिए वैज्ञानिक प्रयोगशाला में चूहा या जेब्रापिफश जैसे जानवरों की जीनोम एडिटिंग करते हैं। ऐसा इसलिए कि इन जानवरों के कई जीन, मानव की तरह ही हैं। उदाहरण के तौर पर चूहा और मनुष्यों में 85 प्रतिशत जीन समान हैं। चूहों के एकल जीन या एक से अधिक जीन में परिवर्तन कर वैज्ञानिक यह जानने का प्रयास करते हैं कि इससे चूहा के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है। इस तरह वे इससे जानने में सफल हो सकते हैं कि उसी जीन को मानव में परिवर्तित करने के पश्चात स्वास्थ्य से जुड़े क्या-क्या बदलाव आ सकते हैं।जीन एडिटिंग: नैतिक चिंताएं
अभी जीन एडिटिंग तकनीक आरंभिक
अवस्था में है। यदि जीन एडिटिंग के दौरान गलत जगह को काट दिया
जाए तो इसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, इसका सही जवाब अभी भी
वैज्ञानिकों के पास नहीं है। नैतिक चिंताएं अपनी जगह हैं। मसलन् भ्रूण
की अनुमति लिए बिना क्या उसमें परिवर्तन जायज है? क्या माता-पिता
की अनुमति काफी है? यदि यह उपचार विधि महंगी होती है तो केवल समृद्ध लोगों तक ही इसकी पहुंच होगी, यह अपने आप में एक अलग
असमानता को जन्म देगी। स्वास्थ्य के लिए जो जरूरी नहीं है, उसकी
भी जीन एडिटिंग को क्या जायज ठहराया जा सकता है जैसे कि लंबाई
बढ़ाने के लिए, एथलिटिक क्षमता प्राप्त के लिए?
भारत में जीन एडिटिंग का विकास
जीन एडिटिंग क्षेत्रा में भारत में भी शोध व विकास
कार्य चल रहा है। अक्टूबर 2019 में समाचारपत्रों में छपी थी कि
सीएसआईआर के अधीन दिल्ली स्थित जीनोमिक्स एंड इंटिग्रेटिव
बायोलाॅजी के शोध्कत्र्ताओं ने क्रिस्पर-कास9 का नया उप-प्रौद्योगिकी
का विकास किया है। शोधकर्ताओं के मुताबिक इसका इस्तेमाल सिकल
सेल एनिमिया जो कि एक आनुवंशिक रक्त
विकार है, को सही करने में किया जा सकता है। जीन एडिटिंग के दौरान
आमतौर पर उपयोग किए जाने वाला कास9 एंजाइम है स्ट्रेप्टोकोकस
पायोजींस कास9। परंतु संपूर्ण
जीनोम में कई स्थानों पर गलत जगह लक्षित करने में भी इसकी सीमाएं
सामने आईं हैं। इसी समस्या से निपटने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने नोविसिडिया नामक
बैक्टीरिया में प्राकृतिक तौर पर प्राप्त कास9 का इस्तेमाल किया। भारतीय
शोधकर्ताओं को पूर्व में उल्लेख की गई सीमाओं को दूरे करने में सफलता
भी प्राप्त हुई।
(Source: National Human Genome Research Institute, US Government and India Science Wire)
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जीनोम या जीन एडिटिंग