घनानंद का जीवन परिचय, प्रमुख रचनाएं, भावपक्ष, कला पक्ष

घनानंद रीतिकाल की रीतिमुक्त स्वच्छन्द काव्यधारा के सुप्रसिद्ध कवि है। आचार्य शुक्ल के मतानुसार इनका जन्म सवंत् 1746 में दिल्ली में हुआ था। घनानंद की मृत्यु के बारे में विद्वानों के दो प्रकार के मत है।

प्रथम मत के अनुसार नादिरशाह के आक्रमण के समय मथुरा में सैनिकों द्वारा प्रथम प्रश्नपत्र घनानंद की मृत्यु हुई। किन्तु इस मत का खण्डन इस आधार पर हो जाता है कि नादिरशाह द्वारा किया गया कत्ले आम दिल्ली में हुआ था न कि मथुरा में। दूसरे इस आक्रमण और घनानंद की मृत्यु के समय में ही अंतर है। 

द्वितीय मत ही अब मान्य है, वह यह की संवत् 1817 (सन् 1660 ई.) में अब्दुलशाह दुर्रानी ने जब दूसरी बार मथुरा में कत्लेआम किया था इसी में घनानंद की मृत्यु हुई।

घनानंद की प्रमुख रचनाएं

काशी नागरी प्रचारिणी महासभा ने 2000 सम्वत् तक की खोज के आधार पर निम्नलिखित कृतियों को उनका माना है- 
  1. घन आनन्द कवित्त
  2. आनन्द घन के कवित्त 
  3. स्फुट कवित्त 
  4. आनन्द घन जू के कवित्त 
  5. सुजान हित
  6. सुजानहित प्रबन्ध 
  7. कृपाकन्द निबन्ध 
  8. वियोग बेला 
  9. इश्क लता 
  10. जमुना-जस 
  11. आनन्द घन जी की पदावली 
  12. प्रीती पावस 
  13. सुजान विनोद 
  14. कविता संग्रह 
  15. रस केलि बल्ली 
  16. वृन्दावन सत।

घनानंद का भावपक्ष

घनानंद का भावपक्ष का समयक् अनुशीलन करने के लिए उनके काव्य में भी यह देखते की चेष्टा की जाएगी कि घनानंद ने विविध वस्तुओं के वर्णन कैसे किये है, विविध भागों के निरूपण में कैसा कौशल दिखाया ही, विविध रखों की अभिव्यंजना में कैसी दक्षता प्रकट की है और विविध सौन्दर्य चित्रों को अंकित करने में अपनी जो कला-चातुरी व्यक्त की है, उसे निम्न भागों विभक्त किया गया है-

1. वस्तु वर्णन:-घनानंद ने ब्रज प्रदेश के प्रति अपनी गहन आस्था एवं असीम श्रद्धा व्यक्त की है और इसी कारण उन्होने ब्रज के गांवों, यमुना, वृन्दावन आदि का अत्यंत सजीवता से निरूपण किया है।

2. प्रकृति चित्रण:- घनानंद ने प्रकृति के अत्यंत रमणीय चित्र अंकित किये हैं। वे सच्चे प्रकृति प्रेमी थे और प्रकृति के साथ उनका साहचर्य भी अधिक रहा था। इसीलिए उन्होंने प्रकृति के अनेक सुन्दर एवं सजीव चित्र अंकित किये हैं। 

3. भाव निरूपणः- घनानंद की कविता भावों का भण्डार है, क्योंकि घनानंद ने ऐसे मार्मिक भावों का चित्रण किया है कि देखते ही बनता है और एक साधारण कवि जहां तक पहुंच नहीं सकता। धनानंद की इस भाव निरूपण पद्धति पर सर्वत्र उनके गहन प्रेम की छाप है इसी कारण उनके सभी भाव चित्र इतने मनोंरजक एवं आकर्षक बन पडे हैं कि पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय उन्हें पढ़कर एवं सुनकर आनंद के सागर में डुबकियां लगाने लगते हैं।

4. रस निरूपण:-घनानंद ने मुख्यतया संयोग श्रृंगार, वियोग श्रृंगार एवं भक्ति का निरूपण किया है। इसमें से भी घनानंद वियोग श्रृंगार के ही कवि है, वियोग के ही अद्वितीय चितेरे हैं। और इनके काव्य में वियोग श्रृंगार का ही पूर्ण परिपाक अधिक मार्मिकता एवं सजीवता के साथ हुआ है। इसीलिए वे अपनी संजीवन-मूर्ति ’सुजान’ के वियोग में रात-दिन व्यथित रहते हैं। सोने पर भी सो नहीं पाते, जागने पर भी जाग नहीं पाते, विचित्र सी पीड़ा नित्य आंखों में रह रहकर आती है, अमृत विष तुल्य प्रतित होता है। फूल शूल जैसे लगते हैं, चन्द्रमा अंधकार उगलता जान पडता है, पानी सम्पूर्ण अंगों को जलाता है, राग-रागनियां अच्छी नहीं लगती गुण दोष में बदल गये हैं, औषधियां रोग पैदा करने वाली हो गयी हैं और रस विरस जान पड़तें हं। इस तरह ’सुजान’ के मान फेर लेने से दिन भी फिर गये है। और न जाने अब कैसे दिन बीतेंगें। घनानंद ने इस व्यथा एवं पीड़ा का मार्मिक निरूपण किया है।

4. सौन्दर्य चित्रण - घनानंद ने रूप सौन्दर्य के कितने ही अत्यंत मनोहारी चित्र अंकित किये है, जिनमें अपनी प्राणप्रिया सुजान’ की विविध रूप छवियाॅ अत्यंत माधुर्य एवं गम्भीर्य के साथ विद्यमान है। घनानंद ने इन रूप-चित्रों में आंख, नाक, कान, मुख, अंग-प्रत्यंग आदि को अलग-अलग दिखाने की उतनी प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती, जितनी कि उन्होने सम्पूर्ण अंग की अतिशय रमणीयता एवं प्रभाविष्णुता को दिखाने का प्रयास किया है। 

घनानंद का कला पक्ष

किसी कवि के अभिव्यक्ति पक्ष से तात्पर्य उसकी उस वर्णन पद्धति से है, जिसमें वह अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करता है। इसके लिए वह अनेक उपकरणों का सहारा लेता है और इन उपकरणों द्वारा कलात्मक ढंग से अपनी अनुभूति को वाणी प्रदान करता है। इसलिए अभिव्यक्ति पक्ष को कला पक्ष भी कहते हैं और इसके अन्तर्गत कला के वे सभी उपकरण आते हैं, जिनके माध्यम से अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान की जाती है, अर्थात भाष, अलंकार, गुण, वृत्ति, शब्द शक्ति, छन्द आदि कला को सम्पूर्ण अवयवों का विवेचन अभिव्यक्ति पक्ष के अन्तर्गत होता है।

1. भाषा:- घनानंद ने ब्रजभाषा में अपनी सरस काव्य-धारा प्रवाहित की है। उनकी ब्रजभाषा में सर्वत्र स्वच्छता, एकरूपता एवं सुघडता के दर्शन होते हैं। घनानंद ब्रजभाषा के अत्यंत प्रवीण कवि थे। इसी कारण उनकी भाषा के अनुकूल चलने की अपूर्व शक्ति दिर्खाइ प्रथम प्रश्नपत्र देती है, वह नई-नई भंगिमाओं के द्वारा भावों को प्रस्तुत करने में बड़ी निपुण जान पडती है और उसका रचना-कौशल कारीगरी तथा रूप-विधान सभी कुछ असाधारण एवं अद्वितीय जान पड़ता है। घनानंद का भाषा पर इतना अधिक अधिकार दिखाई पडता है कि वह कवि की वशवर्तिनी होकर उनके इशारे पर नाचती है, उनके कहने पर चलती है, उनके आदेश पर कार्य करती है। ऐसा जान पड़ता है कि घनानंद ब्रजभाषा की नाडी पहचानते थे, उसके निश्चित प्रयोगों को जानते थे और उसकी नस-नस से परिचित थे। इसी प्रकार घनानंद ने बडी स्वच्छता और सुन्दरता के साथ ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, उसके एक-एक शब्द की स्थापना की है और उसे अपने अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति के लिए गति प्रदान की है। ब्रजभाषा पर ऐसा साधारण अधिकार अन्य किसी हिन्दी कवि का दिखाई नहीं देता। घनानंद की भाषा साफ-सुथरी और अत्यंत निखरी है तथा उसमें भावों के निरूपण की अनन्त शक्ति भरी हुई है।

2. शब्द शक्ति - शब्द की तीन शक्तियाॅ होती है- अभिधा, लक्षण और व्यंजना। जिनमें ये शक्तियाॅ होती है, वे शब्द भी तीन प्रकार के होते हैं-वाचक, लक्षक और व्यंजक शब्दों एवं लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ की प्रधानता है। घनानंद ने सबसे अधिक उक्ति-वैचित्रय का सहारा लिया है। इसलिए इनके काव्य में अभिधा की अपेक्षा एवं व्यंजना लक्षण-प्रधान माना जाता है। कविवर घनानंद ने उक्ति-चमत्कार के लिए, भावों को गहन बनाने के लिए तथा सरसता उत्पन्न करने के लिए ही लाक्षणिक प्रयोगों को अधिक अपनाया है।

3. अलंकार:- काव्य में अलंकारों का प्रयोग भी कथन में चारूता एवं भव्यता लाने के लिए होता है। इसीलिए अलंकारों को कथन की प्रणाली बतलाया गया है, भावों की तीव्रता करने वाली योजना कहा गया है और वस्तुओं के रूप, गुण एवं क्रिया को अधिक तीव्र गति से अनुभव कराने वाली युक्ति बतलाया गया है। निस्संदेह अलंकारों के दो ही कार्य होते हैं- एक तो वे भावों का उत्कर्ष दिखाया करते हैं और दूसरे वे वस्तुओं के रूपानुभव गुणानुभव और क्रियानुभव को तीव्रता प्रदान करते हैं। घनानंद के काव्य में जहाॅ रस और भावों मा अधिक्य है वहाॅ अलंकारों ने उन्हें और भी अधिक सजीवता एवं प्रभविष्णुता (दुसरों पर प्रभाव डालन वाला) प्रदान की है। घनांनद ने दोनों प्रकार के अलंकार अपनायें हैं, यहाॅ शब्दालंकार भी है और अर्थालंकार भी।

4. गुणः-काव्य के तीन प्रमुख गुण माने गये हैं- माधुर्य, ओज और प्रसाद। माधुर्य गुण अन्तःकरण को आनंद सेदवीभूत करने वाला होता है, ओज गुण चित्त में स्फुर्ति उत्पन्न करने वाला होता है और प्रसाद गुण श्रवण मात्र से काव्य की शीघ्र अर्थ-प्रतीति कराने वाला होता है। साहित्य शास्त्रियों ने अलंकारों के बिना भी काव्य रचना हो सकती है, किन्तु गुणों के बिना काव्य रचना नहीं होती। यदि कोई काव्य बिना किसी गुण के रचा भी जाता है तो वह नीर्जीव नीरस एवं निरर्थक होता हैं। घनानंद के काव्य में सर्वत्र माधुर्य गुण की प्रधानता है क्योंकि माधुर्य गुण की अनुभूति गुण की अनुभूति सर्वाधिक विपलम्भ श्रृंगार अथवा विरह-निरूपण मं होती है और घनानंद ने सबसे अधिक विरह का ही वर्णन किया है। रैन दिना धुटिबौ करें प्रान झरैं अॅखियाॅ झरना सो। प्रीतम की सुधि अन्तर मैं कसकै सखी ज्यौ पॅसरीन में गाॅसी।।

5. छंदः-काव्य का छंद से नित्य सम्बन्ध तो नहीं हैं क्योंकि बिना छंद-बंध के भी काव्य रचना होती है, किन्तु छन्द से काव्य में एक ऐसी प्रभविष्णुता आ जाती है, जिससे काव्य पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय में उतरता चला जाता है और उनका कंठहार बन जाता है। घनानंद का सारा काव्य छंद की रस-माधुरी से ओतप्रोत है, उसमें प्राणों का संगीत भरा हुआ है। और वह कवि की हृदय-वीणा के तारों की मधुर झंकार से झंकृत है। घनानंद की छन्द रचना पर विचार करने से ज्ञात होता है कि घनानंद ने विविध प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। जैसे-सवैया, कवित्त, त्रिलोकी, ताटंक, निसाती, सुमेरू, शोभन, त्रिभंगी, दोहा, चैपाई तथा घनाक्षरी पद। इनमें से घनानंद ने मुख्यतया सवैया एवं कवित्त छन्दों का प्रयोग अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया है। घनानंद केसर्वथा तो हिन्दी जगत में सर्वाधिक प्रसिद्ध है और उन्हें सर्वथा छंद का सिरताज कहना सवैया समीचीन ज्ञात होता है। 

इस प्रकार घनानंद की कविता विविध प्रकार के कलात्मक सौन्दर्य से ओतप्रोत है उसमें जितनी अनुभूति है, उतनी ही गहन अभिव्यक्ति भी है। 

रीतिमुक्त काव्यधारा में घनानंद का स्थान

हिन्दी की सम्पूर्ण स्वच्छंद प्रेम काव्यधारा का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि इस धारा के प्रमुख कवियो में से रसखान, आलम, घनानंद, ठाकुर और बोधा के नाम उल्लेखनीय है। ये सभी कवि प्रेम काव्य के प्रमुखप्रणेता है और इन्होने स्वच्छंदता के साथ प्रेमानुभूति का बडा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है, परन्तु इनमें से घनानंद सर्वश्रेष्ठ कवि है, क्योंकि घनानंद के काव्य में रसखान की सी प्रेम की अनिर्वचनीयता भी हैं, परन्तु इन सबसे बढ़कर घनानंद में कुछ ऐसे असाधारण काव्य सौष्ठव के दर्शन होते हैं, जो न रसखान में है, न आलम में हैं, न ठाकुर में है और न बोध मेही है। घनानंद ने ’सुजान’ केा आलम्बन बनाकर अपनी इस लौकिक प्रेयसी के रूप-सौन्दर्य का इतना मार्मिक एवं मनोरंजक वर्णन किया है कि देखते ही बनता है। सुजान की तिरछी चितवन, धुमते कटाक्ष, रसिली हॅसी, मृदु-मुस्कान, अरूण होठ कान्तिमंडित दंतावलि, सचिवकण, केशराशि, वक्रिम भौंहें, विशाल नैत्र, गर्वीली मुदा, उन्तम यौवन आदि परमुग्ध घनानंद ने उसकी रूप निकाई के अनेक संश्लिष्ट ाप्त चित्र अंकित करते हुए जहाॅ अपनी प्रेम-विभोरता का परिचय दिया है, वहाॅ मुहम्मद शाह रंगीले दरबार की इस नर्तकी के प्रति अपना ऐसा प्रणय-निवेदन किया है, जो हिन्दी काव्यकी स्थायी सम्पत्ति बन गया है। 

घनानंद की श्रेष्ठता का सबसे बडा करण यह है कि घनानंद के हृदय में सुजान के प्रति उत्कृष्ट प्रेम एवं असीम व्यामोह भरा हुआ था, उनके मन में सुजान की अक्षय रूप राशि समाई हुई थी। इसीलिए घनानंद का काव्य प्रेम की गूढता से भरा हुआ था, उनके मन मं सुजान की अक्षय रूप राशि समाई थी। इसीलिए घनानंद का काव्य प्रेम की गूढता से भरा हुआ है, अतृप्ति की अनंतता से भरा हुआ है, अन्तद्र्वद्व की अलौकिकता से भरा हुआ है, वेदना की अक्षयता से भरा हुआ हैं और तीव्रानुभूति की अखंडता से भरा हुआ है, क्योंकि घनानंद का सा उक्ति वैचित्रय और कोई कवि दिखा नहीं सका है, उनकी सी लाक्षाणिक मूर्तिमत्ता किसी की भी रचना में दृष्टिगोचर नहीं होती और उनका सा प्रयोग वैचित्रय कहीं ढँढने पर भी नहीं मिलता है। निःसंदेह वे पे्रमके जितने धनी थे, उतने ही भाषा के भी धनी थे और उतने ही अभिव्यंजना के भी धनी थे।

इसी कारण हिन्दी काव्य की रीतिमुक्त स्वछंद प्रेमधारा में घनानंद का प्रथम प्रश्नपत्र शीर्षस्थ स्थान है।

संदर्भ -
  1. डाॅ. द्वरिका प्रसाद सक्सेना, हिन्दी के प्राचीन प्रतिनिध कवि, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा 1977
  2. डाॅ. श्री निवास शर्मा, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली 1978
  3. डाॅ. किशोरी लाल, घनानंद काव्य एवं आलोचना, साहित्य भवन, इलाहबाद 1980
  4. डाॅ. महेन्द्र कुमार, रीतिकालीन रीति कवियों का काव्यशिल्प आर्य बुक डिपों, नई दिल्ली काव्य शिल्प 1980
  5. डाॅ. प्रतिभा चतुर्वेदी, डाॅ. हरिमोहन बुधोलिया, डाॅ. सरला मिश्रा, हिन्दी 
  6. भाषा साहित्य का इतिहास, म.प्र. हिन्दी ग्रंथ एकेडमी तथा काव्यंग विवेचन भोपाल, 2005

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