जैन धर्म और साहित्य के अनुसार कुल 24 तीर्थंकर हुए है। जैन अनुश्रुति के अनुसार जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थकर थे । महावीर का जन्म 599 ई.पू. वैशाली के समीप कुण्डग्राम में हुआ था । तीस वर्ष की कठोर तप के उपरान्त उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति
हुई । भारत में जैन अनुयायिओं की संख्या करीब 34 लाख है जो सम्पूर्ण जनसंख्या का 0.41 प्रतिशत है ।
जैन धर्म भी दो सम्प्रदाय में बट गये - श्वेताम्बर और दिगम्बर ।
श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र धरण करने वाले हुए और दिगम्बर वस्त्रों को साधना में बाधक मानते हैं ।
23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं के लिये केवल चार व्रतों का विधान किया था - अहिंसा,
सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह (धन संचय का त्याग)। महावीर स्वामी ने पाँचवां व्रत
ब्रह्मचर्य जोड़ दिया। साथ ही महावीर ने भिक्षुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं दी।

1. अहिंसा :- जैन धर्म के इस सिद्धांत में सभी प्रकार की अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है।
5. ब्रह्म्रह्मचर्य:- इसके अंर्तगत भिक्षुओं से निम्न कृत्य अपेक्षित है -
जैन धर्म ने भी वेदों की अपौरूशेयता को स्वीकार नहीं किया तथा धार्मिक एवं सामाजिक रूढि़यों, समस्त कर्मकाण्डों और पाखण्डों का घोर विरोध किया। महावीर ने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकान्तिक मतों को छोड़कर बीच का मार्ग अपनाया जिसे अनेकान्तवाद अथवा स्यादवाद कहा गया। स्यादवाद के अनुसार किसी वस्तु के अनेक पहलू होते है तथा एक आम व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि के कारण केवल कुछ ही पहलुओं को जान सकता है। अतः सभी विचार अंषतः सत्य होते है।
महावीर स्वामी सृष्टि के कण-कण में जीवों का वास मानते थे। इसी कारण उन्होंने अहिंसा पर विषेश बल दिया है। इसी अहिंसा ने जैन धर्म के अनुयायियों को मानव जीवन के सुरक्षा की अपेक्षा पशु, जीवाणु, वनस्पति एवं बीजों की सुरक्षा के प्रति अधिक सचेत बना दिया है। जैन धर्म के अनुसार विश्व में दो मूल पदार्थ है जीव और अजीव। जीव का अर्थ आत्मा से है जो मनुष्यों में ही नहीं अपितु प्राकृतिक वस्तुओं में भी है। अजीव के अंर्तगत पाँच पदार्थ है - पुद्गल (पदार्थ), आकाश, धर्म, अधर्म तथा काल। विश्व जीव और अजीव के घात-प्रतिघात से संचालित होता रहता है।
जैन धर्म अनीष्वरवादी है। सृष्टि के निर्माण और संचालन के लिये ईश्वर जैसी किसी महान शक्ति की आवश्यकता नहीं है। उनके अनुसार विश्व किसी की कृति नहीं है वह तो अनन्त, असीम और अनादि है। जैन धर्म के अनुसार आत्मा शरीर से पृथक होते हुए भी प्रकाश की भाँति अपना अस्तित्व रखती है। परन्तु सांसारिक विषय वासनाओं और तृष्णाओं से मनुश्य जो कर्म करता है, उसके आत्मा उसके इन कर्मों से बँध जाती है। सभी मनुष्य अपने कर्मों के कारण संसार में भ्रमण करते हैं एवं अपने कर्मों का फल भोगते हैं। कर्म ही पुर्नजन्म का मूल कारण है। अतः आत्मा को कर्म के बन्धनों से मुक्त करना चाहिये। आत्मा को कर्म के बंधन से मुक्त करने के लिये एवं कर्म के बंधनों के विनाश और कैवल्य की प्राप्ति के लिये महावीर ने तीन साधनों के अनुकरण का उपदेश दिया।

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों का वर्णन
महावीर
स्वामी के 5 महाव्रत विवरण सहित इस प्रकार है -
1. अहिंसा :- जैन धर्म के इस सिद्धांत में सभी प्रकार की अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है।
2. सत्य:- इसमें सत्य बोलने पर जोर दिया गया है। निम्न प्रकार से इस व्रत को अमल में लाया जा
सकता है -
- - सोच-विचार कर बोलना चाहिये।
- - क्रोध आने पर शान्त रहना चाहिये।
- - लोभ होने पर मौन रहना चाहिये।
- - हँसी में भी झूठ नहीं बोलना चाहिये।
- - भय होने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिये।
- - बिना किसी के अनुमति के उसकी कोई भी वस्तु न लेना।
- - बिना आज्ञा किसी के घर में प्रवेश न करना।
- - गुरू की आज्ञा बिना भिक्षा में प्राप्त अन्न को ग्रहण न करना।
- - बिना अनुमति के किसी के घर में निवास न करना।
- - यदि किसी के घर में रहना हो तो बिना उसकी आज्ञा के उसकी किसी भी वस्तु का उपयोग न करना।
4. अपरिग्रह (धन संचय का त्याग):- इसमें किसी भी प्रकार की सम्पत्ति एकत्रित न करने पर जोर
दिया गया है क्योंकि सम्पत्ति से मोह और आसक्ति का उदय होता है।
5. ब्रह्म्रह्मचर्य:- इसके अंर्तगत भिक्षुओं से निम्न कृत्य अपेक्षित है -
- - किसी स्त्री से बातें न करना।
- - किसी स्त्री को न देखना।
- - किसी स्त्री के संसर्ग की बात कभी न सोचना।
- - शुद्ध एवं अल्प भोजन ग्रहण करना।
- - ऐसे घर में न जाना जहाँ कोई स्त्री अकेली रहती हो।
जैन धर्म ने भी वेदों की अपौरूशेयता को स्वीकार नहीं किया तथा धार्मिक एवं सामाजिक रूढि़यों, समस्त कर्मकाण्डों और पाखण्डों का घोर विरोध किया। महावीर ने आत्मवादियों तथा नास्तिकों के एकान्तिक मतों को छोड़कर बीच का मार्ग अपनाया जिसे अनेकान्तवाद अथवा स्यादवाद कहा गया। स्यादवाद के अनुसार किसी वस्तु के अनेक पहलू होते है तथा एक आम व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि के कारण केवल कुछ ही पहलुओं को जान सकता है। अतः सभी विचार अंषतः सत्य होते है।
महावीर स्वामी सृष्टि के कण-कण में जीवों का वास मानते थे। इसी कारण उन्होंने अहिंसा पर विषेश बल दिया है। इसी अहिंसा ने जैन धर्म के अनुयायियों को मानव जीवन के सुरक्षा की अपेक्षा पशु, जीवाणु, वनस्पति एवं बीजों की सुरक्षा के प्रति अधिक सचेत बना दिया है। जैन धर्म के अनुसार विश्व में दो मूल पदार्थ है जीव और अजीव। जीव का अर्थ आत्मा से है जो मनुष्यों में ही नहीं अपितु प्राकृतिक वस्तुओं में भी है। अजीव के अंर्तगत पाँच पदार्थ है - पुद्गल (पदार्थ), आकाश, धर्म, अधर्म तथा काल। विश्व जीव और अजीव के घात-प्रतिघात से संचालित होता रहता है।
जैन धर्म अनीष्वरवादी है। सृष्टि के निर्माण और संचालन के लिये ईश्वर जैसी किसी महान शक्ति की आवश्यकता नहीं है। उनके अनुसार विश्व किसी की कृति नहीं है वह तो अनन्त, असीम और अनादि है। जैन धर्म के अनुसार आत्मा शरीर से पृथक होते हुए भी प्रकाश की भाँति अपना अस्तित्व रखती है। परन्तु सांसारिक विषय वासनाओं और तृष्णाओं से मनुश्य जो कर्म करता है, उसके आत्मा उसके इन कर्मों से बँध जाती है। सभी मनुष्य अपने कर्मों के कारण संसार में भ्रमण करते हैं एवं अपने कर्मों का फल भोगते हैं। कर्म ही पुर्नजन्म का मूल कारण है। अतः आत्मा को कर्म के बन्धनों से मुक्त करना चाहिये। आत्मा को कर्म के बंधन से मुक्त करने के लिये एवं कर्म के बंधनों के विनाश और कैवल्य की प्राप्ति के लिये महावीर ने तीन साधनों के अनुकरण का उपदेश दिया।
जैन धर्म के त्रिरत्न सिद्धांत
जैन धर्म में इन्हें त्रिरत्न कहा
जाता है। ये हैं -
(i) सम्यक ज्ञान:- जैन धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान कहलाता है। यह पाँच प्रकार के बताये गये है - इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, श्रुति अर्थात् सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान, कहीं रखी हुयी वस्तु का दिव्य अथवा आलौकिक ज्ञान, अन्य व्यक्तियों के मन की बातें जान लेने का ज्ञान तथा कैवल्य अर्थात् पूर्ण ज्ञान जो केवल तीर्थंकरों को प्राप्त है।
(ii) सम्यक दर्शन:- जैन तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक दर्शन या श्रद्धा है। इसके 8 अंग बताये गये है - संदेह से दूर रहना, सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग करना, शरीर के मोहराग से दूर रहना, भ्रामक मार्ग पर न चलना, अधूरे विश्वासों से विचलित न होना, सही विश्वासों पर अटल रहना, सबके प्रति प्रेम का भाव रखना, जैन सिद्धान्तों को सर्वश्रेष्ठ समझना।
(ii) सम्यक चरित्र:- इन्द्रियों और उनके कर्मों पर पूर्ण नियन्त्रण रखना, विशय-वासनाओं से अनासक्त होना और नैतिक सदाचारमय जीवन व्यतीत करना।
त्रिरत्नों का अनुसरण करने से कर्मों का जीव की ओर बहाव रूक जाता है। इसके बाद पहले से जीव में व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते है। जब कर्म का अवषेष पूरी तरह से समाप्त हो जाये तब वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। कर्म का जीव से संयोग बंधन है एवं वियोग ही मुक्ति है। महावीर ने मोक्ष के लिये कठोर तपस्या एवं काया-क्लेष पर भी बल दिया है। मोक्ष के पष्चात् जीव आवागमन के चक्र से छुटकारा पा जाता है तथा वह अत्यन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है। इसे ‘अनन्त चतुष्ट्य’ कहा गया है।
जैन धर्म के सिद्धान्त ब्राह्मणों की सर्वोपरिता एवं हिंसात्मक यज्ञों को निरर्थक मानते है। वर्ग के भेद-भाव एवं ऊँच-नीच की कटु आलोचना जैन धर्म में की गई। महावीर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं मानते थे, उनके अनुसार व्यक्ति जाति से नहीं बल्कि कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र होता है।
लगभग 300 ईसा पूर्व जैन धर्म श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में बँट गया। दिगम्बर सम्प्रदाय, श्वेताम्बर (ष्वेत वस्त्र धारी) के विपरीत वस्त्र धारण को मोक्ष प्राप्ति में बाधक मानते थे। श्वेताम्बर मत के अनुसार स्त्री के लिये मोक्ष की प्राप्ति संभव है जबकि दिगम्बर इस मत के विरूद्ध है।
(i) सम्यक ज्ञान:- जैन धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान कहलाता है। यह पाँच प्रकार के बताये गये है - इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, श्रुति अर्थात् सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान, कहीं रखी हुयी वस्तु का दिव्य अथवा आलौकिक ज्ञान, अन्य व्यक्तियों के मन की बातें जान लेने का ज्ञान तथा कैवल्य अर्थात् पूर्ण ज्ञान जो केवल तीर्थंकरों को प्राप्त है।
(ii) सम्यक दर्शन:- जैन तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक दर्शन या श्रद्धा है। इसके 8 अंग बताये गये है - संदेह से दूर रहना, सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग करना, शरीर के मोहराग से दूर रहना, भ्रामक मार्ग पर न चलना, अधूरे विश्वासों से विचलित न होना, सही विश्वासों पर अटल रहना, सबके प्रति प्रेम का भाव रखना, जैन सिद्धान्तों को सर्वश्रेष्ठ समझना।
(ii) सम्यक चरित्र:- इन्द्रियों और उनके कर्मों पर पूर्ण नियन्त्रण रखना, विशय-वासनाओं से अनासक्त होना और नैतिक सदाचारमय जीवन व्यतीत करना।
त्रिरत्नों का अनुसरण करने से कर्मों का जीव की ओर बहाव रूक जाता है। इसके बाद पहले से जीव में व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते है। जब कर्म का अवषेष पूरी तरह से समाप्त हो जाये तब वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। कर्म का जीव से संयोग बंधन है एवं वियोग ही मुक्ति है। महावीर ने मोक्ष के लिये कठोर तपस्या एवं काया-क्लेष पर भी बल दिया है। मोक्ष के पष्चात् जीव आवागमन के चक्र से छुटकारा पा जाता है तथा वह अत्यन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है। इसे ‘अनन्त चतुष्ट्य’ कहा गया है।
जैन धर्म के सिद्धान्त ब्राह्मणों की सर्वोपरिता एवं हिंसात्मक यज्ञों को निरर्थक मानते है। वर्ग के भेद-भाव एवं ऊँच-नीच की कटु आलोचना जैन धर्म में की गई। महावीर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं मानते थे, उनके अनुसार व्यक्ति जाति से नहीं बल्कि कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र होता है।
लगभग 300 ईसा पूर्व जैन धर्म श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में बँट गया। दिगम्बर सम्प्रदाय, श्वेताम्बर (ष्वेत वस्त्र धारी) के विपरीत वस्त्र धारण को मोक्ष प्राप्ति में बाधक मानते थे। श्वेताम्बर मत के अनुसार स्त्री के लिये मोक्ष की प्राप्ति संभव है जबकि दिगम्बर इस मत के विरूद्ध है।
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जैन धर्म
इसमें आपके द्वारा गलत जानकारी दी गई है, जैन धर्म के प्रथम तिर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान थे उनके बाद विभिन्न काल मे 23 तिर्थंकर और हुए. भगवान महावीर सबसे अंतिम तीर्थंकर थे.
ReplyDeleteकृपया अपनी जानकारी संशोधित करने का कष्ट करें
Sahi tho he
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