
जैन धर्म भी दो सम्प्रदाय में बट गये - श्वेताम्बर और दिगम्बर । श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र धरण करने वाले हुए और दिगम्बर वस्त्रों को साधना में बाधक मानते हैं ।
23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं के लिये केवल चार व्रतों का विधान किया था - अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह (धन संचय का त्याग)। महावीर स्वामी ने पाँचवां व्रत ब्रह्मचर्य जोड़ दिया। साथ ही महावीर ने भिक्षुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं दी।
जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों का वर्णन
जैन धर्म के पाँच महाव्रत
संसार में दुःख ही दुःख है और यदि सुख भी मोक्ष को छोड़कर अन्यत्र कहीं है तो वह स्वर्ग में है, जैन दर्शन में क्षणिक माना गया है परन्तु यदि शाश्वत और अविनश्वर सुख है तो वह मोक्ष ही है और इसे पाने हेतु मुनि अवस्था को धारण करना पड़ता है।
जैन दर्शन में मुनियों के लिए अट्ठाईस मूल गुणों का वर्णन किया गया है इनमें से यदि एक भी मूलगुण का पालन नहीं किया जा सकता तो इसे मुनि नहीं कहा जा सकता है। ये अट्ठाईस मूलगुण निम्न हैं- पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, छः आवश्यक, सात शेष गुण ( अदन्त धावन, अस्नान, भू-शयन, स्थिति भोजन, एकभुक्ति, केशलोंच और नग्नता ।
पाँच महाव्रत विवरण सहित इस प्रकार है -
1- अंहिसा महाव्रत
2- सत्य महाव्रत
3- अचौर्य महाव्रत
4- ब्रह्मचर्य महाव्रत
5- अपरिग्रह महाव्रत
1. अंहिसा महाव्रत :- जैन धर्म के इस सिद्धांत में सभी प्रकार की अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है।
2. सत्य महाव्रत:- राग द्वेष और मोह के कारण असत्य तथा दूसरों को सन्ताप (कष्ट) पहुँचाने वाले सत्य वचन का त्याग करना सत्य महाव्रत है। परिस्थिति के अनुसार कभी-कभी सत्य वचन का त्याग भी महाव्रत के अन्तर्गत आता है। उदाहरण के लिए यदि कोई शिकारी अपना शिकार खोजता हुआ आ रहा है और आप को ज्ञात होते हुए भी पूछने पर मना कर देना भी सत्य महाव्रत है। इसे कई अवस्थाओं में बाँटा गया है—
3. अचौर्य महाव्रत :- वस्तु के स्वामी की स्वीकृति के बिना वस्तु को ग्रहण करना उठाकर किसी अन्य को दे देना साथ ही ऐसा करने के लिए किसी को प्रेरित करना या चोरी के अन्तर्गत आता है। इसके परिपूर्ण त्याग को अचौर्य महाव्रत कहते हैं। जैन मुनियों को अचौर्य महाव्रत पालन के लिए निम्न दिशा निर्देश दिये गये हैं।
1- अनुमिभाषी - विचार करके बोलने वाला ।
2- लोभ परिजानाति - लोभ होने पर चुप रहना । -
3- कोहं परिजनाति - क्रोध होने पर मौन रहना । -
4- हासं परिजानति - हँसी में भी असत्य न बोलना ।
5- भयं परिजनाति - भय होने पर भी असत्य न बोलना ।
1- गृह स्वामी के आग्रह अथवा आज्ञा के बिना गृह में प्रवेश नहीं करना है।
2- गुरु की आज्ञा के बिना आहार, उपकरण (कमण्डुल पिच्छिका) आदि ग्रहण नहीं करना चाहिये ।
3 – गृहस्वामी की अनुमति के बगैर घर की किसी वस्तु का उपयोग नहीं करना
चाहिये ।
5. ब्रह्मचर्य महाव्रत - मैथुन या सम्भोग कर्म को कुशील कहते हैं इसका मन, वचन, काय (मनुष्य, त्रिर्यच, देव) द्वारा त्याग करना ही ब्रह्मचर्य महाव्रत है इसे पालन के निम्नलिखित निर्देश हैं-
1- पूर्ण संयमी को स्त्रियों के सम्पर्क से बचना चाहिए ।
2- स्त्रियों के साथ बैठक राग कथा, गप्प आदि नहीं करना चाहिए ।
3- पूर्व में की गई काम क्रीड़ा का स्मरण नहीं करना चाहिये।
4- प्रत्येक स्त्री को माता व बहन के समान दृष्टिकोण से देखना चाहिये ।
5- उत्तेजक (तामसिक) भोजन का त्याग करना चाहिये ।
जैन धर्म के त्रिरत्न
आचार को धर्म कहा गया है धर्म का क्रियात्मक रूप आचार है पर आचार को एक निश्चित विचार में अभिप्रेरित होना चाहिए विचार रहित आचार और आचार रहित विचार वांछित परिणाम नहीं दे सकता है। आचार और विचार की इसी अन्योन्याश्रितता के कारण ही जैन धर्म में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र की एकरूपता को परस्पर निर्भरता कहा गया है। जैन धर्म में इन्हें त्रिरत्न कहा
जाता है। ये हैं -
(i) सम्यक ज्ञान:- जैन धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान कहलाता है। यह पाँच प्रकार के बताये गये है - इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, श्रुति अर्थात् सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान, कहीं रखी हुयी वस्तु का दिव्य अथवा आलौकिक ज्ञान, अन्य व्यक्तियों के मन की बातें जान लेने का ज्ञान तथा कैवल्य अर्थात् पूर्ण ज्ञान जो केवल तीर्थंकरों को प्राप्त है।
(ii) सम्यक दर्शन:- जैन तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक दर्शन या श्रद्धा है। इसके 8 अंग बताये गये है - संदेह से दूर रहना, सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग करना, शरीर के मोहराग से दूर रहना, भ्रामक मार्ग पर न चलना, अधूरे विश्वासों से विचलित न होना, सही विश्वासों पर अटल रहना, सबके प्रति प्रेम का भाव रखना, जैन सिद्धान्तों को सर्वश्रेष्ठ समझना।
(ii) सम्यक चरित्र:- इन्द्रियों और उनके कर्मों पर पूर्ण नियन्त्रण रखना, विशय-वासनाओं से अनासक्त होना और नैतिक सदाचारमय जीवन व्यतीत करना।
त्रिरत्नों का अनुसरण करने से कर्मों का जीव की ओर बहाव रूक जाता है। इसके बाद पहले से जीव में व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते है। जब कर्म का अवषेष पूरी तरह से समाप्त हो जाये तब वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। कर्म का जीव से संयोग बंधन है एवं वियोग ही मुक्ति है। महावीर ने मोक्ष के लिये कठोर तपस्या एवं काया-क्लेष पर भी बल दिया है। मोक्ष के पष्चात् जीव आवागमन के चक्र से छुटकारा पा जाता है तथा वह अत्यन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है। इसे ‘अनन्त चतुष्ट्य’ कहा गया है।
जैन धर्म के सिद्धान्त ब्राह्मणों की सर्वोपरिता एवं हिंसात्मक यज्ञों को निरर्थक मानते है। वर्ग के भेद-भाव एवं ऊँच-नीच की कटु आलोचना जैन धर्म में की गई। महावीर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं मानते थे, उनके अनुसार व्यक्ति जाति से नहीं बल्कि कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र होता है।
लगभग 300 ईसा पूर्व जैन धर्म श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में बँट गया। दिगम्बर सम्प्रदाय, श्वेताम्बर (ष्वेत वस्त्र धारी) के विपरीत वस्त्र धारण को मोक्ष प्राप्ति में बाधक मानते थे। श्वेताम्बर मत के अनुसार स्त्री के लिये मोक्ष की प्राप्ति संभव है जबकि दिगम्बर इस मत के विरूद्ध है।
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जैन धर्म
इसमें आपके द्वारा गलत जानकारी दी गई है, जैन धर्म के प्रथम तिर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान थे उनके बाद विभिन्न काल मे 23 तिर्थंकर और हुए. भगवान महावीर सबसे अंतिम तीर्थंकर थे.
ReplyDeleteकृपया अपनी जानकारी संशोधित करने का कष्ट करें
Sahi tho he
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