कबीर दास का जीवन परिचय, कबीर की भाषा, समाज सुधारक रूप

कबीर दास

कबीर निर्गुण धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि है। वे संतमत के प्रर्वतक और संत काव्य के कवि है। हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन साहित्य के प्रमुख स्तम्भों में से एक हैं। हिन्दी साहित्य में भक्ति आन्दोलन को प्रसारित करने में भी योगदान सर्वाधिक है। उनकी भक्ति का मूल आधार व्यक्ति की गरिमा को सुरक्षित रखकर एकता का प्रतिपादन करना है। कबीर की भक्ति भावना में नाम स्मरण को अत्यधिक दिया गया है। 
कबीर के दार्शनिक विचारों पर अद्वैतवादी वेदान्त दर्शन का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। कबीर रहस्यवादी है, उनका रहस्यवाद भौतिक न होकर आध्यात्मिक है, भावनात्मक न होकर साधनात्मक है। 

कबीर ने तत्कालीन धार्मिक पाखण्डों एवं सामाजिक कुरीतियों को दूर करके जनसाधारण को सरल जीवन, सत्याचरण, पारस्परिक एकता, समानता आदि की ओर उन्मुख करने का सराहनीय कार्य किया है।

कबीर दास का जीवन परिचय

कबीर की जन्मतिथि के सम्बन्ध में कई मत प्रचलित है, पर अधिक मान्य मत - डाॅ. श्यामसुन्दर दास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है। इन विद्वानों ने कबीर का जन्म सम्वत् 1456 वि. (सन्1389 ई.) माना है। इनके जन्म के सम्बध में कहा जाता है कि कबीर काशी की एक ब्राह्मणी विधवा की सन्तान थे। समाज के डर से ब्राह्मणों ने अपने नवजात पुत्र को एक तालाग के किनारे छोड दिया था, जो नीरू जुलाहे और उसकी पत्नी नीमा को जलाशय के पास प्राप्त हुआ। विद्वानों के मतानुसार कबीर का अवसान मगहर में सम्वत् 1575 वि.(सन् 1518 ई.) में है

कबीर की पत्नी का नाम लोई था। तथा पुत्र का नाम कमाल तथा पुत्री का नाम कमाली था। कबीदास जी जुलाहे के व्यवसाय से आजीवन जुड़े रहे। गुरू का नाम भी विवादित रहा है। कुछ लोग गुरू के रूप में शेख तकी का नाम लेते हैं, किन्तु अधिकांश लोगों का मानना है कि आपके गुरू रामानन्द जी थे। रामानन्द उस समय के बड़े संत और आघ्यात्मिक गुरू थे। ऐसी जनश्रुति है कि पहले रामानन्द ने कबीर को अपना शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया था। 

कबीर की जितनी भी रचनाएँ मिलती हैं उनकें शिष्यों ने इन्हें बीजक नामक ग्रन्थ में संकलित किया है। इसी बीजक के तीन भाग हैं - साख, शबर और रमैनी । साखी में संग्रहित साखियों की संख्या 809 है। सबद के अन्तर्गत 350 पद संकलित है। साखी शब्द का प्रयोग कबीर ने संसार की समस्याओं को सुलझाने के लिए किया है। सबद कबीर के गेय पद है। रमैनी के ईश्वर सम्बन्धी, शरीर एवं आत्मा उद्धार सम्बन्धी विचारों का संकलन है। कबीर के निर्गुण भक्ति मार्ग के अनुयायी थे और वैष्णव भक्त थे। 

कबीरदास जी घुम्मकड़ संत थे। कबीरदास ने सम्पूर्ण उत्तर भारत की यात्रा की। इस भ्रमण और यात्रा के बीच उनके मत का प्रचार-प्रसार होता रहा। स्वंकय कबीरदास ने भी कई मत-मतान्तरों को ग्रहण किया। उनके उपर वैष्णवों के प्रपत्तिवाद, वेदान्त के अद्धैतवाद, इस्लांम के एकेश्वरवाद, सूफी के प्रेमतत्व, नाथ पन्थ के हठयोग का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। कबीरदास ने सभी मतों को अपने व्यक्तित्व में समायोजित किया तथा अपना नया पंथ चलाया। कबीरदास के पंथ को ‘कबीर पंन्थ’ कहा गया। हालाँकि कबीर पन्थ का निर्माण उनके शिष्यों ने किया।

कबीर ने धार्मिक पाखण्डों, सामाजिक कुरीतियों, अनाचारों, पारस्परिक विरोधों आदि को दूर करने का सराहनीय कार्य किया है। कबीर की भाषा में सरलता एवं सादगी है, उसमें नूतन प्रकाश देने की अद्भुत शक्ति है। उनका साहित्य जन-जीवन को उन्नत बनाने वाला, मानवतावाद का पोषाक, विश्व -बन्धुत्व की भावना जाग्रत करने वाला है। इसी कारण हिन्दी सन्त काव्यधारा में उनका स्थान सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

कबीरदास की मृत्यु 1518 ई. में हुई । उनकी मृत्यु को लेकर भी विवाद रहा है। इस सम्बन्ध में एक दिलचस्प कहानी प्रचलित है। कहा जाता है कि काशी में मृत्यु होने पर व्यक्ति स्वर्ग जाता है तथा मगहर (काशी से 50 किलोमीटर दूर एक स्थान) में मृत्यु होने पर उसे नर्क की प्राप्ति होती है। कबीरदास जी इस लोक कथन को मिथ्या सिद्ध करने के लिए अपनी मृत्यु से पूर्व मगहर चले गये। कबीरदास जी का पूरा जीवन ही सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष में बीता। कबीर केवल संत ही नहीं थे, वे उच्चकोटि के कवि एवं समाज सुधारक भी थे।

कबीर की भाषा 

कबीर की भाषा को खिचड़ी भाषा कहा जाता है। धुमंतु प्रकृति के व्यक्ति थे इसलिए सभी भाषाओं से शब्द ग्रहण करना उनका स्वभाव था। मूलतः वे काशी के रहने वाले थे और काशी में मुख्यताः भोजपुरी बोली जाती है। कबीर की भाषा पूर्वी हिन्दी है। कबीर की भाषा मे बंगला, बिहारी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रज, खडी, राजस्थानी, पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, लहँदा, अरबी, फारसी, आदि सभी बोलियों को शब्दों का प्रयोग मिलता है। कबीर की भाषा में सरलता एवं सादगी है, उसमें अपनी बात लोगों तक पहुँचाने की क्षमता है।

कबीर का समाज सुधारक रूप

कबीर का समाज सुधारक रूप ही अधिक सुन्दर रहा है। समाज में व्याप्त वैमनस्य, पारस्परिक द्वेष, हिंसा, भेद-भाव, छूआ-छूत और वर्णभेद देखकर उनका हृदय आक्रोश से भर उठा। उन्होंने सामाजिक कुप्रवृत्तियों विषमताओं, आडम्बरों और अंधविश्वासों पर करारा व्यंग्य किया तथा समाज को श्रेष्ठ बनाने का पूरा प्रयास किया। 
कबीर का मूल उद्देश्य लोक कल्याण था।  कबीर समाज सुधारक के रूप हैं -

1. हिन्दु-मुस्लिम एकता पर बल

कबीर के समय में हिन्दू और मुसलमानों में पारस्परिक वैमनस्य बढ़ रहा था। मुसलमान शासक हिन्दुओं पर अत्याचार कर रहे थे तथा अधिकांश लोगों को मुसलमान बना लेना चाहते थे। ऐसी विषम स्थिति में कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों दोनों की निर्गुण ब्रम्हो की आराधना का उपदेश दिया और पारस्परिक द्वेष को दूर कर प्रेम भाव जगाने का प्रयास किया। कबीर उन महापुरुषों में से थे जो युग परिवर्तन कर देते हैं। युग के प्रवाह को बल पर समाज में क्रांति पैदा कर देते हैं और उसका नेतृत्व करके समाज को शीर्षासन पर पहुंचा देते हैं। महापुरुषों
में  जिन गुणों का होना अनिवार्य होता है वे सभी गुण कबीर में विद्यमान थे।

2. बाहृयाडम्बरो  का विरोध

कबीर ने समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं बाहृयाडम्बरों का जोरदार विरोध किया। उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों  की उपासना पद्धतियों  की आलोचना की -

‘‘पाहन पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूँ पहार।
तावे यह चाकी भली पीस खाय संसार।।’’ 

इस प्रकार -

‘‘काकर पाथर जोरि है मस्जिद लई बनाय।
ता चढे मुल्ला बांगदे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।’’ 

 

3. जांति- पाति का खण्डन

कबीर के समय वर्ण व्यवस्था का बोल-बाला था। ब्राम्हण और शूद्रों में बहुत अन्तर था।  उन्होंने सभी को समझाते हुए कहा कि जाति से कुछ नहीं होता , हरि -भजन ही सर्वोपरि है। जाति का विरोध के आधार पर भेदभाव का विरोध करते हुए बारम्बार समझाया कि सब में उस परमात्मा का ही अंश है -

जाति न पूछो साधु की पूछो उसका ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।।

 

4. कथनी-करनी में  एकरूपता 

कबीर दास जी आजीवन लोक में व्याप्त भ्रान्तियों अंधविश्वासों और कुरीतियों के निराकरण का प्रयास करते रहे। उनकी सबसे बडी़ विशेषता थी कथनी और करनी में ं एकरूपता अर्थात् वे जो कहते हैं, वही करते हैं। उन्होंने जनता का भी कथनी -करनी अभेद की स्थापना का उपदेश दिया। उनका विचार है कि - 

कथनि ताजि करनी करे, विष से अमृत होय। 

कबीर ने समाज और धर्म के ठेकेदारों पर कड़ा व्यंग्य किया है। उन्होंने जाति-पाति, पूजा-पाठ, तीर्थाटन, जप-तप, मन्दिर-मस्जिद , पण्डित शेख, मुल्ला- मौलवी और शक्ति सभी पर कई व्यंग्य बाण छोड़ है। 

डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस सम्बंध में सत्य लिखा है- ‘‘सच पूछा जाए तो आज तक हिन्दी में ऐसा जबरदस्त व्यंग्य लेखक पैदा ही नहीं हुआ।’’ उनकी साफ चोट करने वाली भाषा, बिना कहे भी सब कुछ कह देने वाली शैली और अत्यन्त सादी किन्तु अत्यन्त तेज प्रकाशन - भगी अनन्य साधारण है।

5. कबीर का साहित्य के क्षेत्र में 

कबीर दास जी साहित्य के क्षेत्र में अनन्य प्रतिभाशाली कवि की हिन्दी साहित्य में उपेक्षा ही हुई है। इस अपेक्षा के मूल में रसवादी आलोचकों की सकं ीर्ण और आदर्शपरक सीमित दृष्टिकोण प्रधान कारण रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर आदि की तीन बातों के कारण उपेक्षा की है - 
  1. उपदेश और धर्म की नीरस चर्चा, उलट-बासियां तथा सुनी -सुनाई बातों का पिष्टपोषण। 
  2. श्रृंखलाबद्ध सुव्यवस्थित दार्शनिक विचार धारा का अभाव तथा विभिन्न विचारधाराओं का असंगत मिश्रण 
  3. आषा और शैली का अव्यवस्थित रूप।
उपर्युक्त त्रुटियों के रहते हुए भी शुक्ल जी को अन्त में मानना ही पड़ा कि ‘‘प्रतिभा उनमें ं बड़ी प्रखर थी, इसमें संदेह नहीं।’’ साहित्य में शक्तिशाली, मानकर चलने वाले प्रखर आलोचक शुक्ल जी से हिन्दी साहित्य में अपनी प्रखर प्रतिभा की धाक मनवाने वाले एक मात्र कबीर ऐसे हैं, जिनकी शुक्ल जी ने विरोध करते हुए प्रशंसा की है। यह कबीर की बहुत बड़ी विजय है।

संदर्भ -
  1. आर. एन. गौड - हिन्दी साहित्य का सरल इतिहास , राजहंस प्रकाशन मंदिर , मेरठ (उ.प्र) 1961
  2. डाँ. श्रीनिवासन शर्मा - हिन्दी साहित्य का इतिहास , तक्षशिला प्रकाशन , नई दिल्ल,1978
  3. डाँ. हरिमोहन बुधौलिया, डाँ. शकुतंला सिंह, डाँ. मृदुला शर्मा - म0.प्र0 हिन्दी ग्रन्थ अकादमभ्, भोपाल, 2002
  4. डाँ. नगेन्द्र हिन्दी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्लभ्,2006
  5. डाँ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना - हिन्दी के प्राचीन प्रतिनिधी कवि, अग्रवाल पब्लिकेशन्स, आगरा 2 , 2009-10

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