केले की खेती की संपूर्ण जानकारी

केले की खेती

केला का वैज्ञानिक नाम Musa है केला एक प्रमुख फल है यह एक प्रचीनतम फल वृक्ष माना जाता है एवं दक्षिण पूर्व एशिया या भारतीय उपमहाद्वीप (असम, बर्मा, इन्डो चाइना) को इसका उत्पत्ति स्थल माना जाता है। हमारे देश में केले की खेती बड़े पैमाने पर होती है। केला उत्पादन में विश्व में भारत का प्रथम स्थान है। तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, प0 बंगाल एवं बिहार आदि भारत के प्रमुख केला उत्पादक राज्य हैं। केला एक बहुत ही पौष्टिक फल है जिससे 67-137 कैलोरी ऊर्जा एवं 27 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट प्राप्त होता है। इसके साथ ही इसमें 290.0 पी0पी0एम0 फाॅस्फोरस एवं 80.0 पी0पी0एम0 कैल्शियम पाया जाता है।

केले की खेती की संपूर्ण जानकारी

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केले की प्रजातियाॅ

केले की कुछ प्रजातियाॅ पके फल के रूप में जबकि कुछ को सब्जी के रूप में खाया जाता है। ड्वार्फ कावेन्डिष, रोबस्टा, मालभोग, चिनिया, चम्पा, अल्पान, जी-9 आदि पके फल के रूप मे  खायी जाती हैं जबकि नन्ेद्रन, मुठिया, बंथन आदि प्रजातियों को सब्जी के रूप में खाया जाता है।

केले की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु

केले की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली दामेट भूमि जिसमें कार्बनिक पदार्थ अधिक मात्रा में उपस्थित हो उपयुक्त मानी जाती है। मृदा का पी0एच0 मान 4.5-7.5 के मध्य होना चाहिए। केला मुख्य रूप से ऊष्ण जलवायु का पौधा है अतः इसकी समुचित वृद्धि, विकास एवं अच्छी उपज हेतु गर्म एवं आद्र्र जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती के लिए अनुकूलतम तापमान 20-40 डिग्री सेल्सियस होता है। तापमान 10 डिग्री सेल्सियस से कम होने पर पौधे की वृद्धि रूक जाती है।

केले की खेती

पौधे लगाना

  1. रोपण दूरी - बौनी प्रजातियों के लिए 1.5 x 1.5 - 1.8 x 1.8 मी0 एवं लम्बी प्रजातियो के लिए 2.0 x 2.0 - 2.5 x 2.5 मी0 की दूरी पर्याप्त होती है।
  2. रोपाई का समय जून-जुलाई 
  3. पौधे लगाने के लिए 60x60x60 से0मी0 के गड्ढे खोदकर उसमें से निकली मिट्टी में 20 कि0ग्रा0 कम्पोस्ट, 1 कि0ग्रा0 नीम की खली तथा 1 कि0ग्रा0 बोन मील एवं 100 ग्रा0 डाई अमाेि नयम फाॅस्फेट मिलाकर गड्ढो ं को भर देते हैं। 
  4. मिट्टी भरकर सिंचाई कर देते हैं जब गड्ढों की मिट्टी बैठ जाये तो पौधे लगाते है। 

खाद एवं उर्वरक

केले के प्रत्येक पौधे को 20 कि0ग्रा0 कम्पोस्ट, 1 कि0ग्रा0 बोन मील, 1 कि0ग्रा0 नीम की खली, 300 ग्रा0 नाइट्रोजन, 45-50 ग्रा0 फाॅस्फोरस एवं 400 ग्रा0 पोटैषियम की आवश्यकता होती है। कम्पोस्ट एवं फाॅस्फोरस की पूरी मात्रा को गड्ढे भरते समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। नाइट्रोजन की पूरी मात्रा को चार भागों में बाॅटकररोपाई के 1, 3, 5 एव 7 महीने बाद दने ा चाहिए जबकि पोटेषियम की पूरी मात्रा को 5 भागो मे बाॅटकर रोपाई के 1, 3, 5 एवं 7 महीने बाद एवं घौंद निकलने के समय देना चाहिए।

सिंचाई

सामान्यतः बरसात के मौसम में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है परन्तु गर्मियों में 5-7 दिन व ठण्ड के मौसम में 10-12 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। इसके अलावा टपक सिंचाई प्रणाली के द्वारा पानी देना पानी की बचत एवं पौधे के विकास दोनों ही दृष्टि कोण से लाभदायक पाया गया है। इस प्रणाली में पतली पाइपों के माध्यम से नियंत्रित दाब के अन्तर्गत प्रत्येक पौधे के जड़ क्षेत्र मं े बूंद बूंद पानी देकर सिंचाई की जाती है।

खरपतवार नियंन्त्रण

केले के खेत को हमेशा खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए। जब तक पौधे पूरी तरह से नीचे की जमीन को न ढक लें तब तक नियमित रूप से निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए। प्रत्येक सिंचाई के बाद हल्की निराई गुड़ाई लाभदायक होती है।

केले में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोग

स्कैरिंग भंृग, तना बेधक, राइजोम विविल एवं माहू केले को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीट हैं जब कि पनामा उकठा रोग, षीर्षगुच्छ रोग, ष्यामव्रण या फल विगलन एवं सिगाटोका पर्णचित्ती रोग केले में लगने वाले प्रमुख रोग हैं।

परिपक्वता, फल तुड़ाई एवं उपज

केले के पौधे में औसतन 8-10 महीने बाद फूल आना प्रारम्भ हो जाता है एवं 3-4 महीने में फल परिपक्व हो जाते है। केले के परिपक्व फलों में कोने खत्म होने लगते हैं तथा फलो का रंग हल्का हरा हो  जाता है। केले की फसल से औसतन 300-400 कुन्तल/हेक्टेयर की उपज प्राप्त होती है।

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