कृषि के व्यवसायीकरण का क्या अर्थ है ?

जब किसी देश में कृषि इस उद्देश्य से की जाती है कि उपज की विभिन्न वस्तुओं को बेचकर अधिक लाभ प्राप्त किया जाए (तथा जिसका उद्देश्य मात्र जीवित रहने के लिए कृषि करना न हो ) तो उसे कृषि का व्यावसायीकरण कहा जाता है।

कृषि के व्यवसायीकरण का अर्थ

कृषि के व्यवसायीकरण का अर्थ नगदी फसलों को उगाना था। नगदी फसलें उन फसलों को कहा जाता है जिनको बाजार में बेचकर किसानों को अधिक पैसा मिल सकता था। उदाहरण के लिए, कपास, चाय, फल, आलू सरसों, सब्जी आदि नकदी फसलें कहलाती है।  

भारत में कृषि का व्यावसायीकरण

कृषि के व्यावसायीकरण का प्रमुख कारण भारत में ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी नीति थी जो ब्रिटेन में प्रचलित राजनीतिक दर्शन तथा विचारधाराओं से प्रभावित थी। इसका मुख्य आधार साम्राज्यवाद की आवश्यकताओं के लिए कृषि को पूरा करना थे। सरकार ने भू-राजस्व की जो प्रणालियाँ लागू की उनका उद्देश्य अपनी आय की वृद्धि करना तथा अपने समर्थक जमींदारों को प्रसन्न करना था। इस काल में ब्रिटिश नीति ब्रिटेन की आवश्यकताओं के लिए कृषि उत्पादन के प्रयोग की थी। कृषि उत्पादन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिए सरकार ने रोलों का जाल बिछा दिया। ब्रिटेन के वस्त्र उद्योग तथा शहरी आबादी की आवश्यकताऐं पूरी करने के लिए कच्चे कपास को भारत के विभिन्न क्षेत्रों से रोलों द्वारा बन्दरगाहों तक पहुँचाया जाता था। वहाँ से उनको ब्रिटेन भेजा जाता था। इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी में भारत का ब्रिटेन के एक कृषि उपनिवेश के रूप में उदय हुआ।

कृषि के व्यावसायीकरण की इस प्रक्रिया में सरकार ने उन्हीं फसलों के विकास में योगदान दिया, जिनकी विदेशी बाजारों में आवश्यकता थी। उदाहरण के लिए, पंजाब में अमरीकी कपास की खेती को बढ़ावा दिया। इसका उद्देश्य लंकाशायर के उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध कराना था क्योंकि अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अमेरिकी उपनिवेशों से कच्चा माल आना बन्द हो गया था। सरकार ने इस प्रकार की फसलों को प्रोत्साहन देने के लिए प्रदर्शन फार्मो की स्थापना की। बंगाल में सरकार ने पोस्ता, नील तथा जूट के उत्पादन को बढ़ाने पर बल दिया। इन फसलों को किसान किस सीमा तथा किस किस्म को पैदा करेगा, इसका निर्णय स्वयं सरकार करती थी।

निर्यात के लिए सरकार को कितने माल की आवश्यकता है, तथा उसे राजस्व कितना मिलेगा ? उसकी हिसाब से वह उत्पादन को बढ़ावा देती थी। इससे स्पष्ट है कि फसलो पर सरकार का एकाधिकार कायम था। आगे चलकर चाय को भी इस श्रेणी में सम्मिलित कर लिया गया।

भारत में प्रारंभ में गाँव एक इकाई के रूप में थे जहाँ की आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं ग्रामों में उत्पन्न विभिन्न वस्तुओं से हो जाती थी। 19 वीं शताब्दी में धीर-धीरे इस स्थिति में परिवर्तन हुआ तथा कृषि ने व्यावसायिक रूप धारण करना प्रारंभ कर दिया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत कृषक निर्यात करने वाली वस्तुओं की खेती अधिक करने लगे । 19 वीं शताब्दी में कृषि के व्यावसायिक स्वरूप धारण करने के लिए अग्रलिखित कारण उत्तरदायी थे -

1. अमेरिका का गृहयुद्ध - 1861 ई. में अमेरिका में गृह-युद्ध प्रारंभ हो गया। अमेरिका प्रमुख कपास उत्पादक था। गुह युद्ध के कारण अमेरिका कपास का निर्यात न कर सका। अतः भारतीय किसानों ने कपास की खेती करके निर्यात करना प्रारंभ कर दिया। कपास के अतिरिक्त खाद्यान्नों के निर्यात में भी वृद्धि हुई।

2. स्वेज नहर - 1869 ई. मे स्वेज नहर बनी जिससे भारत व इंग्लैण्ड की दूरी लगभग 4,000 मील कम हो गयी। अतः विभिन्न खाद्यान्नों के निर्यात में वृद्धि हुई। 

3. परिवहन के साधनों का विकास - 19 वीं शताब्दी में भारत में परिवहन के साधनों का तीव्र गति से विकास हुआ। इससे वस्तुओं का एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना सुविधाजनक हो गया। इस प्रकार परिवहन के साधनों के विकास ने कृषि के व्यावसायीकरण को प्रोत्साहित किया।

4. औद्योगिक क्रांति - इंग्लैण्ड में हुई औद्योगिक क्रांति का प्रभाव यूरोप के समस्त देशों पर पड़ा। अतः समस्त यूरोप में छोटे-बड़े कारखानों की बाढ़ आ गई। इन कारखानों को कच्चे माल की आवश्यकता थी। अतः भारतीय कृषक भी कच्चे माल की पूर्ति करने लगे। इस प्रकार स्वतः ही कृषि का व्यावसायीकरण हो गया।

5. भारत में अनेक यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियाँ - भारत में अनेक यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियाँ कार्यरत थी जो विभिन्न वस्तुओं, उदाहरणार्थ-नील, चाय, अफीम, इत्यादि की खेती कराती थी। अतः कम्पनियों के प्रभाव ने कृषि के स्वरूप को व्यावसायिक रूप प्रदान कर दिया।

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