वायु में आक्सीजन गैस होती है। यह शरीर के लिए बड़ी आवश्यक और महत्वपूर्ण है। शरीर को सक्रिय और स्वास्थ्य बनाए
रखने के लिए इस गैस का नियमित रूप से शरीर में जाना नितान्त आवश्यक है। शरीर के विकास, पेशियों की क्रिया, पाचन
रसों के उत्पादन और मस्तिष्क की प्रक्रिया- सभी को आक्सीजन गैस की आवश्यकता होती है, जिस क्रिया के द्वारा यह गैस
शरीर में प्रवेश करती है, उसे ‘श्वसन’ कहते हैं। इस क्रिया के दो रूप हैं-
- वायु का भीतर खींचना अर्थात निश्वसन,
- हवा को बाहर छोड़ना अर्थात उच्छ्सन।
श्वसन तंत्र की संरचना
श्वसन तंत्र के अवयव हैं- मुख, नासिका मार्ग, स्वर यंत्र, श्वास नली और फुफ्फुस1. मुख तथा नासिका मार्ग
वायु फुफ्फुसों तक या तो मुख से या नासिक मार्ग से होकर जा सकती है। वास्तव में वायु के भीतर जाने के लिए नासिका मार्ग ही है। नासिका मार्ग मुड़ा हुआ है और उस पर श्लैष्मक कला का आवरण चढ़ा रहता है, जो एक लसलसा और चिपचिपा पदार्थ उत्पन्न करती है, जैसे रुधिर में जीवाणुओं को ग्रसित कर लेने वाले कण पाए जाते हैं, उसी तरह इस पदार्थ में भी वे कण पाए जाते हैं। ये जीवाणुओं को ग्रसित कर लेते हैं और वायु को शुद्ध कर देते हैं। जैसे ही वायु इस मार्ग से होकर गुजरती है, वह नासिका की रक्त कोशिकाओं के सम्पर्क में आती हैं उसमें नमी आ जाती है और उसका तापक्रम शरीर के तापक्रम के बराबर हो जाता है। नासिका मार्ग पर बाल भी उगे रहते हैं, जिससे भीतर जाने वाली वायु छनकर जाती है। यदि कोई अस्वाभाविक वस्तु नासारन्ध्रों में पहुंच जाती है तो श्लैष्मिक कला के उत्तेजित होने से छींकें आने लगती है जिससे वह वस्तु बाहर निकल जाती है। परन्तु मुख से श्वास लेने पर यह सब नहीं हो पाता। यह स्पष्ट है जो लोग लगातार मुख से श्वास लेते हैं वे नाक से श्वास लेने वालों की अपेक्षा गले के रोग से अधिक और सरलता से शिकार हो जाते हैं। इसलिए नासिका से श्वास लेना बड़ा लाभदायक और महत्वपूर्ण है और उसकी आदत बचपन से ही डालनी चाहिए। कुछ बालकों की मुँह से श्वास लेने की बुरी आदत को सुधारा जा सकता है और कुछ में यह आदत नासिका में किसी त्रुटि का लक्षण है जिसका सावधानी से उपचार होना चाहिए।2. स्वर तंत्र
नासिका या मुंह से ली गई श्वास जिह्ना की जड़ से पीछे स्थित ग्रसनी गुहा से होती हुई स्वर यंत्र में जाती है। स्वर यंत्र श्वास नली के ऊपरी सिर पर स्थित है। स्वर यंत्र में वायु जाने के रास्ते के घाटी द्वार पर उपास्थित का बना हुआ एक ढक्कन जो काकमुख कहलाता है, खाने की चीजों को श्वास नली में जाने से रोकता है। साधारणतः काकमुख सीधा रहता है, जिससे कि वायु आसानी से स्वर यंत्र में प्रवेश कर सके। लेकिन कोई वस्तु खाते समय वह ऊपर की ओर खिंच जाता है और स्वर यंत्र का मार्ग बन्द कर देता है ताकि भोजन या पानी आदि स्वर यंत्र में न जाये। स्वर यंत्र में स्वर-रज्जु स्थित होती है जिनके स्पन्दन में मूल स्वर जन्म लेते हैं, यह मुख्यतः उपास्थि के तत्वों से बने होते हैं, पहली उपस्थि उभरी हुई होती है, जिनके सामने वाले भाग को टेंटुआ या ‘एडम्स एपल’’ कहते हैं, जिसको कि पुरुषों में बाहर से छूकर मालूम किया जा सकता है।3. श्वास नली
वायु, स्वर यंत्र के बाद नीचे स्थित, श्वास नली में आ जाती है। जिसकी लम्बाई लगभग 5 इंच होती है। यह सौत्रिक धातु और सूक्ति से अंगे्रजी अक्षर C के आकार के छल्लों से बनी होती है। पीछे की तरफ छल्ले एक कला से पूर्ण होते हैं। जब अन्न नली भोजन ग्रसने के समय फूलती है तो श्वास नली सिकुड़ जाती है और उसे फूलने का स्थान देती है। श्वास नली में श्लैष्मिक कला की परत बिछी होती है और उसके कुछ कोषों के रस से तर रहती है। इस कला की भीतरी तह में बालों की तरह सूक्ष्म तन्तु निकले होते हैं जिन्हें सीलिया कहते हैं। सीलिया लगातार सक्रिय हैं और यदि श्वास के साथ धूल का कोई कण चला जाता है तो उसे अलग करने का काम करते हैं। श्वास नली गर्दन में होती हुई वक्ष में जाती है, यहाँ वह दायी और बायीं दो वायु उपनलियों में विभाजित हो जाती है। एक एक वायु उपनली प्रत्येक फुफ्फुस को जाती है। श्वास नली की शाखाएँ फुफ्फुसों में प्रवेश करने के पश्चात फिर अनेक शाखाओं में विभक्त होती है। ये नलिकाएँ कहलाती है। इनकी फिर शाखाएँ होती है, फिर शाखाओं से शाखाएँ निकलती चली जाती है।अन्त में ये उपनलिकाएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती है, कि उनमें कोई शक्ति नहीं रहती है, ये केवल सौत्रिक धातु की सूक्ष्म नलिकाएँ होती हैं। अंत में ये उपनलिकाएं कोष्ठिका बनाती है। इस तरह फुफफुस में लाखों छोटे-छोटे वायु के कोष वायु उपनलिकाओं से सम्बन्धित हैं। प्रत्येक वायु कोष का बाहर की वायु उपनलिकाओं द्वारा सम्पर्क होता है। यहाँ ही गैसों में परिवर्तन और रक्त की शुद्धि होती है। फुफ्फुस केवल वायु कोषों के समूह का नाम है।
4. फुफ्फुस
वक्ष के दोनों ओर स्थित फुफ्फुस श्वसन के प्रधान अवयव हैं, ये वायुरोधक गर्त में स्थित होते हैं जो कि सामने की तरफ पर्शुकाएँ, पर्शुकान्तर पेशियों तथा उपरोस्थि से पीछे की ओर पर्शुकाओं तथा मेरूदण्ड से नीचे की ओर डायफ्राम से बना है। डायफ्राम का रंग भूरा होता है और देखने में स्पंज की तरह लचीला होता है। फुफ्फुसों की रक्षा एक कला द्वारा होती है, जिसे फुफ्फुसावरण कहते हैं, यह पर्शुकाओं की आन्तरिक सतह को भी आच्छादित किए हुए हैं। कला की दो परतों के बीच के स्थान को फुफ्फुस गुहा कहते हैं। फुफ्फुस गर्त में पानी भर जाने से ही प्लूरसी नाम का रोग हो जाता है।फुफ्फुस की आतंरिक रचना |
प्रत्येक वायु प्रणली के साथ-साथ फुफ्फुसीय धमनी की सूक्ष्म शाखाएँ, रक्त कोशिकाएँ होती है। इनमें अशुद्ध रक्त फुफ्फुसों की शुद्धि के लिए आता है। जब रक्त इनमें से होकर बहता है तो रक्त और वायु कोषों की वायु में केवल कोशिकाओं की भझ्ाि और वायु कोषों की भत्ति की अवरूद्धता होती है। दोनों की भित्तियाँ सूक्ष्म दर्शनीय होती हैं। इसी से वायु कोषों की वायु में पायी जाने वाली आक्सीजन गैस लाल रक्त कण में पाए जाने वाले हेमोग्लोबिन के शक्तिशाली आकर्षण के कारण छनकर रक्त में आ जाना असम्भव हो जाता है। इसी प्रकार कार्बन-डाई-आक्साइड रक्त से छनकर आसानी से वायु नलिकाओं में चली जाती है।
कोशिकाओं में आक्सीजन आ जाने से रक्त की शुद्धि हो जाती है और नीले के स्थान पर लाल चमकीला हो जाता है ये कोशिकाएँ संयुक्त होकर फुफ्फुसीय शिराएँ बन जाती है। ये शिराएँ आक्सीजन मिश्रित शुद्ध रक्त को हृदय के बाएँ भाग में ले जाती है, जहाँ से रक्त सारे शरीर में संचालित कर दिया जाता है।
मनुष्य में श्वसन क्रिया का वर्णन
जिस समय नासिका से श्वास लिया जाता है उस समय बाºय वातावरण से वायु नासिका एवं नासिका गुहा में प्रवेश करती है। नासिका में गुहा में उपस्थित सूक्ष्म रोम केशों का जाल धूल एवं धुंए के कणों को छान देता है। यहां पर उपस्थित संवेदी नाड़ियां वायु की गन्ध का ज्ञान मस्तिश्क को करती है। यहां से आगे यह वायु ग्रसनी में पहुंच जाती है। ग्रसनी में उपस्थित कण्ठच्छद (Epiglottis) अन्न नलिका के द्वार को बन्द कर देता है जिससे यह वायु स्वर यन्त्र से होती हुई ेश्वास नलिका में चली जाती है। श्वास नलिका में रोमिकाएं पायी जाती है तथा यहां पर श्लेष्मा ग्रन्थियां श्लेष्मा का स्रावण करती रहती है।
इसके परिणामस्वरूप वायु के साथ आए धूल, धुंए, सूक्ष्म जीव आदि इस नलिका में चिपक जाते हैं। श्वास नलिका से वायु क्रमश: दाहिने एवं बाएं फेफड़ों में भर जाती है। श्वास नलिका से श्वसनी एवं श्वसनी से श्वसनिकाओं में होती हुई यह वायु आगे चलकर वायु कोषों में भर जाती है। वायु भरने के कारण ये वायुकोष फूल जाते हैं। ये वायुकोष एककोशीय दीवारों के बने होते हैं तथा इन वायुकोषों के मध्य रक्तवाहिनीयों का घना जाल उपस्थित होता है। इन रक्तवाहिनीयों में हृदय से आया कार्बन डाई आक्साइड की अधिकता युक्त अशुद्ध रक्त भरा होता है। इस प्रकार यहां वायुकोषों एवं रक्त वाहिनीयों के मध्य गैसों का आदान प्रदान होता है।
गैसों के आदान-प्रदान के परिणामस्वरूप बाºय वायु मण्डल की आक्सीजन रक्तवाहिनीयों में चली जाती है एवं रक्त वाहिनीयों में उपस्थित कार्बन डाई आक्साइड वायु कोषों में भर जाती है। तत्पश्चात वाुयकोषों से कार्बनडाई आक्साइड श्वसनिकाओं में, श्वसनिकाओं से श्वसनी में, श्वसनी से श्वासनलिका में, श्वासनलिका से स्वर यन्त्र, ग्रसनी से होती हुई नासिका के माध्यम से बाºय वायुमण्डल में भेज दी जाती है, श्वसन की यह क्रिया नि:श्वसन कहलाती है।
इस क्रिया पर कुछ काल तक ऎच्छिक नियंत्रण सम्भव होता है, किन्तु शरीर की कोशिकाओं में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा बढने पर श्वास लेने के लिये बाय होना पडता है। मनुष्य में श्वसन क्रिया का नियन्त्रण मस्तिष्क में स्थित मेड्यूला नामक स्थान से होता है। शरीर की विभिन्न अवस्थाओं में यह केन्द्र श्वसन दर को कम एवं अधिक बनाता हैं। शरीर के अधिक क्रियाशील होने पर श्वसन दर बढ जाती है जबकि शरीर द्वारा कार्य नही करने की दषा में श्वसन दर कम हो जाती है। कठिन श्रम की अवस्था में भी श्वसन दर बढ़ जाती है।
वायु की धारिता - एक मनुष्य द्वारा प्रत्येक श्वास में जिस मात्रा में वायु ग्रहण की जाती है तथा प्रश्वास में जिस मात्रा में वायु छोड़ी जाती है इस मात्रा की नाप वायु धारिता कहलाती है। इसे नापने के लिए स्पाइरोमीटर (Spirometer) नामक यंत्र का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य की वायु धारिता के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का वर्णन इस प्रकार है-
बाºय जीवाणु अथवा रोगाणु से संक्रमण की अवस्था में जब शरीर का तापक्रम बढ जाता है तब ऐसी अवस्था में श्वसन दर बढ जाती है। पहाड़ों में ऊँचे स्थानों पर जाने पर अथवा आक्सीजन की कमी वाले स्थानों पर जाने पर श्वसन दर बढ जाती है। क्रोध, भय एवं मानसिक तनाव आदि विपरित अवस्थओं में श्वसन दर त्रीव हो जाती है। इसके विपरित सहज एवं सकारात्मक परिस्थितियों में श्वसन दर कम एवं श्वास की गहराई बढ जाती है।
श्वसन दर त्रीव होने पर फेफडे़ तेजी से कार्य करते हैं किन्तु इस अवस्था में फेफड़ों का कम भाग ही सक्रिय हो पाता है, जबकि लम्बी एवं गहरी श्वसन क्रिया में फेफडों का अधिकतम भाग सक्रिय होता है जिससे फेफड़ें स्वस्थ बनते हैं।
- प्राण वायु (Tidal volume) - वायु की वह मात्रा जो सामान्य श्वास में ली जाती है तथा सामान्य प्रश्वास में छोड़ी जाती है प्राण वायु कहलाती है। यह मात्रा 500उस होती है। यह मात्रा स्त्री और पुरुष दोनों में समान होती है
- प्रश्वसित आरक्षित आयतन (Inspiratory Reserve Volume) - सामान्य श्वास लेने के उपरान्त भीे वायु की वह मात्रा जो अतिरिक्त रूप से ग्रहण की जा सकती है। प्रश्वसित आरक्षित आयतन कहलाती है। वायु की यह मात्रा 3300 उस होती है।
- निश्वसित आरक्षित आयतन (Expiratory Reserve Volume) - सामान्य प्रश्वास छोड़ने के उपरान्त भी वायु की वह मात्रा जो अतिरिक्त रूप से बाहर छोड़ी जा सकती है, निश्वसित आरक्षित आयतन कहलाती है। वायु की यह मात्रा 1000 उस होती है।
- अवशिष्ट आयतन (Residual Volume) - हम फेफड़ों को पूर्ण रूप से वायु से रिक्त नहीं कर सकते अपितु गहरे प्रश्वास के उपरान्त भी वायु की कुछ मात्रा फेफड़ों में शेष रह जाती है, वायु की यह मात्रा अवशिष्ट आयतन कहलाती है। वायु की इस मात्रा का आयतन 1200 उस होता है।
- फेफड़ों की प्राणभूत वायु क्षमता (Vital Capcity) - गहरे श्वास में ली गयी वायु तथा गहरे प्रश्वास में छोड़ी गयी वायु का आयतन फेफड़ों की प्राणभूत वायु क्षमता कहलाती है। वायु की यह मात्रा 4800 उस होती है।
- फेफड़ों की कुल वायु धारिता (Total lung capacity) - फेफड़ों द्वारा अधिकतम वायु ग्रहण करने की क्षमता फेफड़ों की कुल वायु धारिता कहलाती है। वायु की यह मात्रा 6000 उस होती है।
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