मुस्लिम लीग की स्थापना कब हुई इसके गठन के उद्देश्य क्या थे ?

आधुनिक भारत के इतिहास की सियासी राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाली मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 ई. में हुई। इसकी आवश्यकता को मौलवी मुसताक हुसैन ने 30 दिसम्बर 1906 को ढाका में स्पष्ट किया। इसका उद्देश्य भारतीय मुसलमानों में ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा की भावना पैदा करना और सरकार द्वारा उठाये गये कदमों के अभिप्राय के बारे में पैदा हुई भ्रान्त धारणाओं को दूर करना; भारतीय मुसलमानों के राजनैतिक एवं अन्य अधिकारों की रक्षा करना, उनकी आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को नम्र भाषा में सरकार के सामने पेश करना एवं इन उद्देश्यों को हानि पहुँचाये बिना जहाँ तक सम्भव हो, मुसलमानों और दूसरी जातियों के बीच मित्रता के भाव को पैदा करना था। इस संस्था की व्याख्या हकीम अजमल खान (1863-28), मौलाना जफर अली (1873-1953), अब्दुल्ला ( 1874 - 1965 ); और मौलाना मोहम्मद अली ने किया और इसका समर्थन किया। 

इसकी नींव में देश के विभिन्न भागों के जिन मुस्लिम नेताओं का उल्लेख मिलता है, उनमें एच.एच. आगा सर सुल्तान मुहम्मद शाह आगा खान, बम्बई; शाहजादा बख्तियार शाह, मैसूर परिवार के मुखिया ( कलकत्ता, बंगाल); मलिक उमर हयात खान, पंजाब खान बहादुर मियां मुहम्मद शाहदीन, बैरिस्टर, लाहौर, पंजाब, सैयद सफीउद्दीन, बैरिस्टर पटना; खान बहादुर सैयद नवाब अली चौधरी, मेमन सिंह ( पश्चिम बंगाल); नवाब बहादुर सैयद अमीर हसन खान (कलकत्ता बंगाल); जनाब नासिर हुसैन खान ख्याल, कलकत्ता; खान बहादुर मिर्जा शुजाद अली बेग, कलकत्ता, सैयद अली इमाम बैरिस्टर, पटना; नवाब सरफराज हुसैन खान, पटना; खान बहादुर अहमद मुहिउद्दीन खान, कर्नाटक परिवार, मद्रास, मौलवी रफीउद्दीन अहमद, अधिवक्ता, बम्बई; इब्राहिम भाई आजम जी पीर भाई, बम्बई; अब्दुर रहीम, अधिवक्ता, कलकत्ता; सैयद अलदाद शाह खैरपुर, सिन्ध, मौलाना एच. एच. मलिक, नागपुर, (मध्य प्रान्त); मसीरूद्दौला मुमताज उल मुल्क खान बहादुर खलीफा सैयद मु. हुसैन, पटना; खान बहादुर अब्दुल मजीद खान, विदेश मंत्री, पटियाला (पंजाब); खान बहादुर ख्वाजा युसूफ शाह, अमृतसर ( पंजाब ); मियां मुहम्मद शफी, बैरिस्टर, पंजाब शेख गुलाम सादिक, अमृतसर, हकीम मुहम्मद अजमल खान देहली, पंजाब, मुंशी एहतिशाम अली, काकोरी अवध; नवाब सैयद सरदार अली, हैदराबाद, ढाका, सैयद नबीउल्लाह, बैरिस्टर, कड़ा जिला इलाहाबाद, संयुक्त प्रान्त मौलवी सैयद करामत हुसैन, बैरिस्टर इलाहाबाद, संयुक्त प्रान्त; सैयद अब्दुर रउफ, बैरिस्टर, इलाहाबाद, संयुक्त प्रान्त; मुंशी अब्दुलसलाल, रामपुर, संयुक्त प्रान्त; खान बहादुर मुहम्मद अजीमुल्ला खान, अलीगढ़, संयुक्त प्रान्त; हाजी मुहम्मद इस्माइल खान, अलीगढ़, संयुक्त प्रान्त; शाहबजादा आफताब अहमद खान, बैरिस्टर अलीगढ़, संयुक्त प्रान्त; मौलवी मुस्ताक हुसैन, अमरोहा, संयुक्त प्रान्त; मौलवी हबीबुर रहमान खान, भीखमपुर, संयुक्त प्रान्त; मौलवी सैयद मेंहदी अली खान मोहसिन उल मुल्क, संयुक्त प्रान्त का नाम उल्लेखनीय है। स्पष्ट है कि इसकी स्थापना में संयुक्त प्रान्त के प्रतिनिधियों का विशेष योगदान रहा।

22 मार्च, 1913 को लखनऊ अधिवेशन में अखिल भारतीय मुसलिम लीग ने अपना नया संविधान अंगीकृत किया। इसी समय मुहम्मद अली तथा सैयद वजीर हुसैन ने जिन्ना को मुस्लिम लीग में सम्मिलित होने के लिए राजी कर लिया। लीग का संविधान बनाने के लिए एक 'प्रान्तीय कमेटी का गठन किया गया जिसमें 56 सदस्य शामिल थे और विकार-उल-मुल्क तथा मोहसिन -उल-मुल्क इस कमेटी के संयुक्त सचिव थे और चार महीने के भीतर मुस्लिम प्रतिनिधियों द्वारा बनाये गये संविधान का अनुमोदन करा लेने की बात कही गयी। अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का पहला सत्र दिसम्बर 20-30, 1907 को करांची में बुलाया गया। पूरे देश के प्रतिनिधियों ने इसमें भाग लिया। इसकी अध्यक्षता सर आदम जी पीर भाई (1845-1913 ) ने किया जो तुम्बई के एक मशहूर व्यापारी थे। इन्होंने भारत में मुस्लिम लीग के भारी स्वागत पर प्रसन्नता प्रकट किया और मुसलमानों से आग्रह किया कि अहंकार, ईर्ष्या और व्यक्तिगत शत्रुता को छोड़ने की और कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करने की एक नये आन्दोलन के लिए, जिससे इसे एक विशाल आकार का बनाया जा सके। इसी सत्र में मुस्लिम लीग का संविधान अंतिम रूप से स्वीकार कर लिया गया लेकिन कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं को अनछुए रहने दिया गया जिसके लिए एक विशेष मीटिंग मुस्लिम लीग की मार्च 18-19, 1908 को अलीगढ़ के नवाब मुजमीलुल्लाह खान" के निवास पर बुलायी गयी जिसकी अध्यक्षता न्यायाधीश मुहम्मद शाहदीन ने किया। इस मीटिंग में यह मांग की गयी कि देश के दोनों हाईकोर्ट और मुख्य कोर्ट में एक-एक मुस्लिम न्यायाधीश को नियुक्त किया जाये। साथ ही पब्लिक सर्विस की विभिन्न शाखाओं में पर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधि एक समुदाय के रूप में और इम्पीरियल, व प्रान्तीय विधान परिषदों और नगर पालिका और स्थानीय निकायों में पूरे भारत में नियुक्त किया जाये। इसी सत्र में आगा खां मुस्लिम लीग के स्थायी राष्ट्रपति चुने गये, नवाब विकायरूल-उल-मुल्क, जो कि लीग के सचिव थे, ने यागपत्र दे दिया क्योंकि इन्होंने एम. ए. ओ. कॉलेज के सचिव का पद ग्रहण कर लिया था। अब मोहसिन - उल मुल्क की जगह मेजर सैयद हसन बिलग्रामी, जो कि इमादुल मुल्क सैयद बिलग्रामी के छोटे भाई थे और हाजी मुहम्मद मूशा खान, जिन्होंने अलीगढ़ आन्दोलन के समर्थक, लीग के सचिव और खिलाफत आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया, को संयुक्त रूप से सचिव नियुक्त किया गया।

इसके विकास पर दृष्टि केन्द्रित करने पर हमें ज्ञात होता है कि मुस्लिम लीग का प्रभाव विस्तार दिन दूनी और रात चौगुनी से होना प्रारम्भ हुआ। इसी परिप्रेक्ष्य में नवाब विकार-उल-मुल्क ने ढाका से लौटने के पश्चात् मुस्लिम लीग की एक शाखा की स्थापना संयुक्त प्रान्त में 1907 में किया और मुस्लिम लीग के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कई मीटिंगों का आयोजन भी किया और राजा नौशाद अली, हाजी रिजाउद्दीन अहमद और मुहम्मद अली और अन्य लोगों ने भी विकार-उल-मुल्क को अपना सहयोग प्रदान किया। इन सबके प्रयासों से मुस्लिम लीग की एक शाखा 'अलीगढ़' में स्थापित की गयी। राजा नौशाद अली खान इस प्रान्तीय लीग के सचिव थे और 26-27 जनवरी 1908 को प्रान्तीय लीग की एक मीटिंग बुलाई गयी, जिनमें लीग के अन्य सदस्य मनोनीत किये गये, वे सदस्य निम्न हैं-
  1. बैरिस्टर अब्दुल मजीज - राष्ट्रपति
  2. राजा सिबा अली - उपराष्ट्रपति
  3. अब्दुल रउफ - उपराष्ट्रपति
  4. मुंशी एहतेशाम अली - उपराष्ट्रपति
  5. राजा नौशाद अली खान- सचिव
  6. सैयद जहूर अहमद - संयुक्त सचिव
  7. अजहर अली - सहायक सचिव सहायक सचिव
  8. सम्पादक - शौकत अली
  9. सैयद अवत अली
इस प्रान्तीय लीग की शक्तियाँ सामूहिक रूप से मुस्लिम नेताओं के हाथों में समाहित थीं। मुस्लिम नेताओं द्वारा यह महसूस किया गया कि यदि मुसलमानों के लिए कुछ भी वास्तविकता में प्राप्त करना है, तो यह जरूरी है कि इंग्लैण्ड के पक्ष में जनमत बनाना चाहिए। लीग की एक शाखा इंग्लैण्ड में खोलने का विचार किया गया और समय भी बहुत उपयुक्त था क्योंकि अवकाश प्राप्त सैयद अमीर अली और सैयद हुसैन बिलग्रामी इंग्लैण्ड में भारतीय कौंसिल के सदस्य के रूप में उपस्थित थे और 6 मई 1908 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की शाखा का उद्घाटन सेक्सटन हॉल में इंग्लैण्ड के गण्यमान भारतीय मुसलमान, जो उस समय इंग्लैण्ड में रह रहे थे, की उपस्थिति में किया गया।

मुस्लिम लीग के गठन के उद्देश्य 

इस संगठन को स्थापित करने के लिए अंग्रेजो ने ही कुछ सांप्रदायिक मुसलमानों को उकसाया था। इस संगठन के उद्देश्य निर्धारित किये गये-
  1. भारत के मुसलमानों की अंग्रेजी सरकार के प्रति राजभक्ति में वृद्धि करना।
  2. मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र दिये जाए।
  3. सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को उचित अनुपात में नियुक्त किया जाये।
  4. मुस्लिम संस्थाओं की स्थापना में सरकारी अनुदान प्राप्त हो।
  5. नगरपालिकाओं में सांप्रदायिक निर्वाचन की प्रथा जारी की जाये।
  6. सुधार के बाद बने विधान मण्डल में उनकी आबादी से अधिक स्थान दिये जाये।
  7. हर हाईकोर्ट में और चीफकोर्ट में मुसलमान जजो को भी नियुक्त किया जाये।
  8. मुसलमानों के राजनीतिक व अन्य अधिकारों की रक्षा करना।
लीग की इस शाखा के अध्यक्ष सैयद अमीर अली ने उद्घाटन भाषण में कहा कि मुसलमान प्रजाजन की ब्रिटिश साम्राज्य के महानगर में यह पहली बैठक है और अब भारत में महान् बदलाव हो गये और मुस्लिम समुदाय जागरूक हो गया है इस तथ्य के प्रति कि उसके आदर्शों की प्राप्ति और उनकी अधिकारों की मान्यता संयुक्त परिश्रम पर ही निर्भर करती है। उन्होंने बल पूर्वक कहा कि मुसलमानों के अपने विशिष्ट हित हैं और अपने आदर्शों की प्राप्ति अपने संगठन के अलावा अन्य किसी संगठन में नहीं प्राप्त कर पायेंगे।

लीग का दूसरा वार्षिक सत्र 1908 ई. में अमृतसर में बुलाया गया । इस अधिवेशन की अध्यक्षता सर अली अहमद इमाम ( 1869-1932) ने किया ।" अपने अध्यक्षीय भाषण में इमाम साहब ने राष्ट्रीयता, स्वभाव और धर्म के आधार पर मुसलमानों के ऐतिहासिक अलगाव का विस्तृत उल्लेख किया और साथ ही कांग्रेस को मुसलमानों के एक स्वतंत्र अखिल भारतीय संगठन के जन्म के लिए उत्तरदायी ठहराया और यह बतलाया कि कांग्रेस के प्रति मुसलमानों का दृष्टिकोण उन्हीं बातों पर आधारित था जिन्हें 21 वर्ष पहले सर सैयद अहमद ने अपने स्मरणीय भाषण में गिनाया था।" सर इमाम ने पृथक् निर्वाचन के विरुद्ध कांग्रेसी दलीलों की कमजोरी बतलाते हुए कहा - " वह ( अपृथकतावादी) यह भूल जाता है कि भारत के मुसलमानों की धार्मिक, सामाजिक और जातीय विशेषताएँ हैं और भारत जैसे देश में, जो प्रतिनिधि संस्थाओं के मामले में अभी एक नवजात शिशु की तरह है, दुर्भाग्यवश चुनाव साम्प्रदायिक भावना के आधार पर होते हैं, व्यक्तिगत गुणों या अवगुणों की पहचान पर नहीं तो मेरा यह मत है कि कौंसिल की सीटों में मुसलमानों के लिए न्यायपूर्ण और आरक्षण के बिना अल्पसंख्यक जनसंख्या और राजनीतिक महत्व के आधार पर पूर्ण और उपयुक्त सुधारों से मुसलमानों में गहरा असंतोष पैदा होगा। दोनों समुदायों के बीच सम्बन्धों को पुनः राजनीतिक समायोजन ही इन्हें वर्षों और पीढ़ियों तक चलने वाले उस तीव्र आत्मघातक संघर्ष के खतरों से बचा सकता है जिसका स्पष्ट संकेत वर्तमान दृष्टिकोण में है ।" साथ ही कांग्रेस पर अराजगता का अरोप लगाते हुए इमाम साहब कहते हैं 'स्वायत्त शासन का विचार कितना ही ऊँचा क्यों न हो, इसने क्या बेचैनी नहीं फैलायी और इस बेचैनी से क्या आदर्शवादियों के कदम नहीं डगमगाए और क्या अराजकता नहीं फैली ? क्या बम और गोले नहीं चले? क्या गुप्त समितियाँ नहीं बनी और क्या हत्याएँ नहीं हुई हैं? यह सत्र भारत सरकार के संशोधन प्रस्ताव के वजह से काफी महत्वपूर्ण था। अतः लीग ने अपनी पूरी शक्ति अलग निर्वाचन प्राप्त करने में लगा दी। इसको भारतीय जनमानस में शंका की दृष्टि से देखा गया और इसे साम्प्रदायिक और देशभक्त विहीन घोषित किया गया। कलकत्ता के मैग्जीन डान ने मुसलमानों की शिक्षा सम्बन्धी एवम् राजनैतिक गतिविधियों को इस्लाम के राजनैतिक प्रभुत्व की स्थापना को पूर्व आधार के रूप में देखा और द बंगाली और पंजाबी ने भी डान के पक्ष का समर्थन करते हुए यह आरोप लगाया कि इस्लामिक स्वराज्य की स्थापना होगी और जिसका केन्द्र लंदन में होगा। ऐसी निराधार कल्पनाओं का फौरन खण्डन किया गया और मौलाना मोहम्मद ने यह विश्वास दिलाया कि भारतीय मुसलमानों की अभिलाषाएँ किसी भी स्वस्थ समुदाय की ही भाँति हैं जो कि इच्छुक हैं कि विश्व की विशाल मानसिक विरासत को बांटने में, देशभक्त भारतीयों की भांति रहनेमें और राष्ट्रीयता के लिए कार्य करने में, जिसका कि वे भी एक भाग हैं

मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद पूरे देश में एक विरोधाभास कि वे मुसलमान पहले हैं और भारतीय बाद में, जिसे समाचारपत्रों ने भी काफी हद तक प्रोत्साहित किया, मुस्लिम लीग को एक साम्प्रदायिक संगठन के रूप में देखा गया और मान लिया गया कि जो मुसलमान इसे समर्थन दे रहे हैं, वे पहले मुसलमान हैं और उनकी भारत के प्रति या यहाँ के लोगों के प्रति कोई लगाव नहीं है। मुस्लिम प्रेस ने इसको बिल्कुल साफ कर दिया और दृढ़ता-पूर्वक कहा कि आर्थिक और राजनैतिक समस्यायें आपस में इस प्रकार उलझी हुई हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता यहाँ तक कि राजनैतिक प्रश्न को भी आर्थिक दृष्टि से देखा जाये तो हम पाते हैं कि वे उतनी ही अति आवश्यक मुसलमानों के लिए है जितना कि हिन्दुओं के लिए। यह हमारी आर्थिक और राजनैतिक स्थिति है और हम सबको भारतीय बनाती है और जहाँ तक हमें अपना वास्तविक जीवन जीना है हम लोग पहले भारतीय और बाद में मुसलमान हैं । "
हिन्दू और मुसलमानों के मध्य करीबी सहयोग को भविष्य में देश की समृद्धि और राजनैतिक सर्वसम्मति के लिए अति आवश्यक माना गया। जहाँ भी लीग ने एकता के लिए हाथ बढ़ाया वहाँ दोनों में वर्तमान रिश्ते प्रगाढ़ होंगे। महबूब आलम पारसी अखबार के सम्पादक ने लिखा 'यह जरूरी नहीं कि हिन्दू और मुसलमानराजी हों सभी विचारणीय बिन्दुओं पर अपने धर्म को लेकर नैतिक, सामाजिक और राजनैतिक अवस्थाओं को लेकर दोस्त बनने के लिए... एक प्रकार के पारस्परिक समझ पर पहुँचा जा सकता है यदि कुछ निश्चित संघर्ष के बिन्दुओं को दूर कर दिया जाये... जब तक एक अच्छी समझ नहीं बनायी जाती राजनैतिक प्रश्नों के अलावा कई अन्य बातों में तब तक यह मुमकिन नहीं होगा... इस खाई को संतोषजनक ढंग से पाट पाना । और सुझाव दिया कि एक सम्मेलन बुलाया जा सकता है जिसमें चर्चा की जाए उन बिन्दुओं की जो दोनों में अलगाव पैदा करते हैं जैसे राज्य सरकार की सेवाओं में 'उर्दू' और 'देवनागरी लिपि' को लेकर विवाद के विषय पर चर्चा होनी चाहिए। उनके लिए उनके स्वधर्मी 700 वर्षों तक भारत में रहने के बाद वे उतने ही स्थानीय निवासी हैं जितने इस देश के हिन्दू धर्म मानने वाले
'द मुसलमान' ने यह लिखा कि यह महान् संतोष की बात है कि मुसलमानों ने हिन्दू - मुस्लिम एकता के प्रश्न को बहुत ही गम्भीरता और उत्साह से लिया है। साथ ही इस तरफ भी इशारा किया कि मुसलमान हमेशा से अपने पड़ोसियों के साथ स्नेह भाव और मित्रता से रहने को तैयार थे।" लायलपुर में खेती करने वालों की सभा में उपस्थित सभी मुसलमानों ने यह कसम खायी कि अपने त्यौहारों पर अब गाय नहीं काटेंगे और साथ ही हिन्दू और सिक्खों ने भी यह वादा किया कि वे भी कभी मुसलमानों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचायेंगे।” साथ ही पेपर ने सुझाव दिया कि अब हर समुदाय झुकेगा समझौते के तहत तो एक-दूसरे की अप्रिय बातें खुद खत्म हो जायेंगी और आपसी सामंजस्य कायम होगा। 

'द पंजाबी' ने इसी तरह का मत प्रकट किया और कहा कि मुस्लिम लीग के कार्यक्रम कुछ भी हों पर ढाका के नवाब और स्वर्गीय सर सैयद अहमद खाँ के आदर्श हिदू-मुस्लिम एकता में ही भारत का अन्तिम मोक्ष निहित है। इसने विश्वास के साथ कहा कि इसी एकता से एंग्लो-इण्डियन की मतलबपरस्त नीतियों को हराया जा सकता है और इसी तरह की एकता से विदेशियों को भारत के एक समुदाय को दूसरे समुदाय के विरुद्ध खेल को रोका जा सकता है। "

लखनऊ में 'हिन्दू-मुस्लिम समस्या' पर एक व्याख्यान में श्रीमान गोखले ने इसीप्रकार का विचार प्रकट किया और उन डरों का उल्लेख करते हुए मुसलमानों को राजनीति से दूर रहने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि भविष्य में भारत के विकास का आधार धार्मिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय होगा। साथ ही मोहसिन -उल-मुल्क ने भी दोनों समुदायों से एकता और मिलजुल कर साथ रहने को कहा कि वह दिन बीत गये कि जब भारत पश्चिमी सभ्यता से अनभिज्ञ था और हिन्दू और मुसलमान इस तरह से एक हों कि सिर्फ धर्म को छोड़ दें तो किसी भी तरह का वैमनस्य या द्वेष नहीं था और दोनों एक दूसरे को प्यार करते थे और साथ ही पश्चिमी शिक्षा को जिम्मेदार ठहराया जिससे 'जातिगत शत्रुता' और साम्प्रदायिक बोध के लिए। उन्होंने अनुरोध किया हिन्दू और मुसलमाना दोनों से कि भारत की किसी भी समस्या का यहाँ के लोगों को साम्प्रदायिक नजर से देखना त्याग दें 

मुस्लिम लीग की स्थापना में संयुक्त प्रान्त का विशेष योगदान रहा। स्थापना पश्चात् संयुक्त प्रान्त में लामबंधी की 1937 तक की रणनीतियों पर हम दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध के तत्काल बाद मुस्लिम समुदाय पूर्णतः रूपान्तरण की प्रक्रिया में था । उदारवादी नेतृत्व परोक्ष में हो गया था और उग्रवादी नेतृत्व के प्रति मुस्लिम जनता में प्रभाव बढ़ रहा था, यहाँ तक कि मुस्लिम लीग भी उनके प्रभाव से बच नहीं पा रही थी। 1916 के लखनऊ अधिवेशन में उनके लक्ष्य को पुनः परिभाषित किया गया। दिसम्बर 1919 में हुए आगरा अधिवेशन में इस पर बल दिया गया तथा इसे स्वराज्य के कांग्रेस के लक्ष्य के साथ लगभग जोड़ दिया गया। इस अधिवेशन में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सर इब्राहिम रहमतउल्लाह ने कहा भारत जैसा कोई भी देश अब विदेशी शासन के अधीन नहीं रह सकता, चाहे विदेशी शासन कितना भी लाभप्रद क्यों न हो। हालांकि ब्रिटिश शासन लाभदायक था और उदारता पर आधारित था फिर भी यह शासन सदैव बना नहीं रह सकता। भारत हमारी मातृभूमि है, हमारी गौरवपूर्ण धरोहर है और इसे हमारे संरक्षकों द्वारा हमें अंततः सौपना ही होगा । विश्व युद्ध ने इन गतिविधियों चरम सीमा तक पहुंचा दिया इस सम्बन्ध में सबसे अधिक प्रेरणादायी स्थिति थी विश्व युद्ध में तुर्की का प्रवेश और उसका धुरी शक्तियों का साथ देना। इससे स्पष्ट रूप से ब्रिटेन के साथ उसका सीधा टकराव हो गया। भारतीय मुसलमानों का तुर्की के साथ भावात्मक लगाव होने के कारण मुस्लिम समुदाय पर गंभीर संकट उत्पन्न हो गया।

ब्रिटिश सरकार ने स्थिति की गंभीरता और मुस्लिमों में अव्यक्त बेचैनी को महसूस किया। मुस्लिमों की आशंकाओं को दूर करने के लिए उन्होंने घोषणा की कि ब्रिटेन युद्ध जनित प्रभावों विरूद्ध जैसे अरबियों, मेसोपोटामियां तथा जेद्दा के पवित्र स्थलों की पवित्रता की रक्षा सुनिश्चित करेगा ।" यह भी संकेत दिया गया कि ब्रिटेन तुर्की को विखंडित या नष्ट नहीं करना चाहता बल्कि उसे तो धुरी राष्ट्रों के व्यापक विरोध नीति के तहत तुर्की सशस्त्र युद्ध के लिए मजबूर होना पड़ा है । 

इसने मुस्लिमों की आशंकाओं को कुछ हद तक शान्त किया और नरमपंथी नेताओं ने मुस्लिमों को संतुष्ट करने में पहल ही नहीं की वरन् ब्रिटिश प्रयत्नों को गतिशील करने में भी मदद की। आल इण्डिया मुस्लिम लीग कौंसिल और उसकी लंदन शाखा ने भारतीय मुसलमानों की ब्रिटिश राज के प्रति अटूट निष्ठा एवं सच्चे समर्पण का इजहार किया और वाइसराय को आश्वासन दिया कि तुर्की के युद्ध में शामिल होने से भारतीय मुस्लिमों की निष्ठा को प्रभावित नहीं करेगा। आगा खाँ और अब्बास अली बेग ने मिस्र का दौरा किया और वहां सुरक्षा में तैनात मुस्लिम सैनिकों की नाराजगी को दूर करने की कोशिश की, उन्हें इस्लाम का आदेश याद दिलवाया कि यह उनका कर्तव्य है कि जिस सरकार की छत्रछाया में उन्हें पूरी धार्मिक आजादी प्राप्त है, उस सरकार के प्रति समर्पित रहे.... अमीर अली ने भी जनता को सम्बोधित करते हुए ब्रिटिशों की समता और न्यायप्रणाली का गुणगान किया और मुसलमान सैनिकों को हर क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने का आवाहन किया। अलीगढ़ कालेज के सचिव हाजी मुहम्मद ईशाक ने ब्रिटिश सरकार को हार्दिक सहयोग देने का संदेश तार द्वारा भेजा ।" रावलपिण्डी में हुए 28वें मुस्लिम शैक्षिक सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में हाजी मुहम्मद बख्श 27 ने ब्रिटिश राज के प्रति मुस्लिमों की निष्ठा का आश्वासन दिया।
25 दिसम्बर 1916 दिसम्बर को कांग्रेस और लीग के नेता युद्ध के बाद सुधार योजना, विभिन्न प्रान्तों का प्रतिनिधित्व और हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धी अन्य विषयों पर संवाद करने के लिए एकत्रित हुए। यह तीन दिन चला और इस संयुक्त सम्मेलन के परिणाम अपने गर्भ में अनन्त क्षमता लिए हिन्दू-मुसलमानों के बीच भाई-चारा पनपा जो नये युग के जन्म का संकेत था ।" उनके प्रस्ताव जो बाद में वायसराय को स्मरण पत्र रूप में भेजे जाने वाले थे दोनों समुदायों के लोक जीवन से जुड़े प्रमुख हस्तियों द्वारा हस्ताक्षरित थे ।

स्मरणपत्र में कहा गया - 'इस संकट की घड़ी में भारत के लोगों ने अपने बीच के तथा अपने और सरकार के बीच के मतभेदों को समाप्त कर दिया है और ईमानदारी व वफादारीपूर्वक साम्राज्य के साथ हैं। भारतीय सैनिक यूरोप के युद्ध में भारतीय सैनिक ब्रिटिश साम्राज्य, जिसे उनकी सेवाओं की आवश्यकता है, को आजाद नागरिकों की तरह न कि भाड़े के सैनिकों की तरह जाने के उत्सुक हैं और उसके नागरिक इस आवश्यकता की घड़ी में इंग्लैण्ड का साथ देने की इच्छा से अनुप्राणित हैं, भारत अपनी वफादारी के लिए कोई इनाम नहीं मांगता है। लेकिन उसको यह उम्मीद करने का अधिकार है कि विश्वास की कमी जो वर्तमान स्थिति का कारण बनती है अब बीती बात हो जानी चाहिए और भारत को मातहत का नहीं, सहयोगी का दर्जा प्राप्त हो तथा भारत के लोगों को विश्वास दिलाया जाये कि इंग्लैण्ड उन्हें ब्रिटिश क्राउन के अभिरक्षण में स्वराज्य प्राप्त करने में मदद को इच्छुक व तैयार हैं और यह उसके उस महान उद्देश्य की पूर्ति भी होगी जिसे उसने बहुत बार अपने शासकों व नेताओं की स्वैच्छिक अभिव्यक्तियों द्वारा व्यक्त और स्वीकार किया है। केवल अच्छी सरकार और सक्षम प्रशासन की ही आवश्यकता नहीं है बल्कि जरूरत है उस सरकार की जो लोगों को स्वीकार हो क्योंकि वह उनके प्रति उत्तरदायी होगी। यह वह कदम होगा जिससे भारत को बदले परिदृश्य का अहसास होगा।

अगर युद्ध के बाद भी भारत की स्थिति व्यवहारिक रूप से वही बनी रहती है जो पहले थी और कोई खास बदलाव नहीं आता तो निश्चय ही यह देश के अंदर भयंकर निराशा और बड़े असंतोष का कारण बनेगा और आम खतरों से निपटने में मिले जुले प्रयासों में हितकारी प्रभाव, बिना अपनी छाप छोड़े, शीघ्र ही समाप्त हो जायेंगे और अधूरी उम्मीदों की दुःख भरी दास्तान के सिवा कुछ बाकी नहीं रहेगा। हमें विश्वास है कि सरकार स्थिति के प्रति सजग है और देश के प्रशासन में सुधार के लिए कार्य करने की सोच रही है। हम महसूस करते हैं कि इस अवसर का प्रयोग हम सरकार को अपने विनम्र सुझाव देने के लिए करें, जिसके अनुसार सुधार आगे बढ़ सके। हमारे विचार से उन्हें समस्या की जड़ तक पहुँचना चाहिए और उद्विग्न करने वाली बाधाओं जैसे कि हथियार रखना, फौजी सेवाओं में पद आदि को दूर करना चाहिए जो जनता में उनके विश्वास की कमी का प्रतीक है।" उन्होंने मांग की -
1. समस्त प्रान्तीय तथा केन्द्रीय कार्यकारी कौसिलों में आधे सदस्य भारतीय होने चाहिए और कार्यकारी कौंसिल में भी यूरोप के जो लोग हों, उनको इंग्लैण्ड के लोक जीवन के शिक्षित प्रशिक्षित वर्ग में से नामित किया जाना चाहिए।
2. भारत की विधानसभाओं में चुने हुए प्रतिनिधियों का बहुमत होना चाहिए।
3. सर्वोच्च सभा में 150 से कम एवं बड़ी प्रान्तीय सभाओं में 100 से ( 60-70 तक छोटी में ) कम नहीं होना चाहिए।
4. बजट को आर्थिक बिल की तरह से पास होना चाहिए भारत की आर्थिक स्वायत्ता को स्वीकारना चाहिए।
केन्द्रीय विधानसभा को भारत के प्रशासन से सम्बन्धित सभी विषयों पर तथा प्रान्तीय विधान सभाओं को प्रान्त के सभी विषयों पर विधान बनाने, बहस करने व प्रस्ताव पास करने का अधिकार होना चाहिए ।
6. भारत के सेक्रेटरी आफ स्टेट की सभा समाप्त कर दी जाय ।
7. प्रान्तीय सरकार को स्वाधीन कर दिया जाये और स्थानीय निकायों को तुरन्त पूर्ण अधिकार दे दिया जाये।

इस प्रकार लखनऊ में कांग्रेस और लीग के प्रतिनिधियों के संयुक्त अधिवेशन की दृष्टि से दिसम्बर का अंतिम सप्ताह अत्यंत व्यस्त रहा। संयुक्त सम्मेलन हुए सार्वजनिक हित के विषयों पर अध्ययन हुआ, योजना में प्रस्तावित हुई, बदली और अन्ततोगत्वा उन पर सहमति हुई। अन्त में दोनों संस्थाओं की साल के अंत में, अपने-अपने अधिवेशनों के लिए बैठक हुई। कांग्रेस की अध्यक्षता अम्बिका चरण मजूमदार ने और मुस्लिम लीग की अध्यक्षता एम. ए. जिन्ना ने की समझौते में कहा गया कि अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के लिए चुनाव द्वारा समुचित व्यवस्था की जाय और प्रान्तीय सभाओं में मुसलमानों को विशेष निर्वाचन पद्धति द्वारा निम्नलिखित अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाय -

पंजाब    निर्वाचित भारतीय सदस्यों का            50%
संयुक्त   प्रान्त निर्वाचित भारतीय सदस्यों का     30%
बंगाल    निर्वाचित भारतीय सदस्यों का             40%
बिहार    निर्वाचित भारतीय सदस्यों का             25%
सी.पी.   निर्वाचित भारतीय सदस्यों का             15%
मद्रास   निर्वाचित भारतीय सदस्यों का             15%
बम्बई    निर्वाचित भारतीय सदस्यों का            33 1/3 %

पैक्ट में यह भी व्यवस्था थी कि केन्द्रीय विधानसभा के समस्त निर्वाचित सदस्यों की 1/3 संख्या में मुसलमान हो जो पृथक् मुस्लिम मतदाताओं द्वारा निर्वाचित हो जैसा कि सात प्रान्तों में अनुपात के हिसाब से प्रान्तीय विधान सभाओं में पृथक मुस्लिम मतदाताओं द्वारा चुना जाता है।

दिसम्बर 1919 में पुनः एक सम्मेलन लखनऊ में हुआ, जिसकी अध्यक्षता इब्राहिम हारून जफर ने की। इस सम्मेलन में 'एक अखिल भारतीय खिलाफत समिति' की स्थापना की गयी। इस समिति के अध्यक्ष बम्बई के सेठ छोटानी को और मंत्री शौकत अली बनाये गये

दिसम्बर 1918 में मुस्लिम लीग और कांग्रेस की बैठक एक साथ हुई। लीग की स्वागत समिति के अध्यक्ष डॉ. अंसारी थे। उन्होंने मुस्लिम राष्ट्रों की अखंडता और स्वाधीनता बनाए रखने और 'जजीरत - उल - अरब' ( अरब प्रदेश ) को जिनके अंतर्गत इस्लाम के पवित्र स्थल खलीफा को लौटा देने की मांग की। हकीम अजमल खां ने कांग्रेस की स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपने भाषण में डॉ. अंसारी के विचारों को दुहराया और मुसलमानों की मांगों का समर्थन करने के लिए गांधी के प्रति मुसलमानों की कृतज्ञता प्रकट की।

1921 तक सम्पूर्ण भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा खिलाफत एवं असहयोग आंदोलन पूरे वेग से प्रसारित हुआ । समय-समय पर विभिन्न स्थानों में प्रसिद्ध नेताओं की अध्यक्षता में हुए अनेक खिलाफत सम्मेलनों में मुसलमानों और उनके समर्थकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी । मुसलमान इस्लाम के नाम पर आवश्यकता पड़ने पर जान देने या जेल जाने को तैयार थे । " 26 फरवरी 1921 को मौलाना शौकत अली ने लखनऊ में भाषण देते हुए कहा कि हमारी आवाज ईश्वर की आवाज हैं। ... हम स्वराज प्राप्त करके रहेंगे।” इस प्रकार 1921 तक खिलाफत आंदोलन सम्पूर्ण भारत में तीव्र गति से चलता रहा।

5 फरवरी 1922 को संयुक्त प्रान्त के गोरखपुर जिले चौरीचौरा स्थान से कांग्रेस और खिलाफत कमेटी ने एक जुलूस निकाला। पुलिस ने भीड़ पर गोली चला दिया। इस पर समूचे जुलूस ने पुलिस पर हमला कर दिया और जब पुलिस कर्मी थाने में घुस गये तो क्रुद्ध भीड़ ने थाने में आग लगा दिया। कुछ पुलिस कर्मियों ने बचने की कोशिश की इनके टुकड़े-टुकड़े करके आग में फेंक दिये गये। कुल मिलाकर एक थानेदार और 21 पुलिसकर्मी सहित 22 लोग मारे गये। इस घटना के बारे में पता लगने के बाद गांधी जी ने आंदोलन वापस लेने का निर्णय कर लिया। उन्होंने अपने निर्णय के समर्थन के लिए कांग्रेस वर्किंग कमेटी को भी राजी कर लिया। इस प्रकार 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन समाप्त हो गया। सभी प्रमुख नेता जो इस समय तक जेलों में बन्द थे, गांधी के इस निर्णय से असहमत हुए थे ।

मुस्लिम लीग 1920-1923 तक निष्क्रिय हालत में ही दिखायी पड़ती है। 1920 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मुहम्मद अली जिन्ना जैसे व्यक्ति असहयोग आंदोलन को लेकर असहमत होने के कारण मुस्लिम लीग ने अपने को इन आंदोलनों से धीरे-धीरे दूर रहना शुरू किया और वह निष्क्रिय ही पड़ी रही । 1920 के बाद लीग मोटे तौर पर निष्क्रिय ही बनी रही। 1927 में इसकी कुल सदस्यता 1330 थी। 1931 से 1933 के बीच इसका वार्षिक व्यय 3,000 रुपये से अधिक नहीं था। मुस्लिम लीग कौंसिल में निर्णय बहुत थोड़े से लोग लेते थे। 310 सदस्यों में कोरम सिर्फ 10 का ही था। चूँकि लीग का केन्द्रीय कार्यालय दिल्ली में था इसलिये प्रान्तों के अधिकांश लीग सदस्य इसकी बैठकों में भाग नहीं ले पाते थे । "

लीग की अपीलों का भी कोई असर नहीं होता था। इसकी वजह यह थी कि इसके सदस्य सामाजिक रूप से रूढ़िवादी थे। धन, सामाजिक हैसियत और शिक्षा के ही आधार पर लोगों को लीग में शामिल किया जाता था। 1924 से 1926 के बीच पारित किये गये 144 प्रस्तावों में से सिर्फ 7 प्रस्ताव ऐसे थे जो सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से सम्बन्धित थे। अन्तिम बार 1928 में इन मुद्दों पर बहस हुई थी ।" लीग ने कभी भी अखिल भारतीय स्तर पर चुनाव नहीं लड़ा था। 12 मुस्लिम बहुल प्रान्तों में भी इसका समर्थन संदिग्ध ही था। यह सिर्फ मुसलमानों को कुछ मुद्दों जैसे नौकरियों एवं धारा सभाओं में प्रतिनिधित्व पर ही अखिल भारतीय स्तर पर गोलबन्द कर सकती थी। और जब 1932 में एक बार कम्यूनल आवार्ड के माध्यम से ये मुद्दे हल हो गये तब लीग के लिये प्रान्तों के मुसलमानों को देने के लिये कुछ भी नहीं बचा। 

इस बीच राजनैतिक परिस्थितियों के चलते ऐसा वातावरण बन गया था जिससे हिन्दू-मुस्लिम समस्या जटिल हो गयी। इन परिस्थितियों में गांधी ने कुछ न करने में अपनी बुद्धिमानी समझी। अपने इस धर्म संकट भरे निर्णय को स्पष्ट करते हुए 7 मार्च 1924 को मद्रास की सार्वजनिक सभा में उन्होंने कहा कि 'फिलहाल मैंने इस समस्या को छोड़ दिया है परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि मुझे इसके समझने की कोई आशा नहीं रही है। जब तक मुझे इसका कोई हल नहीं मिलता तब तक मेरा मस्तिष्क इस समस्या पर विचार करता ही रहेगा। किन्तु मुझे यह बात स्वीकार करनी ही होगी कि मैं कोई ऐसा व्यवहार्य परिणाम जिसकी आप आशा करते हैं, फिलहाल प्रस्तुत नहीं कर सकता ।"

जनवरी 1925 में दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन हुआ था। जिसमें दोनों समुदायों के बीच अनेक मतभेद प्रकट हुए। गांधी के सुझाव पर एक समिति का गठन किया गया। इस समिति का कार्य ऐसे सुझाव देना था । जिससे राजनैतिक दलों में एकता बनी रहे तथा विधानसभाओं में दोनों सम्प्रदायों की प्रतिनिधित्व की योजना भी तैयार हो । किन्तु यह समिति अपने इस कार्य में असफल रही और कोई भी समझौता नहीं हो सका। गांधी जी ने स्पष्ट किया था कि संदेह की स्थिति में ऐसी योजना का बनाना असम्भव था जिसे संयुक्त योजना कहा जा सके 15 - दिसम्बर 1925 में मुस्लिम लीग का अधिवेशन अब्दुर्रहीम" की अध्यक्षता में अलीगढ़ में हुआ । अपने अध्यक्षीय भाषण में अब्दुर्रहीम ने साम्प्रदायिक फूट का दोष हिन्दुओं पर दिया और बल देते हुए कहा कि  हिन्दुओं के प्रभाव से मुसलमानों के हितों की रक्षा करना आवश्यक है ।" इतना ही नहीं अब्दुर्रहीम ने यह कहा कि कुछ हिन्दू नेताओं ने तो यहाँ तक कहा कि जैसे स्पेन के लोगों ने मुसलमानों को स्पेन से निकाल भगाया था, उसी प्रकार भारत से मुसलमानों को निकाल भगाना चाहिए मुस्लिम लीग के इस अधिवेशन में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये
  1. उत्तरदायी सरकार की योजना तैयार करने के लिए तुरन्त एक रायल कमीशन नियुक्त किया जाय।
  2. अल्पसंख्यक जातियों के अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाये जायें।
  3. सभी विधान निर्मात्री सभा में अल्पसंख्यक लोगों के उपयुक्त प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया जाय।"
मुस्लिम लीग के 1930 के अधिवेशन में अध्यक्ष पद से जिन्ना ने भाषण दिया, उसका हिन्दुओं ने परिहास किया और वह मुसलमानों में भी उत्साह भरने में नाकाम रहा मगर वह जिन्ना की विभाजन योजना का आरम्भ था, उस योजना का जिसका खाका जिन्ना ने लाहौर में सन् 1940 में पेश किया था। उस वर्ष इलाहाबाद में लीग के वार्षिक अधिवेशन में भाषण करते हुए उर्दू के प्रसिद्ध शायर सर मुहम्मद इकबाल ने कहा 'यूरोप इस नतीजे पर पहुंचा है कि धर्म मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है और उसका सांसारिक कार्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस्लाम में ख़ुदा और दुनिया, रूह और भौतिक पदार्थ, राज्य और धार्मिक संस्थायें एक दूसरे के अभिन्न अंग है। भारत एक महाद्वीप है जिसमें विभिन्न जातियाँ निवास करती हैं जो अलग-अलग भाषाएं बोलती हैं और जिनके धार्मिक मत भी पृथक्-पृथक् हैं। उनका व्यवहार समान जाति चेतना के वशीभूत निश्चित नहीं होता है। यहाँ तक कि हिन्दू भी एकतत्व समुदाय नहीं है इसलिए मुसलमानों की भारत के अन्दर एक मुस्लिम भारत की मांग पूर्ण रूप से न्यायपूर्ण है। मैं चाहता हूँ कि पंजाब, उत्तर - पश्चिमी सीमा प्रान्त, सिन्ध और बिलोचिस्तान के सूबे मिलाकर एक राज्य बना दिया जाये कम से कम उत्तरी पश्चिमी भारतीय मुसलमानों के लिए अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत या उसके बाहर स्वराज्य दे देना ही उत्तर-पश्चिमी भारतीय मुस्लिम राज्य का निश्चित भविष्य मुझे मालूम पड़ता है । "

1930 में साम्प्रदायिक समस्या का विवाद स्थल भारत से हटाकर लंदन के गोलमेज सम्मेलन हो गया। 12 नवम्बर 1930 को सम्राट जार्ज पंचम ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन का उद्घाटन किया 2 कांग्रेस ने इस सभा में भाग न लेने का निर्णय लिया परन्तु मुस्लिम लीग के श्री जिन्ना तथा श्री मुहम्मद अली बैठक में भाग लिये। सम्मेलन में ब्रिटिश भारत और भारतीय राज्यों द्वारा मिलकर एक संघीय सरकार की स्थापना का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत किया गया। श्री जिन्ना ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा- 'जब तक आप अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की ऐसी भावना न उत्पन्न कर देंगे, जिससे वे स्वेच्छा से राष्ट्र के साथ सहयोग करें और उनके वफादार बन जाये, तब तक आप जो भी संविधान बनायेंगे, वह सफल नहीं हो सकेगा ।" इस प्रकार से मुस्लिम लीग और कांग्रेस प्रथम गोलमेज सभा के प्रश्न पर एक दूसरे का साथ देने में असफल रहे। ब्रिटिश शासन तंत्र का मुस्लिम वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिए मुस्लिम लीग ने स्पष्ट रूप से कांग्रेस के आंदोलन से अपने को पृथक् कर लिया।"

प्रथम गोलमेज सम्मेलन असफल सिद्ध हुआ । प्रथम गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति पर मुसलमानों का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को मुसलमानों की आकांक्षाओं की अपेक्षा हिन्दुओं की आकांक्षाओं का अधिक ध्यान है।

जनवरी 1931 को अधिवेशन की समाप्ति पर रैम्जे मैक्डोनाल्ड के भाषण पर मुसलमानों ने अपना रोष प्रकट किया और कहा कि यह मुस्लिम समुदाय की अनुचित उपेक्षा थी ।"

अक्टूबर 1932 को लखनऊ में सर्वदलीय मुस्लिम सम्मेलन हुआ, जिसमें मुस्लिम प्रतिनिधित्व को लेकर जिन्ना द्वारा प्रस्तुत 14 सूत्रों में से 13 सूत्रों की स्वीकृति के आधार पर अबुल कलाम आजाद ने विभिन्न समुदायों में समझौता करवाने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ किया। इस अधिवेशन में जिन्ना के तेरह सूत्र मान लिये गये लेकिन कई मुस्लिम संगठनों ने राष्ट्रीय प्रयासों का कड़ा विरोध किया। फजले हुसैन, अखिल भारतीय मुस्लिम कान्फ्रेंस के अध्यक्ष इकबाल और कई प्रसिद्ध मुसलमानों ने एक वक्तव्य पर हस्ताक्षर किये, जिसमें कहा गया कि 'हमारे विचार से पृथक् और संयुक्त निर्वाचनों के प्रश्नों को दुबारा छेड़ना असामायिक है। हमें विश्वास है कि वर्तमान समय में हमारा समुदाय इस आरक्षण को त्यागने के लिए तैयार नहीं है । 

3 नवम्बर 1932 में लखनऊ कान्फ्रेंस की समिति और हिन्दू सिख नेताओं के प्रयास से सभी समुदायों का एकता सम्मेलन आल पार्टी कांफ्रेंस इलाहाबाद में हुआ। जिसमें समझौते के प्रस्ताव पर विचार हेतु एक समिति नियुक्त की गयी जिसने समझौते का प्रारूप तैयार किया। एकता काफ्रेंस के दिसम्बर में हुए दो अधिवेशनों में समझौते का प्रारूप तैयार किया गया। लेकिन आल इण्डिया मुस्लिम कान्फ्रेंस के व्यवस्थापकों ने इलाहाबाद एकता सम्मेलन समिति के प्रस्तावों का अनुमोदन नहीं किया। फजले हुसैन ने 20 नवम्बर 1932 को दिल्ली में एक संयुक्त सभा बुलायी, जिसमें अखिल भारतीय मुस्लिम कान्फ्रेंस की कार्य समिति के सदस्य मुस्लिम लीग के काउन्सिल के सदस्य और जमीअत-उल-उलेमा, कानपुर के सदस्य उपस्थित थे। इस सभा में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किया गया “सभी भ्रान्तियों को दूर करने के लिए यह सभा इस बात को बिल्कुल स्पष्ट करना चाहती है कि कोई भी साम्प्रदायिक समझौता चाहे वह किसी ने भी किया हो, साधारण मस्लिम समुदाय को मान्य नहीं होगा, यदि उसमें मुस्लिम कान्फ्रेंस के 1 जनवरी 1929 के प्रस्ताव, जिन्हें अप्रैल 1931 के प्रस्ताव में और विस्तार से लिखा गया है, पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं की गई 1958 जिन्ना की अपनी स्थिति स्वयं भारतीय राजनीति में सुरक्षित नहीं महसूस हो रही थी। कांग्रेस ब्रिटिश सरकार एवं स्वयं लीगियों द्वारा उपेक्षित महसूस करने पर वह 1931 में लंदन चले गये ।" 

1934 के पश्चात् का काल मुस्लिम लीग के पुनर्गठन का काल रहा। मुस्लिम लीग के राष्ट्रीय अध्यक्ष जो राजनीतिक निष्क्रियता के कारण लन्दन चले गये थे यू.पी. के प्रमुख लीगी नेता लियाकत अली के बुलाने पर वापस लौट आये ।" इस समय जिन्ना ने लीग को पुनर्गठित करना प्रारम्भ किया। इस समय तक लीग की सदस्य संख्या बहुत कम हो गयी थी। जब इकबाल की अध्यक्षता में लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में 75 सदस्यों का कोरम (न्यूनतम संख्या) भी पूरा न हो सका । लीग के वार्षिक सम्मेलन निजी मकानों में हुआ करते थे और उपस्थिति बहुत कम होती थी। बहुत से सदस्य 5 रुप्या वार्षिक चंदा भी नहीं देते थे, इसलिए इसे घटाकर एक रुपया कर दिया गया था। जिन्ना ने मुस्लिम लीग के आधारभूत सिद्धान्तों को इस समय निश्चित किया। 7 फरवरी 1935 में उन्होंने केन्द्रीय विधान सभा में भाषण दिया, जिसमें अपने मंतव्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने संयुक्त पार्लियामेंट्री समिति की रिपोर्ट में जो उसमें से मुस्लिम लीग का प्रतिनिधित्व वाले प्रावधानों को अच्छा समझा, परन्तु केवल उस समय तक के लिए जब भारतीय लोग इस विषय का स्वयं हल न कर लें। इसके अलावा जिन्ना ने 1935 के भारतीय संविधान के फेडरल संघ का और प्रान्तीय सरकार दोनों का पूर्ण विरोध किया और कांग्रेस के प्रतिनिधियों से भी अधिक प्रबल और कठोर भाषा का उपयोग करके 1935 के अधिनियम को अस्वीकार कर दिया । "

अंग्रेजो की छात्रछाया में मुस्लिम लीग रूपी वृक्ष दीन पेदीन वृद्धी करता चला गया। लार्ड मिंटो ने मुसलमानो की मांगो को उचित ठहराया और उनके द्वारा प्रस्तुत की गई मांगो को यथासंभव मानने का भी वादा किया। मुस्लिम लीग अपनी पृथकतावादी नीति पर दृढ़ता के साथ अडिग थी। लीग ने अपनी ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी को बनाये रखा और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रवाह को बाधा पहुंचाने का अपना कार्य जारी रखा। संक्षेप में यह कहा जा सकता है, की मुस्लिम लीग कांग्रेस की विरोधी संस्था थी।

1908 में मुस्लिम लीग का अधीवेशन अमृतसर में सर सैयद अली इमाम के सभापतित्व में हुआ। इसमें मुसलमानों ने अपनी आबादी से अधिक स्थान विधान मण्डलो में दिये जाने की मांग की 1909 और 1910 में हुये सम्मेलन में भी यह मांगे दोहरायी गयी। लार्ड मिन्टो कांग्रेस की प्रतिद्वंदी संस्था चाहते थे और उनकी यह कूटनीति सफल हुई, इसी कुटनीति को आगे बढ़ाते हुए लार्ड मिण्टो ने मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग को मान लिया। इस तरह इतिहास में पहली बार सांप्रदायिकता को अंग्रेजी सरकार द्वारा खुला समर्थन व प्रोत्साहन दिया गया।

मुस्लिम लीग फूट

हिन्दु मुस्लिम एकता के मसले पर विचार करने के लिए मार्च 1927 को मुस्लिम नेताओं ने दिल्ली में एक सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में मुस्लिमों के गहरे मतभेद सामने आए। ये मतभेद इतने गहरे हो चुके थे कि मुस्लिम लीग दो गुटो में विभाजित हो गई। एक गुट मि. जन्ना के नेतृत्व में कार्य करने की योजना बनाने लगा। दूसरा गुट मोहम्मद शफी के नेतृत्व में कार्यों की योजना तैयार करने लगा। दोनों गुट एक दूसरे का भरसक विरोध कर रहे थे। जहां एक और जिन्ना के गुट ने साइमन कमीशन का विरोध व नेहरू रिपोर्ट का सहयोग करने का फैसला किया। वही दूसरी और शफी के गुट ने साइमन कमीशन का सहयोग व नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया।

इस तरह लीग में पड़ी यह फुट जारी रही लेकिन कुछ ही वर्षो में अखिल भारतीय कोर्ट के मुस्लिम नेता फजल हुसैन अजमल खां, मुहम्मद शफी डाॅ. अन्सारी तथा मोहम्मद अली परलोक सिधार गये। जिसका भरपुर फायदा जिन्ना ने उठाया अब पुरी तरह से उन्होंने मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभाल लिया। लंदन से आने के बाद 1928 में जिन्ना ने कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिया और नेहरू रिपोर्ट को संशोधित करने के लिए अपनी और से 3 सुझाव दिए।
  1. केन्द्रीय विधानमण्डल में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 1/3 होना चाहिए।
  2. पंजाब एवं बंगाल में 10 वर्ष के लिए जनसंख्या के आधार पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  3. अवशेष शक्तियां केन्द्र के स्थान पर प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं में अवस्थित होना चाहिए। चूंकि जिन्ना के सुझाव न्यायसंगत नहीं थे, इसलिए उन्हें स्वीकृत नहीं किया गया। इससे जिन्ना बहुत आहात हुये और उन्होंने इसे मुस्लिमो का अपमान भी समझा।
सन्दर्भ :
1 मतीउर रहमान; फ्राम कन्सलटेशन टू कान्फ्रानटेशन ए स्टडी ऑफ मुस्लिम लीग इन ब्रिटिश इण्डिया पॉलिटिक्स, 1906-1922, पृ. 6.
2. मतीउर रहमान; फ्राम कन्सलटेशन टू कान्फ्रानटेशन ए स्टडी ऑफ
3. मुस्लिम लीग इन ब्रिटिश इण्डिया पॉलिटिक्स, 1906-1922, पृ. 42. तुफैल अहमद ; मुसलमानों का रोशन मुस्तकबिल, पृ. 363-64.
4. पीरजादा, एस.एस.; फाउण्डेशन, पृ. 18.

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