निजी वस्तुओं का अर्थ
निजी वस्तुओं का तात्पर्य ऐसी वस्तुओं से होता है जिसका उत्पादन तथा उपभोग निजी तौर पर किया जा सके। निजी वस्तुओं की व्यवस्था में बाजार तंत्र निपुणता के साथ कार्य करता हैं। निजी वस्तुओं के उपभोग
हेतु मूल्य का भुगतान करना पड़ता है।
निजी वस्तुओं की विशेषताएं
निजी वस्तुओं की विशेषताएं निम्न हैं -
1. निजी वस्तुओ का उपभोग प्रतियोगी होता है तथा एक व्यक्ति द्वारा निजी वस्तु के उपभोग का प्रभाव अन्य व्यक्तियों के लिये उस वस्तु की उपयोगिता तथा उपलब्धता पर इस प्रकार से पड़ता है कि उस वस्तु द्वारा प्रदत्त होने वाले लाभ की मात्रा में कमी आ जाती है। उदाहरण हेतु किसी कालोनी में किसी फ्लैट को किसी व्यक्ति द्वारा क्रय कर लेने से अन्य व्यक्तियो के लिये फ्लैट की उपलब्धता में कमी आ जाती है।
2. निजी वस्तुओं के लिये वर्जन एवं उपभोक्ता की पृथकता का सिद्धान्त लागू होता है। इसके सिद्धान्त के अनुसार वही व्यक्ति निजी वस्तु का उपभोग कर पाते है जिन्होने उस वस्तु के बाजार मूल्य का भुगतान किया हो। भुगतान न कर पाने वाले व्यक्ति निजी वस्तु के उपभोग से वंचित रह जाते है।
3. निजी वस्तुओ के उपभोक्ता का अधिमान स्वतः एवं स्वायत रूप से अभिव्यक्त होता है। ऽ निजी वस्तुयें विभाज्य होती हैं तथा उनके द्वारा उत्पन्न लाभ निजी व्यक्तियों तक ही सीमित रहते है। निजी वस्तुयें केवल उसे क्रय करने वाले उपभोक्ता तक ही सीमित रहती है। कुल मिलाकर निजी वस्तु का उद्देश्य व्यक्तिगत हितों की आपूर्ति तक ही सीमित रहता है।
4, निजी वस्तु द्वारा लाभ सामान्यतया आंतरिक होते है एवं उसी व्यक्ति तक सीमित रहते है जोकि निजी वस्तु हेतु भुगतान करता है।
5. अधिकांश निजी वस्तुओं की व्यवस्था बाजार तंत्र के माध्यम् से होती है यानि निजी वस्तुओं का आबंटन बाजार व्यवस्था के माध्यम से होता है। बाजार तंत्र तथा कीमत तंत्र निजी वस्तुओं के सन्दर्भ में सामान्यतया निपुणता से कार्य करते हैं। निजी वस्तुओं का सामान्यतया उत्पादन निजी क्षेत्र में होता है परन्तु भारत जैसे विकासशील देशों में जहाॅ कि अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है निजी वस्तुओं का उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र में भी होता है। यद्यपि उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया के तीव्र होने से भारत में भी अधिकांश वस्तुओं के उत्पादन में बाजार तथा निजी क्षेत्र मुख्य भूमिका निभाने लगे हैं।
सैमुल्शन द्वारा सार्वजनिक वस्तुओं की अवधारणा का प्रतिपादन किया है। उनके द्वारा 1959 में प्रकाशित ‘‘लोक व्यय की अवधारणा के शुद्ध सिद्धान्त’’ लेख में सार्वजनिक वस्तुओं की दो प्रमुख विशेषतायें उजागर की गयी, यह विशेषतायें उपयोग में गैर प्रतियोगी एवं गैर वर्जनीय होता है। जहाँ पर यह दोनों विशेषतायें पूर्ण होती हैं ऐसे वस्तु को शुद्ध सार्वजनिक वस्तु कहते हैं। सैमुल्शन द्वारा पुनः सार्वजनिक वस्तुओं को परिभाषित करते हुये इनको ‘‘सामूहिक उपभोग की वस्तु’’ के रूप में निर्धारित किया।
सार्वजनिक वस्तुओं के सामान्य उदाहरणों में रक्षा, प्रकाश स्तम्भ, स्ट्रीट लाईटिंग, पुल, पार्क, स्वच्छ वायु, पर्यावरणीय वस्तु एवं सूचना वस्तु आती है। सूचना वस्तु के अन्तर्गत अविष्कार एवं नवप्रर्वतन, तकनीकी विकास, लेखन आदि आते है। सूचना वस्तु से लाभ प्राप्ति हेतु कोई भी भुगतान नहीं देना चाहता है क्योंकि इस पर वर्जन का सिद्धान्त लागू नहीं होता है तथा इसकी पुनरोत्पादन की लागत लगभग शून्य होती है।
1. निजी वस्तुओ का उपभोग प्रतियोगी होता है तथा एक व्यक्ति द्वारा निजी वस्तु के उपभोग का प्रभाव अन्य व्यक्तियों के लिये उस वस्तु की उपयोगिता तथा उपलब्धता पर इस प्रकार से पड़ता है कि उस वस्तु द्वारा प्रदत्त होने वाले लाभ की मात्रा में कमी आ जाती है। उदाहरण हेतु किसी कालोनी में किसी फ्लैट को किसी व्यक्ति द्वारा क्रय कर लेने से अन्य व्यक्तियो के लिये फ्लैट की उपलब्धता में कमी आ जाती है।
2. निजी वस्तुओं के लिये वर्जन एवं उपभोक्ता की पृथकता का सिद्धान्त लागू होता है। इसके सिद्धान्त के अनुसार वही व्यक्ति निजी वस्तु का उपभोग कर पाते है जिन्होने उस वस्तु के बाजार मूल्य का भुगतान किया हो। भुगतान न कर पाने वाले व्यक्ति निजी वस्तु के उपभोग से वंचित रह जाते है।
3. निजी वस्तुओ के उपभोक्ता का अधिमान स्वतः एवं स्वायत रूप से अभिव्यक्त होता है। ऽ निजी वस्तुयें विभाज्य होती हैं तथा उनके द्वारा उत्पन्न लाभ निजी व्यक्तियों तक ही सीमित रहते है। निजी वस्तुयें केवल उसे क्रय करने वाले उपभोक्ता तक ही सीमित रहती है। कुल मिलाकर निजी वस्तु का उद्देश्य व्यक्तिगत हितों की आपूर्ति तक ही सीमित रहता है।
4, निजी वस्तु द्वारा लाभ सामान्यतया आंतरिक होते है एवं उसी व्यक्ति तक सीमित रहते है जोकि निजी वस्तु हेतु भुगतान करता है।
5. अधिकांश निजी वस्तुओं की व्यवस्था बाजार तंत्र के माध्यम् से होती है यानि निजी वस्तुओं का आबंटन बाजार व्यवस्था के माध्यम से होता है। बाजार तंत्र तथा कीमत तंत्र निजी वस्तुओं के सन्दर्भ में सामान्यतया निपुणता से कार्य करते हैं। निजी वस्तुओं का सामान्यतया उत्पादन निजी क्षेत्र में होता है परन्तु भारत जैसे विकासशील देशों में जहाॅ कि अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है निजी वस्तुओं का उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र में भी होता है। यद्यपि उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया के तीव्र होने से भारत में भी अधिकांश वस्तुओं के उत्पादन में बाजार तथा निजी क्षेत्र मुख्य भूमिका निभाने लगे हैं।
सार्वजनिक वस्तुओं का अर्थ
सार्वजनिक वस्तुयें वह होती हैं जिनका उत्पादन करने से वाह्य लाभ तथा बचतों का सृजन होता है तथा इनका उपयोग सामूहिक रूप से किया जाता है। यह वस्तुयें उपभोग में गैर प्रतियोगी होती है तथा इन वस्तुओं के सन्दर्भ में उपभोक्ता की पृथकता एवं वर्णन का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। सार्वजनिक वस्तुओं के उत्पादन का मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना है। सार्वजनिक वस्तुओं का आबंटन सामान्यतया राजकोषीय एवं बजट नीतियों के माध्यम् से किया जाता है।सैमुल्शन द्वारा सार्वजनिक वस्तुओं की अवधारणा का प्रतिपादन किया है। उनके द्वारा 1959 में प्रकाशित ‘‘लोक व्यय की अवधारणा के शुद्ध सिद्धान्त’’ लेख में सार्वजनिक वस्तुओं की दो प्रमुख विशेषतायें उजागर की गयी, यह विशेषतायें उपयोग में गैर प्रतियोगी एवं गैर वर्जनीय होता है। जहाँ पर यह दोनों विशेषतायें पूर्ण होती हैं ऐसे वस्तु को शुद्ध सार्वजनिक वस्तु कहते हैं। सैमुल्शन द्वारा पुनः सार्वजनिक वस्तुओं को परिभाषित करते हुये इनको ‘‘सामूहिक उपभोग की वस्तु’’ के रूप में निर्धारित किया।
सार्वजनिक वस्तुओं के सामान्य उदाहरणों में रक्षा, प्रकाश स्तम्भ, स्ट्रीट लाईटिंग, पुल, पार्क, स्वच्छ वायु, पर्यावरणीय वस्तु एवं सूचना वस्तु आती है। सूचना वस्तु के अन्तर्गत अविष्कार एवं नवप्रर्वतन, तकनीकी विकास, लेखन आदि आते है। सूचना वस्तु से लाभ प्राप्ति हेतु कोई भी भुगतान नहीं देना चाहता है क्योंकि इस पर वर्जन का सिद्धान्त लागू नहीं होता है तथा इसकी पुनरोत्पादन की लागत लगभग शून्य होती है।
सार्वजनिक वस्तुओं की विशेषताएं
सार्वजनिक वस्तुओं हेतु उपरोक्त वर्णित नियम तथा सिद्धान्तों से सार्वजनिक वस्तुओं की निम्न विशेषतायें उभरकर सामने आती है-- सार्वजनिक वस्तुओं का प्रयोग गैर प्रतियोगी होता है।
- सार्वजनिक वस्तुओं पर वर्णन एवं उपभोक्ता की पृथकता का सिद्धान्त लागु नहीं होता है।
- सार्वजनिक वस्तुओं के अधिमानों की अभिव्यक्ति स्वतः न होकर समाज द्वारा निर्धारित की जाती है।
- सार्वजनिक वस्तुओं का उपभोग एवं लाभ हेतु समाज में सभी के लिये समान मात्रा में उपलब्ध रहती है।
- सार्वजनिक वस्तुओं का उपभोग सामूहिक तौर पर किया जाता है तथा वस्तुओं की आपूर्ति से सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति होती है।
- सार्वजनिक वस्तुओ द्वारा वाह्य बचतों के माध्यम् से समाज हेतु लाभ निर्मित होते है। सार्वजनिक वस्तुओं द्वारा उत्पन्न लाभ अविभाज्य होते है।
- सार्वजनिक वस्तुओं के सम्बन्ध में बाजार व्यवस्था तथा कीमत तंत्र असफल रहते है।
- सार्वजनिक वस्तुओं की माॅग विभन्न व्यक्तिगत उपभोक्ताओं की माॅगों के लम्बीय या उध्र्वाधर योग से प्राप्त होती है। सार्वजनिक वस्तुओं के लिये सीमांत सामाजिक लागत तथा सीमांत निजी लागत के मध्य अतंर आ जाता है।
- सार्वजनिक वस्तुओं की व्यवस्था में निशुल्क सवार समस्या के आत्मसात् होने के कारण बाजार एवं किसी तंत्र के माध्यम से सार्वजनिक वस्तुओं का उत्पादन परेटो इष्टतम् के अनुकूल नहीं होगा।
- सार्वजनिक वस्तुओं का आबंटन एवं व्यवस्था में सामान्यतया बाजार व्यवस्था असफल रहती है अतः इनकी व्यवस्था राजकोषीय एवं बजटीय नीतियों के माध्यम से की जाती है।
निजी एवं सार्वजनिक वस्तुओं में अन्तर
सार्वजनिक तथा निजी वस्तुओं में निम्न प्रमुख अन्तर हैं -1. सार्वजनिक वस्तु का उपभोग गैर प्रतियोगी तथा निजी वस्तु का
प्रतियोगी उपभोग होता है। सार्वजनिक वस्तु के किसी व्यक्ति द्वारा उपभोग से अन्य व्यक्तियों
के लाभ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है जबकि निजी वस्तु के उपभोग से अन्य उपभोक्ताओं हेतु
उपलब्ध वस्तु की मात्रा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
2. सार्वजनिक वस्तु के लाभ से किसी को भी वंचित नहीं किया जा सकता है चाहे उपभोक्ता ने भुगतान किया या ना किया हो। उदाहरण हेतु रक्षा, प्रकाश स्तम्भ, स्ट्रीट लाईटिंग, शुद्ध वायु निवारण कार्यक्रम आदि के लाभ से वंचित किसी को भी नहीं किया जा सकता हैं। वहीं किसी वस्तु के सम्बन्ध में वर्जन के सिद्धान्त लागु होने के कारण भुगतान कर पाने की स्थिति में उपभोक्ता उपभोग से वंचित हो जाता है।
3. सार्वजनिक वस्तुओं का उपभोग सामूहिक तौर पर किया जाता है जबकि निजी वस्तुओं का उपभोग निजी तौर पर किया जाता है।
4. निजी वस्तुओं के बारे में उपभोक्ताओं के अधिमान स्वतः ही बाजार में अभिव्यवन्त हो जाते है। जबकि सार्वजनिक वस्तुओं के अधिमानों की अभिव्यक्ति स्वतः नहीं होती है।
5. सार्वजनिक वस्तुओं के उद्देश्य सार्वजनिक एवं सामाजिक कल्याण तथा उपभोग की पूर्ति करना है। जबकि निजी वस्तुओं के उद्देश्य निजी कल्याण की पूर्ति तक सीमित है।
6. निजी वस्तुओं के उपभोग से प्रत्येक व्यक्ति को कितना लाभ हुआ है इसका आकलन तथा मापन संभव हैं। वहीं सार्वजनिक वस्तु के उपभोग से प्राप्त लाभों का मापन तथा आकलन करना है। इसका कारण यह भी है कि निजी वस्तुओं द्वारा प्राप्त लाभों को विभाजित किया जा सकता है परन्तु सार्वजनिक वस्तुओं के सम्बन्ध में यह लाभों को विभाजित नहीं किया जा सकता है। उदाहरण हेतु रक्षा व्यय से प्रत्येक व्यक्ति को कितना लाभ मिलता है इसका आकलन कर पाना संभव नहीं है।
7. निजी वस्तुओं के उपभोग तथा उत्पादन से आन्तरिक लाभों का ही निर्माण होता है। जबकि वाह्य बचतों का निर्माण करती हैं जिनसे समाज के लिये सामूहिक तौर पर ऐसे लाभ पैदा होते जिनके लिये समाज को भुगतान नहीं करना पड़ता है।
2. सार्वजनिक वस्तु के लाभ से किसी को भी वंचित नहीं किया जा सकता है चाहे उपभोक्ता ने भुगतान किया या ना किया हो। उदाहरण हेतु रक्षा, प्रकाश स्तम्भ, स्ट्रीट लाईटिंग, शुद्ध वायु निवारण कार्यक्रम आदि के लाभ से वंचित किसी को भी नहीं किया जा सकता हैं। वहीं किसी वस्तु के सम्बन्ध में वर्जन के सिद्धान्त लागु होने के कारण भुगतान कर पाने की स्थिति में उपभोक्ता उपभोग से वंचित हो जाता है।
3. सार्वजनिक वस्तुओं का उपभोग सामूहिक तौर पर किया जाता है जबकि निजी वस्तुओं का उपभोग निजी तौर पर किया जाता है।
4. निजी वस्तुओं के बारे में उपभोक्ताओं के अधिमान स्वतः ही बाजार में अभिव्यवन्त हो जाते है। जबकि सार्वजनिक वस्तुओं के अधिमानों की अभिव्यक्ति स्वतः नहीं होती है।
5. सार्वजनिक वस्तुओं के उद्देश्य सार्वजनिक एवं सामाजिक कल्याण तथा उपभोग की पूर्ति करना है। जबकि निजी वस्तुओं के उद्देश्य निजी कल्याण की पूर्ति तक सीमित है।
6. निजी वस्तुओं के उपभोग से प्रत्येक व्यक्ति को कितना लाभ हुआ है इसका आकलन तथा मापन संभव हैं। वहीं सार्वजनिक वस्तु के उपभोग से प्राप्त लाभों का मापन तथा आकलन करना है। इसका कारण यह भी है कि निजी वस्तुओं द्वारा प्राप्त लाभों को विभाजित किया जा सकता है परन्तु सार्वजनिक वस्तुओं के सम्बन्ध में यह लाभों को विभाजित नहीं किया जा सकता है। उदाहरण हेतु रक्षा व्यय से प्रत्येक व्यक्ति को कितना लाभ मिलता है इसका आकलन कर पाना संभव नहीं है।
7. निजी वस्तुओं के उपभोग तथा उत्पादन से आन्तरिक लाभों का ही निर्माण होता है। जबकि वाह्य बचतों का निर्माण करती हैं जिनसे समाज के लिये सामूहिक तौर पर ऐसे लाभ पैदा होते जिनके लिये समाज को भुगतान नहीं करना पड़ता है।
8. सार्वजनिक वस्तुओं के मूल्य निर्धारण तथा उनकी व्यवस्था के सम्बन्ध में
बाजार तंत्र असफल रहता है। क्योंकि सार्वजनिक वस्तु गैर प्रतियोगी एवं गैर वर्जनीय होती है
तथा इनके लाभों से किसी को वंचित किया जा सकता है। निजी वस्तुओं के सम्बन्ध में कीमत
एवं बाजार तंत्र निपुणता तथा पूरी क्षमता के साथ कार्य करता है।
9. यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जोकि सार्वजनिक वस्तुओं की व्यवस्था से जुड़ी हुयी है। सार्वजनिक वस्तुओं के लाभों से उनको वंचित नहीं किया जा सकता है जो कि इसके लिये भुगतान नहीं कहते हैं। अतः इससे सार्वजनिक वस्तुओं के लाभ में हर कोई हिस्सेदारी चाहता है परन्तु इसके लागत में भागीदारी नहीं करना चाहता है। वहीं दूसरी ओर बाजार व्यवस्था के कारगर तौर पर कार्य करने से सामान्य रूप से निशुल्क सवार समस्या निजी वस्तुओं की व्यवस्था में सामने नहीं आती है।
10. निजी वस्तुओं की कुल माॅग दिये गये मूल्य पर क्षैतिज योग के द्वारा प्राप्त होती है जबकि सार्वजनिक वस्तुओं की माॅग विभिन्न उपभोक्ताओं द्वारा माॅगी गयी मात्राओं के लम्बीय योग द्वारा प्राप्त होती है।
11. सार्वजनिक वस्तुओं की व्यवस्था अधिकांश रूप से राजकोषीय एवं बजट नीतियों के माध्यम से की जाती है। वहीं निजी वस्तुओं की व्यवस्था हेतु बाजार तंत्र कारगर तरह से कार्य करता है।
मेरिट वस्तु की व्यवस्था सरकार द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु की जाती है कि यदि इन सुविधाओं को पूर्णतः निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया जाये तो समाज में अनेक व्यक्ति अपनी क्षमता में आभाव के कारण इन आवश्यक सुविधाओं से वंचित रह जायेगें। मेरिट वस्तुओं की आपूर्ति समुचित न होने से समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मेरिट वस्तयें प्रतियोगी हो भी सकती हैं और नहीं भी पड़ सकता है। मेरिट वस्तु प्रतियोगी हो भी सकती हैं और नहीं भी परन्तु इनमें वर्णन का सिद्धान्त लागू होता है। मेरिट वस्तुओं के अन्तर्गत उन वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रावधान सरकार करती है जिनके बारे में सरकार यह अवधारणा बनाती है कि उनका उपभोग अपेक्षित रूप से नहीं किया जा रहा है तथा समाज के हित इन वस्तु तथा सेवाओं का उपभोग बढाने हेतु इन्हें राजकीय सहायता प्रदान किये जाने की आवश्यकता है।
मसग्रेव के अनुसार मेरिट वस्तुयें ऐसी वस्तुयें है जिनकी व्यवस्था सार्वजनिक वस्तु के रूप में की जाती है। परन्तु इनकी व्यवस्था करते समय उपभोक्ताओं के अधिमान को ध्यान में नहीं रखा जाता है। मेरिट वस्तुओं में सार्वजनिक वस्तुओं के समान कुछ गुण तो होते है पर इनमें वर्जन का सिद्धान्त भी लागू होता है।
9. यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जोकि सार्वजनिक वस्तुओं की व्यवस्था से जुड़ी हुयी है। सार्वजनिक वस्तुओं के लाभों से उनको वंचित नहीं किया जा सकता है जो कि इसके लिये भुगतान नहीं कहते हैं। अतः इससे सार्वजनिक वस्तुओं के लाभ में हर कोई हिस्सेदारी चाहता है परन्तु इसके लागत में भागीदारी नहीं करना चाहता है। वहीं दूसरी ओर बाजार व्यवस्था के कारगर तौर पर कार्य करने से सामान्य रूप से निशुल्क सवार समस्या निजी वस्तुओं की व्यवस्था में सामने नहीं आती है।
10. निजी वस्तुओं की कुल माॅग दिये गये मूल्य पर क्षैतिज योग के द्वारा प्राप्त होती है जबकि सार्वजनिक वस्तुओं की माॅग विभिन्न उपभोक्ताओं द्वारा माॅगी गयी मात्राओं के लम्बीय योग द्वारा प्राप्त होती है।
11. सार्वजनिक वस्तुओं की व्यवस्था अधिकांश रूप से राजकोषीय एवं बजट नीतियों के माध्यम से की जाती है। वहीं निजी वस्तुओं की व्यवस्था हेतु बाजार तंत्र कारगर तरह से कार्य करता है।
मेरिट वस्तुओं की अवधारणा
मेरिट वस्तुओं को उत्क्रष्ट या गुण वस्तु भी कहा जाता है। मेरिट वस्तुओं अवधारणा का विकास मसर्गेव द्वारा किया गया है। मसर्गेव के अनुसार मेरिट वस्तु का निर्धारण भुगतान के आधार पर न करके आवश्यकता के आधार पर किया जाता हैं। मेरिट वस्तुओं में ऐसी वस्तुओं को शामिल किया जाता है जिनके उपभोग से समाज की क्षमता, कार्यकुशलता एवं समाज की आधार भूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। मेरिट वस्तुओं के अन्तर्गत शिक्षा व स्वास्थ हेतु दी जाने वाली सहायता, स्कूलों में भोजन की व्यवस्था, खाद्यान्न तथा पोषण हेतु सहायता, रोजगार आदि शामिल किये जाते है।मेरिट वस्तु की व्यवस्था सरकार द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु की जाती है कि यदि इन सुविधाओं को पूर्णतः निजी क्षेत्र पर छोड़ दिया जाये तो समाज में अनेक व्यक्ति अपनी क्षमता में आभाव के कारण इन आवश्यक सुविधाओं से वंचित रह जायेगें। मेरिट वस्तुओं की आपूर्ति समुचित न होने से समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मेरिट वस्तयें प्रतियोगी हो भी सकती हैं और नहीं भी पड़ सकता है। मेरिट वस्तु प्रतियोगी हो भी सकती हैं और नहीं भी परन्तु इनमें वर्णन का सिद्धान्त लागू होता है। मेरिट वस्तुओं के अन्तर्गत उन वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रावधान सरकार करती है जिनके बारे में सरकार यह अवधारणा बनाती है कि उनका उपभोग अपेक्षित रूप से नहीं किया जा रहा है तथा समाज के हित इन वस्तु तथा सेवाओं का उपभोग बढाने हेतु इन्हें राजकीय सहायता प्रदान किये जाने की आवश्यकता है।
मसग्रेव के अनुसार मेरिट वस्तुयें ऐसी वस्तुयें है जिनकी व्यवस्था सार्वजनिक वस्तु के रूप में की जाती है। परन्तु इनकी व्यवस्था करते समय उपभोक्ताओं के अधिमान को ध्यान में नहीं रखा जाता है। मेरिट वस्तुओं में सार्वजनिक वस्तुओं के समान कुछ गुण तो होते है पर इनमें वर्जन का सिद्धान्त भी लागू होता है।
मेरिट वस्तुओं की आधारभूत अवधारणायें
मेंरिट वस्तुओं की महत्पूर्ण अवधारणाओं के विकास में
मसग्रेव का मुख्य योगदान है। मेरिट वस्तुओं की महत्वपूर्ण अवधारणायें निम्न हैं-
- मेरिट वस्तुओं का जब उपभोग किया जाता है तो वह धनात्मक वाह्यताओं का निर्माण करती है जिनसे समाज हेतु वाह्य लाभों का निर्माण होता है जिन लाभों के एवज में उपभोक्ताओं को कोई भी भुगतान नहीं करना होता है।
- मेरिट वस्तुओं की पूर्ति उपभोक्तओं के अधिमान में हस्तक्षेप पर आधारित होती है। इन वस्तुओं की व्यवस्था करते समय उपभोक्ताओं के अधिमान को ध्यान में लिया नहीं जाता है एवं सरकार इनका अधिमान आरोपित करती है। जैसे वाहन के दुर्घटना बीमा हेतु सरकार द्वारा नियम उपभोक्ताओं पर लगाना।
- वाह्यताओं के कारण मेरिट वस्तुओं के सामाजिक लाभ निजी लाभों से अधिक हो जाते है। यानि सीमांत सामाजिक लागत इन वस्तुओं की सीमांत निजी लागत से कम हो जाती है।
- व्यक्तिगत उपभोक्ता अपने तात्कालिक हितों की आपूर्ति पर अधिक जोर देता है एवं दीर्घ कालिक एवं व्यापक हितों की पूर्ति में वह दूर दृष्टिकोण एवं बेहतर तथा पूर्ण सूचना के आभाव में उपभोक्ता मेरिट वस्तुओं का समुचित उपभोग नहीं कर पाता है।
- मेरिट वस्तओं को सिर्फ निजी क्षेत्र एवं बाजार व्यवस्था के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता है। उपभोक्ताओं द्वारा इन वस्तुओं के प्रति अधिमान व्यक्त न कर पाने तथा क्रय करने की क्षमता एवं योग्यता के आभाव में इन आवश्यक वस्तुओं के उपभोग से वंचित रहने की संभावना रह जाती है।
- सरकार समाज के विशिष्ट वर्गो के कल्याण में वृद्धि करने के लिये इन वस्तुओं का उपभोग बढाने तथा समुचित कीमतों पर प्रत्येक उपभोक्ता को उपलब्ध कराने के लिये मेरिट वस्तुओं का बजट द्वारा प्रावधान करती है। मेरिट वस्तुओं की व्यवस्था के सन्दर्भ में यह हमेशा आवश्यक नहीं है कि इन वस्तुओं की आपूर्ति सार्वजनिक व्यवस्था के अनुसार ही करायी जाये परन्तु यह अवश्य है कि इन वस्तुओं की आपूर्ति को सार्वजनिक व्यवस्था पूरक या बढावा दिया जाना चाहिये। इस सम्बन्ध में यह भी महत्वपूर्ण है कि मेरिट वस्तुओं की आपूर्ति सामान्य रियायती आधार पर अथवा आर्थिक उपादन (सहायता) के आधार पर की जाती है।
- मेरिट वस्तुओं में एक गुण यह पाया जाता है कि इनकी आपूर्ति सार्वजनिक वस्तुओं की भाॅति समस्त समाज हेतु न करते हुये समाज के एक विशेष वर्गो हेतु की जाती है। जैसे महिलाओं के स्वास्थ्य हेतु राजकीय सहायता या निर्धन वर्गो के लिये खाद्यन्न कूपन का वितरण करना आदि प्रमुख हैं।
डिमेरिट या हानिकारक वस्तुयें
मेरिट वस्तुओं की अवधारणा को और अधिक स्पष्ट करने के लिये डिमेरिट या हानिकारक वस्तुओं का
विश्लेषण आवश्यक होता है। डिमेंरिट वस्तुयें की प्रकृति तथा अवधारणायें मेरिट वस्तुओं के विपरीत होती
है। डिमेरिट वस्तुओं में उन वस्तुओं को शामिल किया जाता है। जो कि सामाजिक रूप से हानिकारक एवं
आवांछनीय होती है तथा जो बाजार तंत्र द्वारा अत्याधिक एवं अति मात्रा में उत्पादित की जाती है। इन
वस्तुओं के अन्तर्गत सिगरेट, तम्बाकू, गुटखा, शराब, ड्रग्स, अश्लील सिनेमा आदि को शामिल किया जा
सकता है।
डिमेरिट वस्तुओं की मुख्य विशेषतायें
डिमेरिट वस्तुओं की मुख्य विशेषतायें निम्नवत् हैं -
1. डिमेरिट वस्तुओं के द्वारा ऋणात्मक बहिर्भाविता एवं बाह्य हानि समाज हेतु निर्मित होती है। यानि इन वस्तुओं से प्रत्यक्ष तौर पर सेवन करने वाले उपभोक्ता के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों को भी नुकसान उढाना पड़ता है चाहे वह इनके लिये उत्तरदायी हो या न हो। जैसे सिगरेट के धुयें से पीने वाले के साथ-साथ अन्य को भी नुकसान उठाना पड़ता है।
2. डिमेरिट वस्तुओं के सम्बन्ध में सीमांत सामाजिक लागत की मात्रा सीमांत निजी लागत से अधिक होती है। ऋणात्मक बाह्यताओं के कारण सामजिक हानि की मात्रा निजी लागत से अधिक होती है। ऋणात्मक वाह्यताओं के कारण से समाज को ऐसी हानि वहन करनी पड़ती है जिसके लिये समाज उत्तरदायी नहीं होता है। वहीं निजी लागत में इस हानि का समावेश बाजार तंत्र नहीं कर पाता है। जिसके कारण से सामाजिक हानि की दशायें उत्पन्न करने वाले को अपने कृत्य सुधार करने की प्रेरणा नहीं मिल पाती है। जैसे औद्योगिक इकाईयों उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान किये गये पर्यावरण प्रदूषण की हानि समाज को भुगतनी पड़ती है एवं जिम्मेदार औद्योगिक इकाई को बाजार तंत्र इस हानि का समावेश अपनी निजी लागत में समावेशित करने हेतु बाध्य नहीं कर पाता है।
3. ऋणात्मक बाह्यताओं के कारण से सीमांत निजी लाभ की मात्रा सीमांत सामाजिक लाभ से अधिक हो जाती है। जिसके कारण सामाजिक कल्याण की हानि होती है। ऽ अतिउत्पादन - चूॅकि हानिकारक वस्तुओं द्वारा निजी लाभ अधिक तथा सामाजिक लाभ कम होते है एवं निजी लागतों में हानियों का समावेश नहीं होता है। इसलिये बाजार ऐसी वस्तओं का अति उत्पादन का प्रेरित होता है। चित्र संख्या 4द में हानिकारक वस्तु द्वारा उत्पन्न सीमांत सामाजिक लाभ को डैठ वक्र तथा सीमांत निजी लाभ को डच्ठ वक्र द्वारा निरूपित किया गया है।
4. डिमेरिट वस्तुओं के उत्पादन को नियन्त्रित करने हेतु तथा समाज में इन वस्तुओं के उपभोग को हतोत्साहित करने हेतु सरकार निम्न रणनीति का प्रयोग करती है -
1. डिमेरिट वस्तुओं के द्वारा ऋणात्मक बहिर्भाविता एवं बाह्य हानि समाज हेतु निर्मित होती है। यानि इन वस्तुओं से प्रत्यक्ष तौर पर सेवन करने वाले उपभोक्ता के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों को भी नुकसान उढाना पड़ता है चाहे वह इनके लिये उत्तरदायी हो या न हो। जैसे सिगरेट के धुयें से पीने वाले के साथ-साथ अन्य को भी नुकसान उठाना पड़ता है।
2. डिमेरिट वस्तुओं के सम्बन्ध में सीमांत सामाजिक लागत की मात्रा सीमांत निजी लागत से अधिक होती है। ऋणात्मक बाह्यताओं के कारण सामजिक हानि की मात्रा निजी लागत से अधिक होती है। ऋणात्मक वाह्यताओं के कारण से समाज को ऐसी हानि वहन करनी पड़ती है जिसके लिये समाज उत्तरदायी नहीं होता है। वहीं निजी लागत में इस हानि का समावेश बाजार तंत्र नहीं कर पाता है। जिसके कारण से सामाजिक हानि की दशायें उत्पन्न करने वाले को अपने कृत्य सुधार करने की प्रेरणा नहीं मिल पाती है। जैसे औद्योगिक इकाईयों उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान किये गये पर्यावरण प्रदूषण की हानि समाज को भुगतनी पड़ती है एवं जिम्मेदार औद्योगिक इकाई को बाजार तंत्र इस हानि का समावेश अपनी निजी लागत में समावेशित करने हेतु बाध्य नहीं कर पाता है।
3. ऋणात्मक बाह्यताओं के कारण से सीमांत निजी लाभ की मात्रा सीमांत सामाजिक लाभ से अधिक हो जाती है। जिसके कारण सामाजिक कल्याण की हानि होती है। ऽ अतिउत्पादन - चूॅकि हानिकारक वस्तुओं द्वारा निजी लाभ अधिक तथा सामाजिक लाभ कम होते है एवं निजी लागतों में हानियों का समावेश नहीं होता है। इसलिये बाजार ऐसी वस्तओं का अति उत्पादन का प्रेरित होता है। चित्र संख्या 4द में हानिकारक वस्तु द्वारा उत्पन्न सीमांत सामाजिक लाभ को डैठ वक्र तथा सीमांत निजी लाभ को डच्ठ वक्र द्वारा निरूपित किया गया है।
4. डिमेरिट वस्तुओं के उत्पादन को नियन्त्रित करने हेतु तथा समाज में इन वस्तुओं के उपभोग को हतोत्साहित करने हेतु सरकार निम्न रणनीति का प्रयोग करती है -
- इन वस्तुओं के उत्पादन एवं प्रयोग हेतु सीमित पैमाने पर लाईसेन्स जारी कर सकती है।
- इन वस्तुओं पर ऊॅचें कर लगाकर इनका प्रयोग को हतोत्साहित कर सकती है।
- हानिकारक वस्तुओं के प्रयोग को विशिष्ट वर्ग हेतु वर्जित कर सकती है।
- हानिकारक वस्तुओं के अनावश्यक उत्पादन एवं प्रयोग पर आर्थिक दंड का प्रावधान कर सकती है।
- हानिकारक वस्तुओं के उत्पादन तथा उपभोग को कानूनन वर्जित कर सकती है।
सन्दर्भ -
- सिंघई, जी0 सी0, मिश्रा, जे0 पी0, ‘‘अर्थशास्त्र’’ साहित्य भवन पब्लिकेशन्स (2012), आगरा ।
- त्यागी, बी0 पी0, ‘‘लोकवित्त’’ जय प्रकाश नाथ एण्ड कम्पनी (2004), मेरठ ।