निर्माणात्मक मूल्यांकन का अर्थ एवं प्रमुख उद्देश्य

अध्यापक शिक्षण तथा अनुदेशन में पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे भागों या इकाईयों में बांट कर विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करता है। इन इकाइयों को विभिन्न उपविषयांे में बांट कर शिक्षण किया जाता है। प्रत्येक उपविषय अथवा इकाई की समाप्ति पर अध्यापक विद्यार्थियों का मूल्यांकन करता है। यह मूल्यांकन प्रतिदिन, प्रतिसप्ताह, प्रत्येक दो सप्ताहों में एक बार या मासिक रूप से किया जाता है। इस मूल्यांकन की सहायता से अध्यापक विद्यार्थियों की आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगा सकता है, अधिगम की प्रगति का परिवीक्षण कर सकता है, अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयां ज्ञात कर सकता है और यह निर्धारित कर सकता है कि अभिप्रेरित शिक्षा किस सीमा तक प्राप्त की गई है। निर्माणात्मक मूल्यांकन विद्यार्थी को पुनर्बलन प्रदान करता है। विद्यार्थी को उसके द्वारा प्राप्त अधिगम की मात्रा, गुण, गति आदि से सम्बन्धित सूचना प्रदान की जाती है। जिससे उसे पुनर्बलन प्राप्त हो। यह पुनर्बलन विद्यार्थी के अधिगम में सम्मिलित ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक विशेषताओं के संदर्भ में देखा जाता है। यह मूल्यांकन अध्यापक को भी पुनर्बलन प्रदान करता है कि इकाई अथवा उपविषय का कौन सा भाग स्पष्ट रूप से नहीं पढ़ाया गया है और कौन से उद्देश्य स्पष्ट रूप से प्राप्त नहीं किये गए हैं। 

इस प्रकार निर्माणात्मक मूल्यांकन विद्यार्थियों एवं अध्यापकों दोनों को पुनर्बलन प्रदान करता है। इस पुनर्बलन की सहायता से विद्यार्थियों की अध् िागम-प्रगति का परिवीक्षण एवं अध्यापक की कार्य-क्षमता का विकास किया जा सकता है। विद्यार्थियों में अधिगम मुख्यतः दो प्रकार से हो सकता है। स्वयं की गति से अथवा अनुमानित गति से। पुनर्बलन की सहायता से विद्यार्थियों की अधिगम प्रगति की जांच की जाती है। इस सन्दर्भ में उपलब्धि का मानक स्तर निर्धारित किया जाता है जिससे विद्यार्थियों के उपलब्धि स्तर की तुलना की जाती है।

इस मूल्यांकन में अध्यापक स्वयं भी पुनर्बलन प्राप्त करता है और पुनर्बलन के आधार पर अपनी कार्य-क्षमता का विकास करता है। विद्यार्थियों की अधिगम प्रगति के आधार पर अध्यापक अपनी शिक्षण-विधियां, शिक्षण-युक्तियों तथा व्यूह-रचनाओं में परिवर्तन ला सकता है, सहायक सामग्री का अधिक उपयोग करके शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली एवं अन्तःक्रियात्मक बना सकता है अथवा सुधारात्मक शिक्षण कर सकता है।

इस प्रकार के मूल्यांकन में अंकों को कोई महत्व नहीं दिया जाता है और ग्रेड को थोड़ा महत्व दिया जाता है। इसमें ग्रेड या सर्टिफिकेट प्रदान करने की अपेक्षा अधिगमकर्ता या विद्यार्थी एवं अध्यापक की सहायता करने पर विशेष बल दिया जाता है जिससे शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में सुधार लाया जा सके।

अभिक्रमित अधिगम में निर्माणात्मक मूल्यांकन का विशेष महत्व होता है क्योंकि इसमें प्रत्येक फ्रेम या पद के अन्त में मूल्यांकन किया जाता है। इससे अनुदेशन के दौरान अधिगमकर्ता की प्रगति का परिवीक्षण भी होता है और उसकी अधिगम सम्बन्धी कमजोरियों एवं कठिनाइयों को भी दूर किया जाता है।

निर्माणात्मक मूल्यांकन के प्रमुख उद्देश्य

निर्माणात्मक मूल्यांकन के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं-
  1. मूल्यांकन प्रक्रिया को अधिक सार्थक एवं प्रभावशाली बनाने में सहायता करना।
  2. अध्यापक को अपनी अध्यापन प्रक्रिया में समुचित सुधार हेतु परामर्श प्रदान करना।
  3. विद्यार्थी को विषय सम्बन्धी कमियों हीनताओं तथा कठिनाइ की जानकारी प्राप्त करना।
  4. शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों को प्रभावशाली बनाना।
  5. विभिन्न विषय सम्बन्धी विशेषताओं एवं कमियों के आधार पर पाठ्यपुस्तकों अथवा पाठ्यक्रम में परिवर्तन लाना और उन्हें विद्यार्थियों की दृष्टि से अधिक उपयोगी बनाना।
  6. उपलब्धि परीक्षा के निर्माण हेतु विभिन्न प्रकार के प्रश्नों के चयन में सहायता करना।
  7. उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करना।
निदानात्मक मूल्यांकन के लिए जिन परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है उन्हें निदानात्मक परीक्षण कहा जाता है। निदानात्मक मूल्यांकन का क्षेत्र सीमित होता है क्योंकि यह किसी विशिष्ट विषय की सूक्ष्म प्रक्रिया है।

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