संज्ञान एवं संज्ञानात्मक मनोविज्ञान क्या है ?

संज्ञान एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जो ज्ञानार्जन और समझ (बोध) से सम्बन्धित है। इस प्रक्रिया में, चिन्तन, स्मृति, निर्णयक्षमता, समस्या समाधान, कल्पना, प्रत्यक्षीकरण योजना आदि समाहित रहते हैं।

  1. अन्य शब्दों में अनुभवों, संवेदना और विचारों द्वारा, समझ और ज्ञान को अर्जित करने की प्रक्रिया संज्ञान है।
  2. संज्ञान की प्रक्रिया, ज्ञान, अवधान, स्मृति, निर्णय, मूल्यांकन, तर्क आदि की सम्मिलित प्रक्रिया है।
  3. संज्ञान का तात्पर्य एक क्रम से सूचना ग्रहण करना, विश्लेषण करना, निष्चय करना, संचित करना इत्यादि है। प्रायः संज्ञान प्रक्रिया प्रत्यक्षीकरण से प्रारम्भ होती है। हम प्रायः वातावरण में विभिन्न उद्दीपकों को देखते हैं और उनके प्रति प्राप्त सूचना को विश्लेषित करते हैं। इसके पश्चात सूचनाओं को सार्थक बनाते है।
संज्ञान अर्थात् संज्ञप्ति। संज्ञान से तात्पर्य इन्द्रियजन्य ज्ञान से है। संज्ञान शब्द चेतनभाव को दर्शाता है। अर्थात् व्यक्ति की चेतनता उसके संज्ञान को सूचित करती है। ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से व्यक्ति द्वारा बाह्य वातावरण का ज्ञान संज्ञान कहलाता है।

संज्ञान मनोविज्ञान का वह पक्ष है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के ज्ञानात्मक पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। जीवन की प्रत्येक क्रिया चाहे वह किसी के विषय में चिन्तन हो या तर्क, स्मृति हो या अवधान, व्यक्ति अपनी बुद्धि और विवेक के आधार पर किसी कार्य के परिणाम तक पहुँचता है।

आज इस संज्ञान की संकल्पना को मनोविज्ञान का एक नवीन सम्प्रत्यय मानकर मनोविज्ञान की नवीन षाखा संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के रूप में अध्ययन किया जा रहा है, जो कि पूर्व से ही हमारे भारतीय षास्त्रों में विस्तृत रूप से विविध पक्षों में वर्णित है-
  1. चेतना के रूप में संज्ञान।
  2. ज्ञान के रूप में संज्ञान ।
  3. बुद्धि के रूप में संज्ञान।
  4. तर्क के रूप में संज्ञान।
  5. कल्पना के रूप में संज्ञान।
  6. निर्णयक्षमता के रूप में संज्ञान।

संज्ञानात्मक मनोविज्ञान क्या है

संज्ञानात्मक मनोविज्ञान ध्यान, भाषा का उपयोग करना, स्मृति, धारणा, समस्या-समाधान और चिन्तन आदि मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन हैं। संज्ञानात्मक मनोविज्ञान की प्रक्रिया पर ध्यान दें तो कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं -
  1. मन में ज्ञान का निरूपण किस तरह होता है ?
  2. ज्ञान को हम किस तरह ग्रहण करते हैं ? कैसे उपयोग करते हैं ?
  3. चेतना क्या है ?
  4. किस तरह चेतना में विचारांे की उत्पत्ति होती है ?
  5. चिन्तन क्या है ?
  6. स्मृति का स्वरूप क्या है ?
  7. इससे सम्बद्ध क्षमताओं का विकास किस तरह होता है ?
  8. इन प्रष्नों के अध्ययन में किया प्रयास ही संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का मूल कहा जा सकता है।

संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत

‘‘बच्चों के बडे़ होने पर उनका संज्ञानात्मक विकास कैसे आगे बढ़ता रहता हैं विकास काल के दौरान बच्चों में संज्ञानात्मक ढाँचे में किस तरह परिवर्तन आते रहते हैं? इस प्रकार के प्रष्नों के उत्तर देने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अपने कुछ मत प्रस्तुत किये हैं। विकासात्मक मनोविज्ञान में इन्हें संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का नाम दिया जाता है। संज्ञानात्मक विकास के दो सिद्धांत अत्यन्त महत्वपूर्ण हंै-
  1. पियाजे का सिद्धान्त
  2. बू्रनर का सिद्धान्त
इस इकाई में हम पियाजे के सिद्धान्त के विषय में चर्चा करेंगे।

जीन पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएं

संज्ञान विचार, अनुभव और ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने और चीजों को समझने की मानसिक प्रक्रिया है। इसके माध्यम से हमारे मन में विचार पैदा होते हैं और किसी चीज़ के बारे में पूर्वानुमान भी लगा पाते हैं। ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हम वाहय जगत को जानने समझने की जो कोशिश करते हैं उसे संज्ञान कहते हैं। संज्ञान का अर्थ हैं जानना। अर्थात कर्म व भाषा के माध्यम से स्वयं और दुनिया को समझना। इसके अनुसार व्यक्ति अपने वातावरण एवं परिवेश के साथ मानसिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए सीखता है। इसके जन्मदाता स्विटजरलैंड के मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे माने जाते हैं।

जीन पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक विकास अनुकरण की बजाय खोज पर आधारित है। इसमें व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अपनी समझ का निर्माण करता हैं। उदाहरण के तौर पर कोई छोटा बच्चा जब जलते हुए दीपक को जिज्ञासावश छूता है तो उसे जलने के बाद अहसास होता है कि यह तो डरावानी चीज़ हैं, इससे दूर रहना चाहिए। उसके पास अपने अनुभव को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त शब्द नहीं होते पर वह जान लेता है कि इसको दूर से देखना ही ठीक है। वह बाकी लोगों की तरफ इशारा करता है अपने डर को अभिव्यक्ति देने वाले इशारों में।

इस प्रकार का सीखना सक्रिय रूप में सीखना हेाता है। इससे व्यक्ति अपने परिवेश और वातावरण के साथ सक्रिय रूप से अंतक्र्रिया करता है। इसमें किसी कार्य को करते हुए व्यक्ति किसी एक विचार में नए विचारों को शामिल करता है। उससे स्पष्ट जुड़ाव देख और समझ पाता है। इस प्रक्रिया को आत्मीकरण या फिर assimilation कहते हैं।

इसके साथ ही दूसरी प्रक्रिया भी साथ-साथ चलती है जिसे व्यवस्थापन व संतुलन कहते हैं। इसमें नई वस्तु व विचार के समायोजन की प्रक्रिया होती है। इस तरह का समायोजन आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। वर्तमान दौर में बदलाव की रफ्तार काफी तेज़ है, ऐसे में यह प्रक्रिया बेहद अहम हो जाती है। मनोवैज्ञानिक नजरिये से पूरी प्रक्रिया को समझना हमें व्यक्तियों के व्यवहार को समझने में मदद करता हैं।

जीन पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएं निम्नवत हैं

1. संवेदी प्रेरक अवस्था - जन्म से 2 वर्ष तक यह अवस्था चलती है। इसमें बच्चों का शारीरिक विकास तेजी से हाता है। उसके भीतर भावनाओं का विकास भी होता है। इस अवस्था में बच्चे देखने, पहुंचने, पकड़ने, चूसने, आदि की स्वतः सहज क्रियाओं से व्यवस्थित प्रयासरत क्रियाओं की ओर अग्रसित होते हैं। इस अवस्था की बौद्धिक संरचनाओं के पूर्ण विकास के उपरान्त बच्चा संज्ञानात्मक विकास की आगामी अवस्था में जाने के लिए तैयार हो जाता है।

2. पूर्ण संक्रियात्मक अवस्था - जन्म से 7 वर्ष तक की इस अवस्था में बच्चा नई सूचनाओं व अनुभवों का संग्रह करता है। इसी अवस्था में बच्चे में से आत्मकेंद्रित होने का भाव अभिव्यक्ति हो पाता है। पियाजे कहते हैं कि छह साल के कम उम्र के बच्चे में संज्ञानात्मक परिपक्वता का अभाव पाया जाता है। इस अवस्था में भाषा का अधिकतम विकास होता है।

3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था - यह अवस्था 11 वर्ष तक चलती है। इस उम्र में बच्चा विभिन्न मानसिक प्रतिभाओं का प्रदर्शन करता है। उदाहरण के तौर पर पहली कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे ने तोते से जुड़ी एक कविता सुनी जिसमें डाॅक्टर तोते को सुई लगाता है और तोता बोलता है ऊई....। यह सुनकर पहली कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे ने कहा, ‘‘यह तो झूठ है। डाॅक्टर तोते को सुई थोड़ी ही लगाते हैं।’’ यहां एक छह-सात साल का बच्चा अपने अनुभवों के आईने में कविता में व्यक्त होने वाले विचार को बहुत ही यथार्थवादी ढंग से देखने की प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहा है, जिसे गौर से देखने-समझने की जरूरत है।

4. औपचारिक-संक्रियात्मक अवस्था - यह अवस्था 11 साल से शुरू होकर प्रौढ़ावस्था तक जारी रहती है। इस अवस्था में बच्चा परिकल्पनात्मक ढंग से समस्याओं के बारे में विचार कर पाता है। उदाहरण के तौर पर सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा कहती है कि शिक्षक ने हमें पढ़ाया कि गांधी के तीन बंदर थे। उनसे हमें सीख मिलती है कि हमें बुरा देखना, सुनना और कहना नहीं चाहिए। मैंने कहा बिल्कुल ठीक है। इस उम्र के बच्चे भी सुनी हुई बातो पर सहज यकीन कर लेते हैं। फिर बात हुई कि बगैर देखे हमें कैसे पता चलेगा कि सही और गलत क्या है, यहीं बात सुनने के संदर्भ में लागू होती है। बोलने के संदर्भ में हम एक चुनाव कर सकते हैं मगर वह पहले की दो चीजों के बाद ही आती है। यानि हमें अपने आसपास के परिवेश को समझने के लिए अपनी ज्ञानेंद्रियों का प्रयोग करना चाहिए ताकि हम समझ सकें कि वास्तव में क्या हो रहा है और सही व गलत का फैसला हम तभी कर सकते हैं।

Post a Comment

Previous Post Next Post