सिंचाई किसे कहते हैं? सिंचाई की कितनी विधियां होती है?

वर्षा के द्वारा पौधों को पानी मिलना एक सस्ता और प्राकृतिक तरीका है। परन्तु वर्षा का वितरण पौधों की आवश्यकतानुसार नहीं होता है। हम पौधों को सफलतापूर्वक उगाने के लिए कृत्रिम तरीके से पानी प्रदान करते हैं। इस प्रकार “फसल या पौधे को उगाने हेतु भूमि में उचित नमी बनाए रखने के लिए कृत्रिम तरीके से पानी देना सिंचाई कहलाता है”। 

फल वृक्षों के बाग की स्थापना, बढ़वार और उत्पादन के लिए सिंचाई एक अतिमहत्वपूर्ण कृषि कार्य है। सूखे-गर्म महीनों में सिंचाई अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इन दिनों में पौधों के लिए पानी की कमी हो जाती है जिससे पोषक तत्वों की उपलब्धता और वृद्धि प्रभावित होती है। पौधों के बनने से परिपक्व होने तक किसी भी अवस्था में पानी की कमी हो जाने पर फलों का विकास प्रभावित हो जाता है। फल झड़ने लगते है जिससे बाग की उत्पादकता कम हो जाती है। फल लगे हुए पौधों को नियमित रुप से सिंचाई करने से फलों का उपज, स्वाद और मिठास बढ़ जाता है।

फलदार वृक्षों में गर्मी से प्रति सप्ताह और सर्दियों में 15 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए। 

सिंचाई किसे कहते हैं

सिंचाई की विधियां / प्रकार 

सिंचाई करने की अनेक विधियाँ अपनाई जाती है जिनका विवरण निम्नलिखित है:
  1. भराव विधि 
  2. क्यारी विधि 
  3. नाली विधि 
  4. थाला विधि 
  5. रुपान्तरित थाला विधि
  6. फव्वारा विधि 
  7. बूँद-बूँद सिंचाई विधि
1. भराव विधि - इस विधि द्वारा पूरे बाग में एक ओर से पानी भर दिया जाता है। इसमें पानी की ज्यादा आवश्यकता होती है और पानी ज्यादा मात्रा में नष्ट भी होता है।

2. क्यारी विधि - इस विधि में प्रति पौधा या कुछ पौधों के समूह को लेकर छोटी-छोटी क्यारियाँ बना ली जाती हैं फिर क्यारियों में सिंचाई की जाती है। इस विधि में भी पानी की ज्यादा आवश्यकता होती है और ज्यादा पानी नष्ट होता है।

3. नाली विधि - इस विधि का उपयोग एक कतार में आने वाले सभी पौधों को एक साथ पानी देने के लिए करते हैं। इसमें फल वृक्षों की कतारों के साथ-साथ लगभग 60 से.मी. से 100 से.मी. चौड़ा नली इस प्रकार बनाते हैं कि फल वृक्ष नाली के बीच में रहे।  इस विधि में भराव व क्यारी विधि की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है।

4. थाला विधि - फल के बगीचों के लिए सिंचाई की यह एक उत्तम विधि है। इसमें पेड़ के आकार के अनुसार वृताकार थाला बनाया जाता है। इन थालों को नालियों से आपस में जोड़ दिया जाता है। इसमें पानी की मात्रा कम लगती है परन्तु मृदा जनित रोगों के एक पौधे से दूसरे पौधे मे फैलने का खतरा बना रहता है।

5. रुपान्तरित थाला विधि- फल के बागीचांे में पौधों की दो कतारों के बीच में  एक नाली बनाई जाती है और दोनों कतारों में प्रत्येक पौधों के थाले को नाली से जोड़ दिया जाता है। नाली में पानी प्रवाहित कर पौधों की सिंचाई की जाती है। इस विधि से पानी की कम मात्रा लगती है और मृदा जनित रोगों के प्रसारण की संभावना कम होती है।

6. फव्वारा विधि - यह सिंचाई करने की नयी विधि है। इसके प्रयोग से पानी का खर्च कम होता है। यह पानी की कमी वाले क्षेत्रों के लिए उत्तम विधि है। यह विधि छोटे आकार के फल वृक्ष के बागीचों के लिए ही उपयुक्त रहती है। इस विधि में पानी को मोटर की सहायता से तेज दबाव के साथ मुख्य पाईप पर लगे राइजर, जिसके ऊपरी भाग पर नोजल फिट होता है, में भेजा जाता है और फिर तेज दबाव के साथ पानी छोटी-छोटी बूंदों के रुप में बाहर निकलता है और पौधों पर पानी की वर्षा करता है। इस विधि से सिंचाई करने पर बाग के आस-पास का वातावरण भी नम हो जाता है जिससे पौधों का विकास अच्छा होता है परन्तु नमी अधिक रहने से कभी-कभी रोगों एवं कीटों की संभावना बढ़ जाती है। इस विधि से सिंचाई करने पर पानी की मात्रा तो बहुत कम लगती है परन्तु सिंचाइ्र के लिए कई उपकरण प्रयोग होने के कारण लागत ज्यादा आती है।

7. बूँद-बूँद सिंचाई विधि- यह भी सिंचाई की एक नयी विधि है। यह विधि इजराइल नामक देश में विकसित की गयी थी। इसमें पानी की किफायत सर्वाधिक होती है। इस विधि में पानी पौधों के जड़ांे के पास बूँद-बूँद करके दिया जाता है। अतः उन स्थानों जहाँ पर पानी की कमी और मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हो वहाँ इस विधि से फल वृक्षों की आसानी से सिंचाई की जा सकती है।

बूँद-बूँद सिंचाई पद्धति स्थापित करने में प्रारम्भ में अधिक खर्च आता है। इस विधि में प्रयोग होने वाले मुख्य उपकरण मोटर, फिल्टर, वेंचुरी, मेन पाइप, सब पाइप, लेटरल पाइप, ड्रिपर आदि है। मोटर द्वारा जल स्त्रोत से पानी निकलने के बाद फिल्टर एवं वेंचुरी के माध्यम से मेन पाइप में एक निश्चित दबाव के साथ आता है जो सब पाइप से होता हुआ लेटरल पाइप में पहुँचता है और लेटरल पाइप में लगे ड्रिपर के द्वारा पौधों की जड़ों के पास बूँद-बूँद करके टपकता है। अतः इसे टपक सिंचाई विधि भी कहते हैं। इस विधि में एक सुविधा और भी है कि यदि इसमें फर्टिलाइजर टैंक को जोड़ दिया जाए तो पानी में घुलनशील उर्वरक भी सिंचाई के साथ दे सकते हैं। इस प्रक्रिया को फर्टिगेशन कहते हैं।

इस विधि से सिंचाई करने पर खरपतवार कम उगते हैं। फसल प्रबंधन का खर्च कम हो जाता है। पौधों को जब पानी की आवश्यकता हो तब सिंचाई करने से उत्पाद की गुणवत्ता और उत्पादकता बढ़ जाती है। परन्तु इसमें बिजली की आपूर्ति और किसान को कुछ तकनीकी ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है।

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