सूक्ष्मजीव किसे कहते हैं सूक्ष्मजीव को कितने वर्गों में विभाजित किया गया है?

ऐसे जीव जिनका आकार इतना छोटा होता है कि उन्हें केवल सूक्ष्मदर्शी यन्त्रा की सहायता से देखा जा सकता है, सूक्ष्म जीव कहलाते हैं। बड़े सूक्ष्मजीवों को सामान्य सूक्ष्मदर्शी से देख सकते हैं, कुछ को केवल नग्न आंखों से देख सकते हैं। उदाहरणतः मशरूम।

सूक्ष्मजीव लगभग सभी प्रकार के पर्यावरण गरम झरनों में, बर्फ जैसे ठंडे पानी में, अधिक लवण, सल्फर अथवा कार्बनिक पदार्थ घुले पानी में, रेगिस्तानी मिट्टी अथवा नम स्थानों में पाए जाते हैं। कुछ गले-सड़े मांस को पसन्द करते हैं। कुछ हमारी आंतों में होते हैं। कुछ सूक्ष्मजीव मुक्त रूप से स्वयं जनन करते हैं तथा अन्य किन्हीं दूसरे जीवों, जिसे परपोषी कहते हैं, से जुड़ कर वृद्धि करते हैं।

सूक्ष्मजीवों के विषय में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे बहुत कठोर होते हैं। उनमें से कुछ ताप तथा शुष्क की चरम सीमाओं तक भी जीवित रह सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के लिए वे अपने चारों ओर एक कठोर भित्ति बना लेते हैं जिसे पुटी कहते हैं। इस रक्षात्मक कवच में वे अनुकूल परिस्थिति मिलने तक निष्क्रिय रहते हैं। अनुकूल परिस्थिति मिलने पर वे कवच से बाहर आ जाते हैं, गुणन करते हैं और अपना जीवन-चक्र पूरा करते हैं। सूक्ष्मजीव एककोषकीय हो सकता है अथवा कोशिकाओं के एक समूह की तरह भी हो सकता है। हमारा आमना-सामना उनसे निरन्तर होता रहता है लेकिन हमें उनकी परिस्थिति का आभास उनके कार्यों द्वारा ही होता है। 

सूक्ष्मजीव हमारे लिए विभिन्न प्रकार से बहुत उपयोगी हैं लेकिन वे बीमारी भी फैला सकते हैं। जुकाम, मलेरिया, त्वचा रोग, इनफ्लुएंजा तथा अन्य रोग सूक्ष्मजीवों द्वारा ही होते हैं।

सूक्ष्मजीव के प्रमुख वर्ग

सूक्ष्मजीवों के पांच मुख्य वर्ग हैं। ये हैं -जीवाणु, कवक, प्रोटोजोआ, शैवाल तथा विषाणु।

1. जीवाणु

ये अकेली कोशिका अथवा श्रृंखला अथवा कोशिका समूह के रूप में भी हो सकते हैं। कोशिका के चारों ओर एक कठोर कोशिका भित्ति होती है। उनका माप 0.2 से 100 माइक्राॅन तक होता है। बहुतों में गति के लिए सिलिया तथा फ्लैजिला होते हैं। कुछ प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया भी करते हैं। जीवाणु सामान्यतः अनुकूल परिस्थितियों में द्विखंडन विधि द्वारा जनन करते हैं। इनमें लैंगिक जनन भी देखने को मिलता है। जिन जीवाणुओं को वृद्धि के लिए आक्सीजन की आवश्यकता होती है उन्हें आक्सीकारी जीवाणु तथा जो आक्सीजन के बिना वृद्धि करते हैं उन्हें अनाक्सीकारी जीवाणु कहते हैं। कुछ जीवाणु मनुष्यों में और कुछ पौधों तथा जन्तुओं में बीमारी फैलाते हैं। लेकिन कुछ जीवाणु हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं जैसे कि लैक्टोबैसिलस दूध से दही बनाने में काम आता है अथवा कुछ जीवाणु गले-सड़े पत्तों तथा जानवरों को अपघटित कर देते हैं जिससे कि जैव प्रक्रिया के अगले चक्र को चलाने के लिए कार्बन, नाइट्रोजन तथा अन्य पोषक पदार्थ पर्यावरण में वापिस आ जाते हैं। ये मित्र जीवाणु न केवल अपमार्जक का काम करते हैं बल्कि ये मिट्टी, पानी तथा हवा के जीवनदायिनी गुणों का भी नवीकरण करते हैं। इन्हीं जीवाणुओं की क्रिया के कारण वृक्षों से ढकी ऊपरी मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की एक काली सी परत होती है जिसे ‘ह्यूमस’ कहते हैं। इसमें पूर्ण अथवा आंशिक रूप से अपघटित पौधे तथा जन्तुओं के अपशिष्ट होते हैं। इस परत में न केवल पोषक पदार्थ होते हैं, बल्कि इसमें पानी को रोकने की क्षमता भी होती है। यह पानी पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक होता है।

सभी सूक्ष्मजीवों में, जीवाणु सबसे अधिक संख्या में होते हैं। प्रायः ये बहुत तीव्र दर से प्रजनन करते हैं, जैसे सीडोमोनाॅस प्रति 9.5 मिनट में जनन करता है। लेकिन कुछ जीवाणुओं में जनन की गति कम होती है, जैसे ऐसे जीवाणु जो तपेदिक (क्षय) तथा लैप्रोसी फैलाते हैं। इससे इन रोगों का आरम्भ में पता लगाना कठिन होता है। जीवाणु का संवर्धन प्रयोगशालाओं में भी कर सकते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधानों में प्रायः उपयोग में आने वाला जीवाणु ई. कोलाई (एशकेरिशिया कोलाई) है। यह प्रायः मनुष्य की बड़ी आंत (कोलाॅन) में पाया जाता है। ई. कोलाई आक्सीकारक जीवाणु है और दोगुना होने में 20 मिनट लेता है। एक नम तथा गरम पर्यावरण जीवाणु वृद्धि के लिए उपयुक्त होता है। इसके विपरीत, शुष्क अथवा उच्च तापमान या निम्न तापमान पर वृद्धि की दर कम होती है।

👉 जीवाणु के कुछ जाने पहचाने कार्य  -
  • दूध के उत्पाद जैसे दही तथा पनीर बनाना।
  • जीवाणु मांस के सख्त पेशी तन्तुओं को तोड़कर इसे कोमल बना देते हैं।
  • जीवाणु फलों के रस पर क्रिया करके सिरका तथा शराब बनाते हैं। गन्ने तथा खजूर के रस को यदि लम्बे समय तक रखें तो इसमें जीवाणु की क्रिया के कारण झाग पैदा हो जाते हैं।
  • गाय तथा अन्य पशुओं की आंत में रहने वाले जीवाणु घास तथा पौधों को पचाने में सहायता करते हैं। इस प्रक्रिया में जीवाणु सैल्यूलोज को तोड़ देते हैं जो कि जन्तु स्वयम् इसे नहीं तोड़ सकते। अतः इन जीवाणुओं के बिना गाय अपने मुख्य भोजन घास को नहीं खा सकेगी।
  • कुछ जीवाणु पोषक पदार्थ उत्पन्न करने के लिए कार्बनिक पदार्थों को अपघटित कर देते हैं।
  • कुछ जीवाणु चमड़ा कमाने में सहायता करते हैं।
  • कुछ जीवाणु हवा से मुक्त नाइट्रोजन लेते हैं और उसे नाइट्रोजनी यौगिकों में बदल देते हैं, इस प्रकार वे प्राकृतिक रूप से मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। कुछ गले-सड़े पौधों तथा जन्तुओं से नाइट्रोजन निकालते हैं। जीवाणु नाइट्रोजन चक्र को चलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • कुछ जीवाणु मनुष्यों, पौधों तथा जन्तुओं में रोग फैलाते हैं।

2. कवक

क्या आपने कभी सड़े हुए संतरे की सतह पर नीले हरे धब्बे, अथवा बासी रोटी, पुराने अचार अथवा जैम पर सफेद से स्लेटी रंग के उद्धर्व देखे हैं? यहाँ तक कि सीले कपड़े, पुराने जूते तथा नम वृक्षों के तनों पर बरसात के दिनों में हरे धब्बे बन जाते हैं। ये सभी धब्बे विभिन्न प्रकार के कवक से बनते हैं। इनके बहुत से प्रकार होते हैं। (a)सामान्य ब्रेड मोल्ड, (b) एस्पर जिलस, (c) पैनिसीलियम, (d) कवच अथवा व्रेक्ट कवक, (e) यीस्ट,

कवक एक कोशिकीय तथा बहुकोशिकीय होते हैं। वे बीजाणु बनाते हैं और उनमें प्रायः अलैंगिक तथा लैंगिक दोनों प्रकार का जनन होता है। इनमें अलैंगिक जनन द्विखंडन, मुकुलन तथा किसी टुकड़े के पुनर्जनन द्वारा होता है। यीस्ट तथा मोल्ड (फफूंदी) कवक के दो मुख्य वर्ग हैं। यीस्ट प्रायः एककोशिकीय होती है जबकि मोल्ड बहुकोशिकीय, और उनका आकार तन्तुमयी होता है। यदि आप ब्रेड मोल्ड का अध्ययन आवर्धक लेन्स की सहायता से करो तो आपको बीजाणु धारण करने वाली संरचनाएं तथा सड़ी हुई रोटी पर फैले हुए तन्तु दिखाई देंगे। फील्ड मशरूम एक प्रकार का मोल्ड है। यीस्ट का माप 5 से 10 माइक्राॅन तथा मोल्ड का 2 से 10 माइक्राॅन तक भी होता है। कुछ मोल्ड, जैसे मशरूम, का माप कुछ सेंटीमीटर तक भी होता है। 

पादप कोशिकाओं की तरह कवक में भी एक कोशिका भित्ति होती है लेकिन उनमें प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नहीं होती। मोल्ड हमारी तरह वायुजीवी होते हैं, लेकिन कुछ यीस्ट वायुजीवी तथा अवायुजीवी परिस्थितियों में भी जीवित रह सकते हैं।

3. शैवाल

आपने तालाबों अथवा झीलों अथवा नदी के ठहरे पानी में हरी तैरती हुई परत को देखा होगा। यह तालाबों तथा तरण तालों जिनकी सफाई बहुत समय से नहीं हुई हो, के किनारों पर भी हो सकते हैं। इन्हें शैवाल कहते हैं। वे पौधों की तरह जीव होते हैं और उनमें क्लोरोफिल होता है। वे प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाते हैं और नमी वाले स्थानों पर वृद्धि करते हैं। इसी कारण इन्हें कभी-कभी ‘पानी की घास’ भी कहते हैं।

शैवाल में विभिन्न प्रकार की संरचनाएं पाई जाती हैं।
  1. फ्युक्स-एक भूरा शैवाल,
  2. एनाबीना,
  3. नोस्टाॅक,
  4. स्पाइरोगायरा (सामान्य तालाब शैवाल),
  5. आसिलेटोरिया
शैवाल एक कोशिकीय अथवा बहुकोशिकीय हो सकते हैं। उनका माप सूक्ष्मदर्शीय एक कोशिकीय (1.0 माइक्राॅन) से लेकर बड़ी-बड़ी समुद्रीय घास (जो कई मीटर लम्बी होती है), तक होती है। उनके आकार, वास स्थान तथा जनन प्रक्रिया में भी बहुत विभिन्नता होती है।

जीवाणु की तरह, शैवाल बर्फ, लवणीय जल, गरम झरनों, नम मिट्टी, वृक्ष की छाल तथा चट्टानों की सतहों पर पाए जाते हैं। ये अन्य जलीय जीवों के शरीर के अन्दर सहजीवी रूप में भी वृद्धि करते हैं। अकेली कोशिका वाले शैवाल गोल, छड़ाकार, गदाकार, अथवा तर्कु आकार के हो सकते हैं। बहुकोशिकीय शैवालों में जटिल संरचनाएं होती हैं। कुछ शैवाल कालोनी बनाते हैं। कालोनी में एक जैसी कोशिकाएं होती हैं जो विभाजन के बाद आपस में जुड़ी रहती हैं। अन्य कालोनियों में विभिन्न प्रकार की कोशिकाएं हो सकती हैं जो विशिष्ट कार्य करने के लिए विशिष्ट होती हैं। बहुत से शैवालों में वर्णक होते हैं जो उन्हें विभिन्न रंग लाल, भूरा अथवा हरा रंग देते हैं। क्या आप जानते हो कि लाल सागर का नाम ऐसा क्यों पड़ा? इस सागर में लाल शैवाल बहुत ही अधिक मात्रा में सतह पर तैरते रहते हैं जिसके कारण यह लाल रंग का दिखाई पड़ता है। कुछ शैवाल कशाभिका की सहायता से पानी में भी चल सकते हैं।

आप एगार से परिचित हैं। एगार का उपयोग प्रयोगशालाओं में सूक्ष्मजीवों के संवर्धन के लिए किया जाता है। यह जिलेटिन की तरह का पदार्थ है। इसका उपयोग दवाइयाँ बनाने तथा भोज्य उत्पादों जैसे खीरे तथा जैली बनाने में जमाव कारक के रूप में किया जाता है। यह लाल शैवाल से बनाया जाता है। इसी प्रकार का अन्य पदार्थ है चाइनाग्रास। इसे विभिन्न प्रकार के शैवाल से प्राप्त करते हैं।

शैवाल के उपयोग

  1. शैवाल प्रकाश संश्लेषण द्वारा कार्बनिक पदार्थ बनाते हैं और अन्ततः जलीय जन्तुओं को भोजन प्रदान करते हैं।
  2. शैवाल की कोशिकाओं के रस का उपयोग बहुत से कमर्शियल उत्पादों में किया जाता है। एगार तथा एलजिनिक एसिड का उपयोग दवाइयों, भोजन, सौन्दर्य प्रसाधनों, कागज बनाने, कपड़े की छपाई तथा रंग को गाढ़ा करने में किया जाता है। कैल्प, जो भूरे रंग का शैवाल है, आयोडीन तथा पोटेशियम का प्रमुख स्रोत है।
  3. डायटम (एक शैवाल) की कोशिका भित्ति महीन सिलिका की प्राकृतिक स्रोत है। अतः डायटम कवचों के बड़े संग्रह का उपयोग फिल्टर, विशेष प्रकार के ग्लास तथा पोरसिलिन बनाने में किया जाता है।
  4. चीन तथा जापान में बहुत सी समुद्री घासों का उपयोग भोजन के रूप में किया जाता है।
  5. कुछ शैवालों का उपयोग मनुष्य के खाद्य पदार्थों में भी बढ़ रहा है।

4. प्रोटोजोआ

आप पहले से ही जानते हो कि अमीबा क्या है और वह कैसे भोजन करता है, चलता है तथा विभक्त होता है। प्रोटोजोआ में अमीबा सबसे सरल तथा सामान्य है। ‘प्रोटोजन’ शब्द का अर्थ है सर्वप्रथम जन्तु। प्रोटोजोआ जन्तु की तरह होता है, जैसे कि शैवाल पौधों की तरह। उनका माप 2 से 200 माइक्राॅन तक होता है।

प्रोटोजोआ में कोशिका भित्ति नहीं होती। वे नम वास स्थानों - समुद्र, मिट्टी, ताजे जल में पाये जाते हैं। मुक्तजीवी प्रोटोजोआ ध्रुवीय क्षेत्रों तथा बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर पाये जाते हैं। वे बहुत ही सरल तथा बहुत ही जटिल प्रकार के हो सकते हैं। उदाहरणतया एक अमीबा का कोई निश्चित आकार नहीं होता और अपने आकार को बदल सकता है। दूसरी ओर, पैरामीश्यिम चप्पल की तरह होता है और इसका एक मुंह, पक्ष्माभ तथा अन्य संरचनाएं होती हैं।

अन्य सूक्ष्म जीवों की तरह, प्रोटोजोआ भी हमारे जीवन को कई प्रकार से प्रभावित करता है। ये हमारे लिए तथा अन्य जन्तुओं के लिए लाभदायक अथवा हानिकारक हो सकते हैं। 

प्रोटोजोआ के कुछ प्रकार -
  1. अमीबा,
  2. जिआरडिआ,
  3. ट्रिप्नोसोमा,
  4. कोडोसिगा

5. विषाणु

आपमें से बहुत से प्रायः जुकाम और बुखार से पीडि़त हुए होंगे जिसे डाक्टर फ्लू (इनफ्लूएंजा) अथवा वायरल फीवर कहते हैं। मनुष्य जानवरों तथा पौधों में ये तथा अन्य रोग उप सूक्ष्मदर्शीय संक्रामक कारक वाले वर्ग विषाणु से होते हैं। विषाणु को हम साधारण सूक्ष्मदर्शी से नहीं देख सकते क्योंकि इसका माप 0.015 से लेकर 0.2 माइक्रोन तक होता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि हम इसे सजीव कहें अथवा निर्जीव क्योंकि ये स्वयं वृद्धि नहीं करते। ये केवल अन्य परपोषी सजीवों जैसे जीवाणु, पौधे अथवा जन्तु की कोशिकाओं के अन्दर गुणन कर सकते हैं।

विषाणु उन अन्य सूक्ष्मजीवों की तरह नहीं होते जिनमें कोशिकाकाय तथा अन्य रचनाएं होती हैं। वास्तव में इनका नामकरण उसके परपोषी अथवा बीमारी के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए, तम्बाकू मोजेक वाइरस तम्बाकू के पौधे की कोशिकाओं के अन्दर वृद्धि करता है और पांव तथा मुंह रोग वाइरस पशुओं में पांव तथा मुंह की बीमारी करते हैं। खसरा वाइरस मनुष्य में खसरे का कारण है। एक विषाणु जो जीवाणु को परपोषी के रूप में उपयोग करता है उसे जीवाणुभोजी कहते हैं। विषाणु जनन के लिए परपोषी की कोशिका की ऊर्जा का उपभोग करता है। जैसे ही गुणन करके इनकी संख्या बढ़ती है परपोषी की कोशिका फट जाती है। बच्चों में अंगों का मुड़ना जिसे पोलियोमाइलाइटिस कहते हैं तथा वाइरल पेचिश नामक रोग भी विषाणु के कारण होते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कुछ केन्सर भी विषाणु जनित हैं।

सूक्ष्मजीवों से होने वाले कुछ सामान्य रोग

हमारे चारों ओर कितने विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीव हैं। इनमें से कुछ हमारे दैनिक जीवन में बहुत उपयोगी हैं, और वृक्ष, हवा, तथा पानी की तरह ये भी हमारे पर्यावरण के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से कुछ मनुष्य, पौधे तथा जन्तुओं में रोग उत्पन्न करते हैं। इन सूक्ष्मजीवों को रोग उत्पन्न करने वाले अथवा रोग जनक सूक्ष्मजीव कहते हैं। कुछ हमारी पाचन प्रक्रिया को खराब कर देते हैं जिससे पेचिश हो जाती है। कुछ विष (टाॅक्सिन) उत्पन्न करते हैं जिससे शरीर के सामान्य कार्यों में बाधा आती है। अन्य कुछ जैसे क्षय जीवाणु शरीर के ऊतकों को नष्ट कर देते हैं।

सूक्ष्मजीव हमारे शरीर में विभिन्न विधियों द्वारा प्रवेश कर सकते हैं ये हैं हवा जिसको हम सांस द्वारा लेते हैं, पानी जो हम पीते हैं अथवा पहले से पीडि़त रोगी के सम्पर्क में आने से। लेकिन ये हमेशा ही हमें बीमार नहीं करते हैं। तथापि यदि आप प्रदूषित पानी पियें अथवा खांसी तथा जुकाम से पीडि़त मनुष्य के पास बैठें अथवा संदूषित भोजन करें तो हो सकता है कि आप बीमार हो जाएं। सूक्ष्मजीवी रोग जो संक्रमिक मनुष्य से स्वस्थ मनुष्य में हवा, पानी, भोजन, अथवा स्पर्श के कारण फैलता है उसे संचरणीय रोग कहते हैं। हैजा, जुकाम तथा चेचक संचरणीय रोगों के उदाहरण हैं। कुष्ठ रोग जिसे सामान्यतः संचरणीय रोग समझा जाता है सामान्यतः संक्रमण नहीं करता लेकिन यदि रोगी के सम्पर्क में ज्यादा समय तक रहे तो संक्रमण हो सकता है।

कुछ कीट तथा अन्य जन्तु रोग जनित सूक्ष्मजीवों के वाहक हैं। घरेलू मक्खी जो कूड़े कचरे तथा जन्तुओं की विष्ठा पर बैठती हैं एक सामान्य वाहक है। सूक्ष्मजीव आसानी से इसके शरीर पर स्थित पतले-पतले बालों से आसानी से चिपक जाते हैं और इस प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित हो जाते हैं। वाहक का दूसरा उदाहरण है ऐनोफेलीज मच्छर जो एक विशेष प्रोटोजोआन का परपोषी है। यह प्रोटोजोआन मच्छर के काटने से हमारे रुधिर में चला जाता है जिससे मलेरिया बुखार हो जाता है। विशेष सूक्ष्मजीवों के वाहकों को रोग वाहक या वेक्टर कहते हैं। ऐनोफेलीज तथा ऐडीस दो प्रकार के मच्छर वेक्टर हैं जो मलेरिया तथा पीला ज्वर कर देते हैं।

मनुष्य जो जुकाम से पीडि़त है वह हर समय छींकता रहता है जिससे वह हवा में नमी की कुछ बूँदें भी छोड़ता है जिसमें जुकाम उत्पन्न करने वाले हजारों विषाणु होते हैं। जब नमी वाष्पित हो जाती है तो सूक्ष्मजीव हवा में स्थित धूल कणों से चिपक जाते हैं और बिखर जाते हैं। ये अन्य मनुष्यों में श्वसन द्वारा उनके शरीर में चले जाते हैं। 

सूक्ष्मजीवों से होने वाले कुछ सामान्य रोग से बचाव के उपाय

रोग सूक्ष्मजीवसंचरणबचाव के उपाय (सामान्य)
हैजाजीवाणुपानी/भोजनअपने चारों ओर धूल, पानी को एकत्रा मत होने दो।
टायफायडजीवाणुपानीमनुष्य की विष्ठा तथा अन्य उत्सर्जित पदार्थों को ढ़क कर रखें, उसे पानी के स्रोतों से दूर रखें।
क्षय (तपेदिक)जीवाणुहवा
जुकामविषाणुहवा
चेचकविषाणुहवा/सम्पर्क नियमित रूप से कपड़े धोएं और स्वयं को साफ रखें। यदि आप बीमार तथा स्मालपाॅक्स) हो तो भोजन को न छुएं।
कवकदादसम्पर्क
मलेरियाप्रोटोजोआमच्छरमक्खी तथा मच्छर की वृद्धि को रोकें। ये बहुत से रोगों के वाहक होते हैं।

सूक्ष्मजीव के उपयोग

इनके गुणों का गहन अध्ययन करके मनुष्य इनका बहुत अच्छी प्रकार उपयोग कर सकता है। बेबीलोन तथा सुमारिया के लोगों ने ईसा से 6000 वर्ष पूर्व यीस्ट का उपयोग करके एल्कोहल बनाया था। आजकल उनका उपयोग भोजन उपचार, एल्कोहलीय पेय पदार्थ तथा फलों के रस के संसाधन में किया जा रहा है। अभी हाल ही के वर्षों में वैज्ञानिकों ने कुछ सूक्ष्मजीवों के विशेष गुणों का पता लगाया है जिनका उपयोग नई-नई दवाइयाँ बनाने तथा औद्योगिक उत्पादन को सुदृढ़ करने में किया जा रहा है।

1. सूक्ष्मजीवों की औषधीय उपयोगिता

चीन के लोग मोल्ड युक्त सोयबीन की दही से फफोलों का उपचार और भोजन संक्रमण पर नियंत्रण करते थे। इससे यह पता लगता है कि मनुष्य को उस समय भी ज्ञात था कि एक सूक्ष्मजीव का घातक प्रभाव दूसरे सूक्ष्मजीव पर पड़ता है। लेकिन वैज्ञानिकों को अब इस बात का पता लगा है कि कुछ सूक्ष्मजीव कोई विशेष पदार्थ छोड़ते हैं जो अन्य सूक्ष्मजीवों की वृद्धि कम कर देते हैं अथवा उन्हें मार देते हैं। इन पदार्थों को प्रतिजैविक कहते हैं।

सन् 1929 में, एलेक्जेंडर फ्लेमिंग जब अपनी प्रयोगशाला में रोग जनक जीवाणु संवर्धन पर अनुसंधान कर रहे थे, तब उन्होंने एक बड़ा रोचक दृश्य देखा। उन्होंने देखा कि नीले-हरे मोल्ड के बीजाणु जो एक संवर्धन प्लेट में वृद्धि कर रहे थे, वे संवर्धन में अन्य जीवाणुओं को वृद्धि करने से रोक रहे थे। उन्होंने पता लगाया कि टाॅक्सिन विषैले पदार्थ उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को भी मार रहे थे। बाद में इसी मोल्ड से पेनिसिलीन नामक औषधि बनाई गई जिसका उपयोग बहुत से सूक्ष्मजीवी रोगों के उपचार में किया जाता है।

अन्य प्रचलित एंटिबायोटिक है स्ट्रेप्टोमाइसिन, टैटरासाइक्लिन तथा ग्रामिसिडिन। इनमें से कुछ कवक तथा कुछ अन्य जीवाणुओं से प्राप्त किए जाते हैं। विशिष्ट सूक्ष्मजीवों को औद्योगिक पैमाने पर फैक्टरी में उगाया जाता है और उनसे उपयोगी रसायन निकाला जाता है। इनमें कुछ अणु जिनकी रचना का पता लगा लिया गया है, उन्हें प्रयोगशाला में रसायनों से बनाया जाता है।

जन्तुओं में सूक्ष्मजीवी रोगों को रोकने के लिए उनके आहार में प्रतिजैविक मिलाया जाता है। इनका उपयोग पादप रोगाणुओं की वृद्धि रोकने के लिए भी किया जाता है।

2. टीका

अन्य सूक्ष्मजीवों के संक्रमण के उपचार के लिए सूक्ष्मजीवों से निकाले गए रासायनिक (एंटिबायोटिक) की पहचान करना एक महत्त्वपूर्ण खोज थी। इससे मनुष्य की मृत्यु दर में बहुत कमी आई। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण खोज यह थी कि जब किसी सूक्ष्मजीव की थोड़ी सी मात्रा अथवा उनके सजीव अथवा मृत अंग को इन्जेक्शन द्वारा शरीर में डाला गया, तो रोगकारकों द्वारा उत्पन्न रोगों के प्रकोप में कमी आई। इसकी खोज ब्रिटेन के भौतिक विज्ञानी एडवर्ड जेनर ने की थी। उन्होंने देखा था कि ग्वालों तथा दूध दूहने वाली महिलाओं को कभी चेचक नहीं होती थी। इसका वर्णन करने के लिए उसने अनुमान लगाया कि उनके शरीर में चेचक के प्रति प्रतिरोधिता शायद इसलिए है कि वे लगातार गायों, जो प्रायः गो चेचक से पीडि़त रहती हैं, के सम्पर्क में रहते हैं। इसी अनुमान को ध्यान में रखकर उन्होंने (1798) काऊ पाॅक्स से पीडि़त गाय के घाव के रस के इंजेक्शन को, चेचक पर इसका प्रभाव देखने के लिए, अपने पुत्र की बांह में लगा दिया। वे उस समय उसके प्रभाव की प्रक्रिया नहीं समझते थे। लगभग 50 वर्षों के बाद, पास्चर ने बताया कि चेचक सहित बहुत से रोग विषाणु द्वारा होते हैं। 

समयानुसार रोग जनकों की थोड़ी सी मात्रा को शरीर में प्रविष्ट करा कर विशिष्ट रोगों के प्रति प्रतिरोधिता विकसित करने की प्रणाली प्रचलित हो गई। ऐसे रोग हैं रैबीज, हैजा तथा तपेदिक। पास्चर ने इस प्रणाली को ‘टीका’ (वैक्सिनेशन) का नाम दिया। यह शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है। जिसमें ‘बैका’ का अर्थ है ‘गाय’। वैक्सिन को बनाने के लिए विशिष्ट सूक्ष्मजीव को फैक्टरियों में संवर्धित किया जाता है, और आजकल सजीव अथवा अल्प सक्रिय सूक्ष्मजीवों के बनाने की बहुत सी प्रणालियाँ उपलब्ध हैं। आपको आश्चर्य होगा कि इन कोशिकाओं की थोड़ी सी मात्रा जब शरीर में प्रवेश करती है तो यह कैसे शरीर को भविष्य में होने वाले रोग के प्रति प्रतिरोधी बना देती है, जब कि इन रोगाणुओं को रोग उत्पन्न करना चाहिए। इसके विषय में आप बाद में पढ़ोगे कि जब टीका लगाया जाता है तो शरीर किस प्रकार भविष्य में रोग जनक के प्रवेश को पहचानना सीख जाता है और उससे अपनी रक्षा करता है। 

सरल शब्दों में, इसका वर्णन निम्नलिखित है। 

विश्व में वैक्सिन से बचने वाली रोगों में भारत में होने वाली मृत्यु तथा दोषों का प्रतिशत जब हमारी रुधिर कोशिकाओं का विषाणु कोशिका से आमना-सामना होता है तो वे कुछ विशिष्ट रासायनिक अणु छोड़ती है जो बाहर से प्रविष्ट हुई कोशिकाओं को मार देती है। जब रक्षात्मक अणु एक बार बन जाते हैं तो शरीर में कुछ समय तक बने रहते हैं। इस अवधि में वे बड़ी सफलतापूर्वक विशिष्ट विषाणु के संक्रमण को समाप्त कर देते हैं। हमारे शरीर में उत्पन्न ऐसी प्रतिरोधिता जो संक्रमण से लड़ सके, को प्रतिरक्षा (रोग) कहते हैं और वैक्सिनेशन (टीका लगाना) की इस प्रक्रिया को प्रतिरक्षीकरण कहते हैं।

जब आप बहुत छोटे बच्चे थे तब आपने भी बहुत सी बीमारियों से बचने के लिए अवश्य टीका लगवाया होगा। बच्चों में जो आमतौर पर बीमारी हो जाती हैं, वे हैं पोलियो, काली खांसी, खसरा, डिप्थीरिया, टायफायड तथा टिटनेस। बच्चों को इन बीमारियों से रोगक्षमी बनाना आवश्यक है। भारत में सभी बच्चों तथा गर्भवती महिलाओं को इन बीमारियों के प्रति रोगक्षमी बनाने का कार्यक्रम है। इसके लिए हमें अधिक टीके तैयार करने पड़ेंगे और उन्हें वितरित करना पड़ेगा। टिटनेस का टीका यदि गर्भवती महिला को दिया जाये तो यह बच्चे को माता के गर्भाशय में ही प्रतिरक्षित बना देता है। यदि छोटे-छोटे बच्चों को समय से पहले ही प्रतिरक्षित बना दें तो करोड़ों बच्चों का जीवन बच सकता है।

20वीं शताब्दी के शुरू में चेचक के प्रति लोगों को प्रतिरक्षित बनाने का सारे संसार में एक अभियान चलाया गया था जिसके कारण चेचक समूल नष्ट हो गई। आज, कोई भी इस बीमारी के विषय में सुनता तक नहीं है। इससे थाॅमस जैफरसन के इन शब्दों की पुष्टि होती है जिन्होंने जैनर को 1806 में बताया थाः ‘भावी राष्ट्र इतिहास द्वारा ही जान सकेगा कि कभी चेचक नामक जानलेवा रोग भी होता था और तुमने इसे समाप्त किया था।’

3. औद्योगिक उपयोग

सूक्ष्मजीव रसायन फैक्टरी की तरह है, प्रत्येक सूक्ष्मजीव एक विशिष्ट प्रकार का पदार्थ बनाता है। इनमें से कुछ पदार्थ हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। आप पहले से ही जानते हो कि दही, ब्रेड, पैनिसिलीन, एल्कोहल तथा कार्बनिक अम्ल बनाने में कुछ जीवाणु अथवा कवकों का उपयोग कैसे किया जाता है। एक बार उनके विशिष्ट गुणों का पता लग जाए तो जल्दी ही उन्हें लैग्यूमी पौधे में मूल ग्रंथियाँ अधिक मात्रा में तैयार करने की विधियां भी खोज ली जाती हैं। उदाहरण के लिए, आजकल यीस्ट का उपयोग औद्योगिक रूप में एल्कोहल तथा शराब बनाने में किया जाता है। इसके लिए यीस्ट को कार्बोहाइड्रेट जैसे मक्का तथा आलुओं पर उगाया जाता है। यह कवक कार्बोहाइड्रेट के अणुओं को अपने एंजाइम की सहायता से तोड़ देता है जिसके कारण एल्कोहल बनता है। इसी प्रकार ऐसे ही कुछ जीवाणु हैं जो आलू तथा मक्का में स्थित स्टार्च को तोड़कर कार्बनिक अम्ल जैसे लैक्टिक एसिड तथा एसीटिक एसिड (सिरका) बनाते हैं।

कुछ सूक्ष्मजीवों में वायु की मुक्त नाइट्रोजन के स्थिरीकरण की क्षमता होती है। इसलिए वे फसल-वृद्धि के लिए बहुत उपयोगी हैं। यद्यपि, पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा CO2 का स्थिरीकरण कर सकते हैं लेकिन वे नाइट्रोजन का स्थिरीकरण नहीं कर सकते।

मनुष्य तथा अन्य जन्तु जिन्हें वृद्धि के लिए कार्बन तथा नाइट्रोजन दोनों की आवश्यकता होती है, इनमें से किसी का भी स्थिरीकरण नहीं कर सकते। इसलिए इनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हें पौधों पर निर्भर रहना पड़ता है। कुछ पौधों, जिन्हें लैग्यूम कहते हैं जैसे दाल की मूल ग्रन्थियों में नाइट्रोजन स्थिर करने वाले जीवाणु (राइजोबियम) रहते हैं। ये जीवाणु हवा की मुक्त नाइट्रोजन को घुलनशील नाइट्रोजनी यौगिकों (नाइट्रेट) में बदल देते हैं। पौधे इनका उपयोग प्रोटीन बनाने में करते हैं। इसीलिए सभी दालों में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में होती है।

वैज्ञानिक इन जीवाणुओं में नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्षमता बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे कि प्रोटीन आपूर्ति के लिए पौधों की पैदावार को बढ़ाया जा सके। ऐसे भी अनुसंधान चल रहे हैं जिनमें सूक्ष्मजीवों के कुछ विशेष गुणों का उपयोग कर सकें। इसके अंतर्गत इन जीवाणुओं के गुणों को दूसरे सूक्ष्मजीवों में स्थानान्तरित करने का प्रयास किया जा रहा है। ये सूक्ष्मजीव मुख्यतया जीवाणु हैं क्योंकि इन पर कार्य करना आसान होता है। इस विधि द्वारा वैज्ञानिकों ने ऐसे नए जीवाणु बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है जिनसे विशिष्ट कार्य पूरे होते हैं, जैसे वे जीवाणु जो समुद्र में जहाजों से गिरे तेल को खा लेते हैं, अथवा ऐसा जीवाणु जो जीवनदायिनी औषधि बना सके जैसे इन्सुलिन। नई एच्छिक एवं विशिष्ट गुणों वाली नई कोशिकाओं का विकास करने की विधि को आनुवंशिक इंजीनियरिंग कहते हैं।

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