बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था क्या थी? बंगाल में द्वैध शासन की शुरुआत किसने की

बंगाल विजय के बाद इलाहाबाद की संधि से मुगल सम्राट शाहआलम से अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हो गई। दीवानी से अभिप्राय है भूमिकर वसूल करना और भूमि-कर सम्बन्धी दीवानी मुकदमों का निर्णय करना। बंगाल के नवाब नजमुद्दौला से अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की निजामत भी प्राप्त हो गई थी। निजामत से अभिप्राय है कि आन्तरिक सुरक्षा, शांति तथा सुव्यवस्था, न्याय-व्यवस्था और फौजदारी मुकदमों का निर्णय। इस प्रकार बंगाल की दीवानी और निजामत ब्रिटिश कम्पनी को प्राप्त हो गई थी। इसको छोड़कर सामान्य प्रशासन नवाब के अधिकार में रहा। कम्पनी के पास इतने अधिक कर्मचारी नहीं थे। कि वह बंगाल प्रान्त की दीवानी और निजामत का पूरा प्रशासन स्वयं संभाल पाती, इसलिये भूमि कर की वसूली और न्याय व्यवस्था कम्पनी ने भारतीय अधिकारियों को दे दी। इस कार्य के लिए कम्पनी ने बंगाल में रजाखाँ को और बिहार में सिताबराय को नायब दीवान नियुक्त किया। जिलों में भूमि-कर वसूली के लिए प्रतिवर्ष ठेके दिये जाते थे। इस तरह  प्रतिवर्ष उनसे ली जाने वाली भूमि कर की राशि निर्धारित की जाती थी। आमिल भूमिकर की राशि नायब दीवानों को देते थे और नायब दीवान उसे कंपनी के अधिकारियों के द्वारा कम्पनी के कोष में जमा कर देते थे। ये सभी कार्य दीवानी के अंतर्गत आते थे। बंगाल प्रान्त में सेना, पुलिस और शांति व्यवस्था, जिसे निजामत कहते थे, वह ब्रिटिश कंपनी के अधिकार में थी।

उपरोक्त व्यवस्था के अतिरिक्त बाकी व्यवस्थायें पूर्ववत ही बनी रहीं। नवाब के अधिकारी और कर्मचारी प्रशासन में दीवानी कार्यों को छोड़कर शेष समस्त कार्य पूर्ववत ही सम्पन्न करते रहे। इस प्रकार बंगाल में एक ही समय में दो प्रकार की शासन व्यवस्थायें हो गई.। राजस्व या भूमि-कर व्यवस्था का सम्पूर्ण अधिकार और सैन्य-शक्ति तो ब्रिटिश कम्पनी के पास रही। किन्तु प्रशासन का उत्तरदायित्व नवाब पर था।

इस प्रकार ब्रिटिश कम्पनी बंगाल की अप्रत्यक्ष शासक थी। प्रत्यक्ष रूप से बंगाल का शासक नवाब ही बना रहा। प्रशासन का उत्तरदायित्व भी उसका ही था। प्रशासन के कार्य नवाब के कर्मचारी पूर्ववत ही करते रहे। किन्तु नवाब के समस्त अधिकार छीन लिये गये। वह अब स्वतंत्र शासक नहीं था अपितु वह कम्पनी की अनुकम्पा और वार्षिक अनुदान पर निर्भर हो गया था। बंगाल में लाॅर्ड क्लाइव द्वारा लागू इस व्यवस्था को द्वैध शासन व्यवस्था कहते हैं।

बंगाल में द्वैध-शासन बंगाल व्यवस्था

लाॅर्ड क्लाइव ने 1765 ई. में बंगाल में द्वैध-शासन व्यवस्था लागू की थी और यह व्यवस्था 1772 ई. तक चलती रही। 1767 ई. में क्लाइव के बाद वर्लस्ट (1765 ई.-1769 ई.) तथा कर्टियर (1769 ई.-1772 ई.) बंगाल में ब्रिटिश कंपनी के गवर्नर रहे। इनके शासनकाल में द्वैध-शासन के समस्त दोष पूर्णतया परिलक्षित होने लगे थे। ये दोनों साधारण प्रतिभा के व्यक्ति थे। अतः द्वैध-शासन के दोषों का निराकरण करने में पूर्णतः असमर्थ रहे। इनका शासन-काल दुर्भिक्ष, लूटमार, भ्रष्टाचार, अत्याचार और प्रजा के उत्पीड़न का युग था। इनके काल में ब्रिटिश कम्पनी की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, किन्तु ब्रिटिश अधिकारी और कर्मचारी स्वयं का व्यापार करने के कारण मालामाल हो गये थे। आन्तरिक व्यापार पर ब्रिटिश कम्पनी के कर्मचारियों का एकाधिकार था। द्वैध-षासन ने उत्तरदायित्व रहित अधिकार और अधिकार रहित उत्तरदायित्व का दूषित वातावरण बना दिया था। इससे कृषि, उद्योग और व्यापार ठप्प हो गये। 

1770 ई. में भीषण अकाल पड़ा। प्रकृति ने भी बंगाल की दुव्र्यवस्था को और भी भयंकर बना दिया। कुशासन के कारण निर्बल बनी बंगाल की जनता में अकाल के भीषण कष्टों को सहन करने की षक्ति नहीं रही और बंगाल के एक तिहाई लोग मृत्यु के मुंह में समा गये। कृषि का पतन हुआ और भूमि कर से प्राप्त होने वाली आय घट गयी, कम्पनी का व्यापार भी कम हो गया। किन्तु फिर भी दुर्भिक्ष का लाभ अंग्रेजों ने उठाया। उन्होंने अनाज गोदामों में एकत्रित कर ऊँचे दामों पर बेचना प्रारंभ किया। 

इससे जनता के कष्ट और अधिक बढ़ गये। दुर्भिक्ष की स्थिति में भी कम्पनी ने भूमि-कर की वसूली नृशंसता से जारी रखी। 1770-71 ई. में अकाल के कारण 5 % भूमि कर कम कर दिया गया। किन्तु अगले ही वर्ष उससे 10 % की वृद्धि कर दी गयी। भूमि-कर की अधिक से अधिक वसूली करने के लिये और आमिलों के अत्याचारों को रोकने के लिए ब्रिटिश निरीक्षक नियुक्त किए गए। बंगाल 30 जिलों में विभक्त कर दिया गया और प्रत्येक जिले में एक निरीक्षक था। ये ही बाद में कलेक्टर कहलाने लगे। किन्तु ये अपने निजी व्यापार में संलग्न रहने के कारण प्रशासन में असफल रहे। 1770 ई. में पटना और मुर्षिदाबाद में भूमि कर समितियाँ स्थापित की गयी। ये वहाँ के ब्रिटिश रेजीडेंट के अधीन रखी गयीं। इन्हें भू-राजस्व, न्याय, पुलिस, आदि के शासन का निरीक्षण करने का अधिकार दिया गया। ये भूमि-कर समितियाँ इतनी अधिक शक्तिषाली हो गयीं कि उन्होंने कलकत्ता कौंसिल के आदेशों की भी निरन्तर अवहेलना की। इससे बंगाल में समान्तर शासन स्थापित हो गया। एक ओर ब्रिटिश कम्पनी, उसके अधिकारी, निरीक्षक और भूमि कर समितियों का षासन था, तो दूसरी ओर नवाब के अधिकारियों का। प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश कम्पनी ने शासन का उत्तरदायित्व अपने पास नहीं रखते हुए उसे नवाब के पास ही रहने दिया ताकि अपने नैतिक उत्तरदायित्व से बच सकें।

जब ब्रिटिश कम्पनी के संचालकों को द्वैध-शासन और उसके दोष, बंगाल के दुर्भिक्ष और उससे हुई गहरी क्षति की सूचना मिली तो उन्होंने अगस्त 1771 ई. में कलकत्ता कौंसिल के अध्यक्ष को आदेष दिया कि वे स्वयं दीवान के रूप में कार्य करें तथा भूमि कर की वसूली का कार्य-कम्पनी के कर्मचारियों द्वारा ही किया जाय। नवाब दीवान और उनके अधीन कार्य करने वाले समस्त कर्मचारियों को पदच्युत किया जाय तथा मुहम्मद रजाखाँ और सिताबराय दोनों नायब दीवानों पर मुकदमा चलाया जाय। जिससे गबन और रिश्वत का पता चल सके। साथ ही कम्पनी के संचालकों ने वाॅरेन हेस्टिंग्स को बंगाल की स्थिति सुधारने हेतु 1772 ई. में बंगाल का गवर्नर बना कर भेजा जिसने आते ही द्वैध-शासन समाप्त कर दिया।

द्वैध शासन के गुण (ब्रिटिश कंपनी को लाभ)

(1) ब्रिटिश कम्पनी को प्रशासकीय सुविधा - बंगाल में जिस समय द्वैध-शासन स्थापित किया गया, उस समय वह उचित और उपयुक्त था। ब्रिटिश कंपनी को इससे प्रशासकीय सुविधा थी क्योंकि कम्पनी इस समय कोई राजनीतिक भार और प्रषासकीय उत्तरदायित्व संभालने की क्षमता नहीं रखती थी। उसके पास अनुभवी कर्मचारियों का अभाव था। इसलिए द्वैध-शासन से कम्पनी का प्रशासकीय कार्यभार अत्यल्प रहा और बंगाल पर उसका पूर्ण नियंत्रण बना रहा।

(2) भारतीय शासकों पर प्रभाव - ब्रिटिश कंपनी यदि बंगाल के नवाब को पृथक कर स्वयं शासन चलाती तो प्रत्यक्ष रूप से वह सत्ता और अधिकार अपने हाथ में ले लेती। इससे अन्य भारतीय शासक भी सशंकित हो जाते और वे सम्मिलित रूप से अंग्रेजों का विरोध कर सकते थे।

(3) आर्थिक लाभ - ब्रिटिश कंपनी यदि स्वयं प्रशासन चलाती तो उसे नवीन अधिकारी व कर्मचारी ऊँचे वेतन पर रखना पड़ते। इससे आर्थिक भार में वृद्धि होती। नवाब के कम वेतन के कर्मचारियों द्वारा प्रशासन चलाये जाने से और प्रशासन व अन्य व्यय के लिए नवाब को प्रतिवर्ष निर्धारित धनराशि देने से ब्रिटिश कम्पनी को महत्वपूर्ण आर्थिक बचत हुई।

(4) यूरोपपीय देशों के विरोध से मुक्ति - यूरोप के अन्य देश यह सहन नहीं कर सकते थे, कि भारत में उनके व्यापारियों पर ब्रिटिश कम्पनी शासन करे। यूरोप के अन्य देशों जैसे फ्रांसीसियों और डचों से क्लाइव भयभीत था। वे बंगाल में ब्रिटिश कम्पनी के निरन्तर बढ़ते हुए प्रभुत्व को देखकर अंग्रेजों से ईर्ष्या और शत्रुता करते और भारतीय शासकों से विशेषकर बंगाल के नवाब को अपने पक्ष में करके अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ सकते थे। इसलिए द्वैध शासन में बंगाल के नवाब को शासक बना रहने दिया गया, जिससे कि फ्रांसीसी और डच आदि के संभावित विरोधों से मुक्ति मिल सके। 

द्वैध शासन के दोष (बंगाल को हानि)

(1) उत्तरदायित्व का अभाव - द्वैध-शासन का सर्वाधिक गम्भीर दोष यह था कि बंगाल में उत्तरदायित्व रहित अधिकार और अधिकार रहित उत्तरदायित्व का दूषित वातावरण बन गया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा का समस्त भूमिकर नवाब के भारतीय अधिकारियों द्वारा वसूल कर कम्पनी के कोष में जमा किया जाता था किन्तु सुरक्षा व्यवस्था के लिए सेना कम्पनी की होती थी, जबकि, कम्पनी पर प्रशासन का कोई उत्तरदायित्व नहीं था। कम्पनी ने आन्तरिक प्रशासन को अपने हाथों में नहीं लिया था। शासन -प्रबन्ध नबाव के अधिकारी और कर्मचारी ही करते रहे और वे ही प्रशासन के लिए उत्तरदायी थे। किन्तु इन व्यवस्थाओं के लिए उनके पास राजकोष या धन नहीं था। इस प्रकार द्वैध-शासन में सत्ता, अधिकार और धन कम्पनी के पास थे और समस्त कर्तव्य नवाब के उत्तरदायित्व थे।

(2) पोषण, कुशासन और अराजकता - बंगाल का राजकोष और सेना कम्पनी के अधिकार में थी, जिसका उसने पूरा राजनीतिक और आर्थिक लाभ भी उठाया। किन्तु प्रशासन की ओर कम्पनी ने जरा भी ध्यान नहीं दिया। इससे षांति और न्याय-व्यवस्था बिगड़ गयी। नवाब के फौजदारों के पास पर्याप्त सैनिक और धन नहीं होने से शांति-व्यवस्था स्थापित करने और चोर, डाकुओं को पकड़ने में वे असमर्थ रहे। कम्पनी के ब्रिटिश कर्मचारी और उनके गुमाश्ते प्रजा को लूटने और उनसे धन वसूल करके उनका शोषण करते थे, क्योंकि उनके पास षक्ति थी। इससे प्रशासन में अव्यवस्था और अराजकता आ गयी। 

नवाब, प्रजा की दुर्दषा सुधारने और कुषासन का निराकरण करने में तथा उस पर नियन्त्रण करने मंे असमर्थ था क्योंकि धन और सैनिक षक्ति नवाब के पास नहीं थे। कम्पनी के पास धन, सत्ता और अधिकार थे, किन्तु जनता के प्रति उन्हें कोई सहानुभूति नहीं थी। कम्पनी के कर्मचारी भी उदद्ण्ड थे। वे नवाब की आज्ञाओं की कोई चिंता नहीं करते थे। इससे कम्पनी के कर्मचारियों और नवाब के कर्मचारियों में परस्पर झगड़े होते थे। जिससे प्रषासन षिथिल हो गया और राज्य में अराजकता का वातावरण बन गया ।

(3) कृषि का पतन - ब्रिटिश कम्पनी द्वारा भूमि कर की वसूली करने में अत्यन्त कठोरता का व्यवहार किया जाता था। अधिक भूमि-कर वसूल करने हेतु जिलों में आमिलों को प्रतिवर्ष ठेके दिये जाते थे जिससे उन्हें मालगुजारी वसूल करने का अधिकार मिल जाता था। आमिल कृषकों के हितों की कोई चिंता नहीं करते थे, क्योंकि उनके ठेके स्थायी नहीं थे इसलिए वे एक ही वर्ष में अधिक से अधिक धन प्राप्त करना चाहते थे। इस प्रकार कम्पनी और आमिलों की भूमि-कर की मांग निरन्तर बढ़ती गयी और इसका अन्तिम भार कृषकों को वहन करना पड़ा। आमिल कृषकों पर अत्याचार करके उनसे अधिकाधिक धन वसूल करते थे। किन्तु नायब दीवान उनके अत्याचारों को नहीं रोकते थे, क्योंकि इससे भूमि कर कम होने की सम्भावना थी। इन परिस्थितियों में कृषकों की स्थिति अत्यन्त सोचनीय हो गयी, और कृषि का पतन होने लगा।

(4) उद्योग-धन्धों का पतन - द्वैध षासन से भारतीय उद्योग-धन्धों को गहरा आघात लगा। अंग्रेजों को कर मुक्त व्यापार की सुविधा थी और कम्पनी के कर्मचारी अपना निजी व्यापार भी खूब करते थे। वे भारतीय कारीगरों और जुलाहों को बाध्य करते थे कि वे अंग्रेजों का माल बाजार-भाव से कम दाम पर बेचे। उन्होंने जुलाहों को इतना आतंकित कर रखा था कि उनको अंग्रेज व्यापारियों के अतिरिक्त किसी अन्य का कार्य ही नहीं करने दिया जाता था। यदि जुलाहे और कारीगर अंग्रेजों की आज्ञाओं की अवहेलना करते तो अंग्रेजों के गुमाश्ते उनको पीटते थे और बन्दी बना लेते थे। अंग्रेजों ने दण्ड-स्वरूप कई जुलाहों के अंगूठे काट दिये। कारीगरों का अंग्रेजों द्वारा अत्यधिक शोषण किया जाने लगा। अंग्रेज व्यापारी जुलाहों को एक निश्चित समय में एक प्रकार का वस्त्र बुनने को बाध्य करते थे और अपनी इच्छानुसार उनको कम से कम मूल्य देते थे। कच्ची रेशम लपेटने वाले श्रमिकों व रेशम के कारीगरों पर अंग्रेजों ने इतने अधिक अत्याचार किये कि कुछ कारीगरों ने अपने हाथों के अंगूठे तक कटवा दिये जिससे वे अंग्रेज कर्मचारियों के गुमाश्तों के अत्याचारों से बच सकें। उन्होंने काम करना बंद कर दिया और जीविकोपार्जन के लिए अन्य प्रदेशों में चले गये। फलतः बंगाल के कई उद्योग-व्यवसाय विशेषकर रेशमी और सूती वस्त्र उद्योग समाप्त हो गये।

(5) निरीक्षकों  की मनमानी - बंगाल में भूमि कर की वसूली ठीक हो तथा अधिक से अधिक भूमि-कर वसूल हो, आमिल कृषकों पर अत्याचार न करें, इसके लिये कम्पनी ने 1769 ई. में अंग्रेज निरीक्षक नियुक्त किये। किन्तु इससे कोई लाभ नहीं हुआ। भूमिकर व्यवस्था और दीवानी मुकदमों के न्याय में उनका कोई प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व नहीं था। इन निरीक्षकों को निजी व्यापार करने की सुविधा थी। इसलिये इन्होंने निरीक्षण कार्य की अवहेलना की और निजी व्यापार से अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने के प्रयास किये। फलतः जनता का शोषण हुआ।

(6) दुर्भिक्ष और रोग - बंगाल में जब द्वैध-शासन से जनता का षोषण हो रहा था एवं समाज में अराजकता और अत्याचार का वातारवरण था, तब बंगाल में 1770 ई. में अनावृष्टि के कारण भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। इसी के साथ प्लेग और चेचक जैसी महामारियों ने जनता का जीना दुष्कर कर दिया। कृषि नष्ट हो गयी, कृषक भूखे मरने लगे। व्यापार ठप्प हो गया। किन्तु यहां भी अंग्रेजों ने भारत की संकटापन्न स्थिति का लाभ उठाया। उन्होंने संग्रहित अनाज ऊँचे भावों में बेचा। अकाल, प्लेग और चेचक से बंगाल के अनेक लोग मौत के मुंह में चले गये। अनेक डाकू, लुटेरे और सन्यासी बन गये। इससे राज्य में अराजकता और अव्यवस्था फैली। ब्रिटिश कंपनी की धन-लोलुपता और कर्तव्यों की उपेक्षा के कारण ही ऐसी भयंकर स्थिति निर्मित हुई। 

इस प्रकार द्वैध शासन अत्यधिक दोषपूर्ण और अव्यावहारिक था इसीलिए यह पूर्णतः अलोकप्रिय तथा असफल हुआ। निश्चित रूप से द्वैध-शासन जनता के लिये एक भयंकर अभिशाप था।

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