11 नवम्बर, 1918 ई. को प्रथम महायुद्ध की विराम संधि पर मित्र राष्ट्रों के सेनापति मार्शल फॉच एवं जर्मन प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किये। प्रथम विश्वयुद्ध में एक ओर अत्यधिक आर्थिक हानि हुई तो दूसरी ओर भारी संख्या में नरसंहार हुआ। इस कारण विश्व के सभी देश शांति स्थापना की ओर अग्रसर हुए। जर्मनी ने अमेरिकी राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन की 14 सूत्रीय योजना को पढ़कर आत्मसमपर्ण किया था। अब शांति स्थापना एवं परास्त राष्ट्रों के साथ संधियाँ करने हेतु 1919 ई. में पेरिस में शांति सम्मेलन का आयोजन किया गया।
शांति-सम्मेलन का आयोजन फ्रांस की राजधानी पेरिस में किया गया। 1919 के प्रारंभ से विभिन्न देशों के प्रतिनिधि देशों के प्रतिनिधि-मण्डल वहाँ पहुँचने लगे। कई प्रतिनिधि-मण्डलों की संख्या तो सैकड़ों में थी, जिनमें मंत्री, कूटनीतिज्ञ, कानून और आर्थिक विशेषज्ञ, सैनिक, पूँतिपति, मजदरूों के नेता, संसदीय सदस्य और प्रमुख नागरिक थे। इसके अतिरिक्त संसार के कोने-कोने से पत्र-प्रतिनिधि एवं संवाददाता भी पेरिस पहुँचे थे। सम्मेलन के अवसर पर पेरिस में स्वयं अमेरिका के राष्ट्रपति तथा विभिन्न देशों के ग्यारह प्रधान मंत्री और बारह विदेश-मंत्री मौजूद थे।
इस विशिष्ट जन-समूह में निम्नलिखित लोगों के नाम उल्लेखनीय हैं-फ्रांस सके क्लिमेंशी पिसों, टाडियू और कैम्बाे, अमेरिका के लासिंग और कर्नल हाउस, ब्रिटेन के लायड जॉर्ज, बालफर और बाने रली इटली के ओरर्क्रडैों और सोनिनो, बेल्जियम के हईमन्स, पोलैंड के डिमोस्स, यूगोिस्लाविया के पाशिष, चैकोस्लोवाकिया के बेनेस, यूनान के वेनिजेलोस तथा दक्षिण अफ्रीका के स्मट्स तथा वोथा इत्यादि। सोवियत रूस को सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए निमंत्रित नहीं किया गया था। पराजित राष्ट्रों को भी सम्मेलन में भाग लेने के लिए नहीं बुलाया गया था, क्योंकि उनका काम केवल इतना ही था कि संधि का मसविदा पूर्ण हो जाने पर अपने हस्ताक्षर कर दे।
18 जनवरी, 1919 को फ्रांस के विदेश-मंत्रालय में पोअन्कारे शांति-सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये। इतने बड़े सम्मेलन में इतने महत्वपूर्ण काम होना व्यावहारिक रूप से असंभव था। अत: सम्मेलन की कार्यवाही को चलाने के लिए दस व्यक्तियों की एक ‘सर्वोच्च शांति परिषद’ बनाई गयी। इस परिषद में तत्कालीन महान राष्ट्रों-अमेरिका, फ्रांस , ब्रिटेन, जापान और इटली के प्रधान प्रतिनिधि थे। साधारण अधिवेशन में रखे जाने वाले विषयों का चुनाव वे ही करते थे। सम्मेलन ने उनके फैसलों को निर्विरोध स्वीकार कर लिया था। बाद में दस व्यक्तियों की परिषद भी शीघ्रता से काम करने और कार्यवाही की गोपनीयता रखने के दृष्टिकोण से बहुत बड़ी साबित हुई। अत: मार्च, 1919 में यह काम केवल चार व्यक्तियों के जिम्मे ही सुपुर्द कर दिया गया। ये चार व्यक्ति विल्सन, लायड जॉर्ज, क्लिमेंशाे तथा और लैंडा े थे। संसार के भाग्य का निपटारा पूरी तरह से इन महापरूु “ज्ञों के हाथ में था।
18 जनवरी, 1919 को फ्रांस के विदेश-मंत्रालय में पोअन्कारे शांति-सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये। इतने बड़े सम्मेलन में इतने महत्वपूर्ण काम होना व्यावहारिक रूप से असंभव था। अत: सम्मेलन की कार्यवाही को चलाने के लिए दस व्यक्तियों की एक ‘सर्वोच्च शांति परिषद’ बनाई गयी। इस परिषद में तत्कालीन महान राष्ट्रों-अमेरिका, फ्रांस , ब्रिटेन, जापान और इटली के प्रधान प्रतिनिधि थे। साधारण अधिवेशन में रखे जाने वाले विषयों का चुनाव वे ही करते थे। सम्मेलन ने उनके फैसलों को निर्विरोध स्वीकार कर लिया था। बाद में दस व्यक्तियों की परिषद भी शीघ्रता से काम करने और कार्यवाही की गोपनीयता रखने के दृष्टिकोण से बहुत बड़ी साबित हुई। अत: मार्च, 1919 में यह काम केवल चार व्यक्तियों के जिम्मे ही सुपुर्द कर दिया गया। ये चार व्यक्ति विल्सन, लायड जॉर्ज, क्लिमेंशाे तथा और लैंडा े थे। संसार के भाग्य का निपटारा पूरी तरह से इन महापरूु “ज्ञों के हाथ में था।
सर्वसाधारण की तो बात ही क्या, स्वयं अन्य मित्रराष्ट्रों के राजनीतिज्ञों की भी कोई पूछ नहीं थी। उपर्युक्त चार व्यक्ति ही गुप्त रूप से सभी बातों का फैसला कर लिया करते थे। ‘सर्वोच्च शांति परिषद’ के अतिरिक्त सम्मेलन में 58 के लगभग छोटे-बड़े आयागे और उप-समितियाँ थी। इनका काम था कि वे विविध समस्याओं-राष्ट्रसंघ का संगठन, हरजाने की रकम, अल्पसंख्यक जातियों की समस्या इत्यादि प्रश्नों पर विशद रूप से विचार करके अपनी रिपाटेर् पेश करे। किन्तु इस रिपोर्ट पर अंतिम निर्णय देने का अधिकार ‘सर्वोच्च शांति-परिषद’ को था और सम्मेलन का कार्य इसी निर्णय का अनुमोदन करना था।
पेरिस शांति सम्मेलन की समस्या
पेरिस शांति सम्मेलन को अपने उक्त उद्देश्यों को प्राप्त करना कोई सरल कार्य नहीं था। उसके समक्ष कई समस्यायें विद्यमान थीं। सबसे बड़ी समस्या प्रमुख प्रतिनिधियों के मध्य उचित तालमेल के अभाव एवं विरोधाभासी चरित्र की थी। एक ओर क्लीमेंशू एवं लायड जार्ज जर्मनी पर प्रतिशोधात्मक संधि आरोपित करना चाहते थे तो दूसरी ओर वुडरो विल्सन जर्मनी के आत्म निर्णय के सिद्धांत की रक्षा करना चाहते थे। क्लीमेंशू एवं लायड जार्ज की महत्वाकांक्षा के मार्ग में वुडरो विल्सन के 14 सूत्र बाधाएँ उत्पन्न कर रहे थे। अत: क्लीमेंशू एवं लायड जार्ज ने संधियों का मसौदा बनाते समय वुडरो विल्सन के 14 सूत्रों की अनदेखी की। चूँकि जर्मनी ने इन 14 सूत्रों की शर्तों पर ही आत्म समर्पण किया था अत: जर्मनी इससे अत्यधिक नाराज हुआ।संदर्भ -
- Jackson, The between War World, London, 1947.
- N. Manserg, The Comming of the First World War (1878-1914), 1949.
- R. Lansing, The Big Four and others of the Peace Conference.
- R.S. Baker, Budro Wilson and the World Settlement, 3 Vol., 1923.
- S.B. Fay, Origins of the War, 1923.
- H.W.V. Temperly, A History of the Peace Conference, 3 Vol.
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