संस्कृत महाकाव्य के नाम और परिचय

संस्कृत भाषा में विगत लगभग 2500 वर्षों से अनेक मौलिक काव्य रचनाएं अस्तित्व में आयीं जिनमें भारतीय प्रतिभा तथा काव्यरचना सामर्थ्य का वैशिष्ट्य परिलक्षित होता है। इन महाकाव्यों के माध्यम से इनके रचयिताओं ने भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों को पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। 

महाकाव्यों की रचना करने में महाकवि पद्यात्मक शैली को अपनाकर छन्दों की सीमा में रहते हुए अपने विचारों को सुरुचिपूर्ण विधि से कविता में उपनिबद्ध करते हैं। संस्कृत महाकाव्य सनातन परम्परा तथा लोकसंस्कृति के सच्चे पथप्रदर्शक माने जाते हैं।

संस्कृत महाकाव्य परम्परा का प्रारम्भ आर्ष महाकाव्यों - महर्षि वाल्मीकि के रामायण तथा उसके बाद महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत से माना जाता है। महाकवि कालिदास, अश्वघोष, भारवि, भट्टि, कुमारदास, माघ इत्यादि महाकवि इस परम्परा में उल्लेखनीय हैं।

संस्कृत महाकाव्य के नाम और परिचय

1. रामायण - 

आदिकवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा 24हजार पद्यों में विरचित सप्तकाण्डात्मक आदिकाव्य ‘रामायण’ में इक्ष्वाकुवंशीय भगवान् श्रीराम के जन्म, विवाह, वनगमन, सीतापहरण, सीतान्वेषण, सुग्रीवमैत्री, राक्षसवध, लंकाधिपति रावणवध, सीता अग्निपरीक्षा, लवकुशोत्पत्ति, सीताभूमिप्रवेश तथा श्रीराम के महाप्रयाण तक के सम्पूर्ण चरित को विस्तार के साथ काव्यात्मक शैली में चित्रित किया गया है। 

2. महाभारत 

महाभारत की रचना कृष्णद्वैपायन बादरायण महर्षि वेदव्यास द्वारा की गयी। इसमें 18 पर्व हैं- आदि, सभा, वन, विराट्, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक, स्वर्गारोहण। इन पर्वों में 1920अध्याय तथा लगभग 84हजार श्लोक हैं। 

महाभारत के परिशिष्ट हरिवंशपुराण में लगभग 12हजार श्लोक जोड़े गये। इस प्रकार महाभारत में लगभग एक लाख श्लोक होने से इसको शतसाहस्रीसंहिता भी कहा जाता है। इसमें कौरवों तथा पाण्डवों के मध्य हस्तिनापुर के साम्राज्य के लिए हुए कौटुम्बिक संघर्ष का वर्णन है। 

महाभारत के तीन संस्करण हुए- व्यासरचित जयसंहिता, वैशम्पायन द्वारा परिष्कृत भारतसंहिता तथा सौति द्वारा परिवर्द्धित महाभारतसंहिता। 

महाभारत की रचना 400ई0पू0 मानी जाती है, परन्तु इसके मौलिक रूप का अविर्भाव इतिहासकार बुद्धपूर्व मानते हैं। महाभारत को भी रामायण के सदृश आर्ष तथा उपजीव्य महाकाव्य माना जाता है।

3. कुमारसम्भव - 

महाकवि कालिदास संस्कृत के सर्वमान्य कवि माने जाते हैं। इनकी सात कृतियाँ प्रसिद्ध हैं- दो महाकाव्य- रघुवंश और कुमारसम्भव; दो खण्डकाव्य- ऋतुसंहार और मेघदूत तथा तीन नाटक- मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञानशाकुन्तल। 

4. रघुवंश - 

वाल्मीकि-रामायण, विष्णुपुराण, वायुपुराण में उपलब्ध सूर्यवंशीय राजाओं के चरितों को आधार बनाकर महाकवि कालिदास ने ‘रघुवंश’ नामक 19सर्गों के महाकाव्य की रचना की। इसमें सूर्यवंशीय राजा दिलीप से प्रारम्भ कर अग्निवर्ण तक 32राजाओं का उल्लेख मिलता है। इसके प्रारम्भिक 9सर्गों में श्रीराम के चार पूर्वजों- दिलीप, रघु, अज और दशरथ का वर्णन है; 10वें सर्ग से 15वें सर्ग तक श्रीराम के सम्पूर्ण चरित का तथा अन्तिम 4सर्गों में श्रीराम के वंशजों का वर्णन मिलता है। 

5. बुद्धचरित- 

अश्वघोष प्रथम शताब्दी के कुषाणवंशीय कश्मीर नरेश कनिष्क के गुरु तथा आश्रित कवि थे। इनके दोनों महाकाव्यों की पुष्पिका में प्राप्त विवरण से विदित होता है कि इनका जन्म साकेत में हुआ तथा इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था। इनको ब्राह्मण कुल का माना जाता है, क्योंकि बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के अनन्तर भी इनके काव्यों में शास्त्रों तथा वेदों के अनेक सिद्धान्त मिलते हैं। कालान्तर में पाश्र्व के शिष्य पूर्णयशस् ने इनको बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। साधारण जनता को बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों से परिचित कराने के लिए इन्होंने बुद्धचरित और सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की रचना की।

थम तथा चतुर्दश सर्ग अपूर्ण हंै। 14 से 17 सर्ग की पूर्ति किसी अमृतानन्द नामक नेपाली पण्डित द्वारा की गयी।
इस महाकाव्य में भगवान् बुद्ध के गर्भाधान तथा जन्म से प्रारम्भ कर बुद्धत्वप्राप्ति तक का जीवनचरित वर्णित है। प्रथम सर्ग में असित मुनि द्वारा की गयी बुद्धविषयक भविष्यवाणी का वर्णन है। दूसरे सर्ग में महाराज शुद्धोदन द्वारा सिद्धार्थ को अपने प्रासाद में सुखोपभोगों में आसक्त करने का प्रयास किया जाता है। तीसरे सर्ग में रोगी, वृद्ध तथा मृत को देख बुद्ध विरक्त हो जाते हैं। चतुर्थ सर्ग में सुन्दर युवतियों के द्वारा रिझाने का प्रयास किए जाने पर भी पाँचवे सर्ग में सिद्धार्थ महाभिनिष्क्रमण कर जाते हैं। छठे सर्ग में सारथि छन्दक की व्याकुलता चित्रित है। सातवें सर्ग में सिद्धार्थ तपोवन में प्रवेश करते हैं तथा आठवें में सिद्धार्थ के वियोग में स्त्रियों का विलाप चित्रित है। नवम में सिद्धार्थ को शुद्धोदन खोजते हैं। दशम में सिद्धार्थ मगध पहुँचते हैं। एकादश सर्ग में उनके द्वारा कामनिन्दा के अनन्तर द्वादश में अराड ऋषि के आश्रम के पहुँच धर्मोपदेश प्राप्त करना वर्णित है। सिद्धार्थ अराड के उपदेशों पर विचार कर तपस्या प्रारम्भ करते हैं कि त्रयोदश सर्ग में मार(काम) उनकी तपस्या में विघ्न डालता है। बहुत प्रयास करने पर भी सिद्धार्थ से परास्त होता है मार। चौदहवें सर्ग में सिद्धार्थ के बुद्धत्वप्राप्ति का वर्णन है।

इसके बाद के सर्ग जो संस्कृत में नहीं मिलते उनमें बुद्ध के धर्मचक्रप्रवर्तन, शिष्यपरम्परा, पिता से मुलाकात, उपदेशों तथा निर्वाण की प्रशंसा का वर्णन है।

7. किरातार्जुनीय - 

महाकवि भारवि विरचित किरातार्जुनीय महाकाव्य 18सर्गों में उपनिबद्ध है जिसका वृत्तान्त महाभारत के वनपर्व से लिया गया है। भारवि का समय 550 से 600 ई0 के मध्य माना जाता है, क्योंकि 634 ई0 के पुलकेशिन द्वितीय के प्रशस्ति लेखक रविकीर्ति के बीजापुर के ऐहोल ग्राम से मिले शिलालेख में भारवि का उल्लेख मिलता है- स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः- यहाँ रविकीर्ति ने स्वयं को कलिदास तथा भारवि के समान यशस्वी बताया है। किरातार्जुनीय महाकाव्य में किरातवेशधारी शिव और अर्जुन का इन्द्रकील पर्वत पर युद्ध तथा शिव द्वारा प्रसन्न हो अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्रदान करने की घटना प्रधान है।

8. रावणवध/भट्टिकाव्य - 

भारवि के पश्चात् संस्कृत महाकाव्य परम्परा में महाकवि भट्टि विरचित ‘रावणवध’ महाकाव्य का स्थान आता है। इसको भट्टिकाव्य भी कहा जाता है। इस महाकाव्य में 22 सर्ग हैं। इसमें भगवान् श्रीराम के जन्म से प्रारम्भ कर राज्याभिषेक तक के सम्पूर्ण वृत्तान्त को उपनिबद्ध किया गया है।

9. जानकीहरण - 

महाकवि कुमारदास द्वारा विरचित जानकीहरण महाकाव्य में 20सर्ग हैं जिनमें रामजन्म से लेकर रावणवध तक का रामचरित उपनिबद्ध है। महाकवि ने अपनी काव्यप्रतिभा से प्राचीन कथानक को नया कलेवर देने का भरपूर प्रयास किया है।

कुमारदास सिंहल द्वीप के निवासी थे। ये 517 से 526 ई0 के मध्य लंका के राजा थे। सिंहल द्वीप के जातीय इतिहास ग्रन्थ महावंश में मोद्गलायन के पुत्र कुमारधातुसेन नामक राजा का उल्लेख मिलता है जिन्होंने 9वर्षों तक पिता की मृत्यु के बाद सिंहल द्वीप पर शासन किया था। महावंश में कुमारदास की कृति का उल्लेख न मिलने से इतिहासकार राजा कुमारधातुसेन तथा कवि कुमारदास को एक मानने के पक्षधर नहीं हैं।

कुमारदास महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य से प्रभावित हैं। 

10. शिशुपालवध- 

महाकवि माघ द्वारा महाभारत के सभापर्व (33 से 45अध्याय) में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अपने फुफेरे भाई चेदिनरेश शिशुपाल का वध किए जाने के वृत्तान्त को आधार बनाकर 20सर्गों तथा 1650पद्यों में विरचित ‘शिशुपालवध’ महाकाव्य संस्कृत महाकाव्य परम्परा की बृहत्त्रयी का अमूल्य रत्न माना जाता है। शिशुपाल के वध का यह वृत्तान्त श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में भी मिलता है।

महाकाव्य के अन्त के पाँच पद्यों में महाकवि ने अपना वंशपरिचय दिया है। इसके अनुसार उनके पितामह ‘सुप्रभदेव’ श्रीवर्मल संज्ञक राजा के महामन्त्री थे। उनके धर्मनिष्ठ पुत्र थे ‘दत्तक’ जिनके पुत्र थे महाकवि माघ। श्रीवर्मल को वर्मलात नामक राजा माना जाता है जो माघ के पितामह सुप्रभदेव के आश्रयदाता थे। इनका राजपूताने के वसन्तगढ़ से 625ई0 का शिलालेख मिलता है। इस आधार पर सुप्रभदेव का समय सातवीं शताब्दी का प्रारम्भ तथा माघ का समय सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध सिद्ध होता है। नौंवी शताब्दी के आचार्य वामन के काव्यलंकारसूत्र तथा 850ई0 के आनन्दवर्द्धन के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ ध्वन्यालोक में शिशुपालवध के पद्य उद्धृत होने से माघ का स्थितिकाल इनसे पूर्व सिद्ध होता है।

शिशुपालवध के कतिपय प्राचीन पाण्डुग्रन्थों में प्राप्त पुष्पिकाओं से महाकवि माघ ‘भिन्नमालवास्तव्य’ सिद्ध होते है। भीनमाल वर्तमान समय में राजस्थान में आबूपर्वत तथा लूना नदी के मध्य स्थित है। यह सिरोही जिले की एक तहसील है जो ‘ब्रह्मगुप्तसिद्धान्त’ नामक ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रन्थ के रचयिता ब्रह्मगुप्त की जन्मस्थली है। सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रावृत्तान्त में इसका उल्लेख गुजरात की राजधानी तथा प्रसिद्ध विद्याकेन्द्र के रूप में मिलता है। शिशुपालवध महाकाव्य में युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ में सभी ज्येष्ठों की सम्मति से श्रीकृष्ण को प्रथम अघ्र्य दिया जाता है जिसका शिशुपाल विरोध करता है। शिशुपाल श्रीकृष्ण का अपमान कर युद्ध के लिए ललकारता है और श्रीकृष्ण के हाथों मारा जाता है।

महाकाव्य का प्रारम्भ किरातार्जुनीय सदृश ‘श्री’ पद से हुआ है- श्रियः पतिः श्रीमति शासितुं जगत्- इस रूप में। प्रथम सर्ग में देवर्षि नारद इन्द्र का सन्देश लेकर श्रीकृष्ण के पास द्वारकापुरी पहुंचते हैं तथा दुराचारी शिशुपाल के पूर्वजन्मों का वृत्तान्त बताकर लोककल्याणार्थ उसके वध के लिए श्रीकृष्ण को प्रेरित करते है। द्वितीय सर्ग में श्रीकृष्ण मन्त्रणा करते हैं बलराम और उद्धव से। उन्हंे इसी समय युधिष्ठिर के राजसूय में जाने का आमन्त्रण भी मिलता है। उद्धव के परामर्श पर शिशुपाल के वध की अपेक्षा वे युधिष्ठिर के राजसूय में सम्मिलित होने को महत्त्व देते हैं। तृतीय सर्ग से त्रयोदश सर्ग तक श्रीकृष्ण का द्वारका से प्रस्थान, मार्ग में रैवतक पर्वत पर सेना का पड़ाव, षड्ऋतुओं का वर्णन, वनविहार, जलक्रीडा, चन्द्रोदय, मधुपान, प्रभात आदि का महाकवि ने मनोरम चित्रण किया है। श्रीकृष्ण यमुना पार कर इन्द्रप्रस्थ पहुंचते हैं। चतुर्दश सर्ग में युधिष्ठिर उनको अपने यज्ञ का रक्षक बना लेते हैं। श्रीकृष्ण की यज्ञ में अग्रपूजा होती है। पन्द्रहवें सर्ग में शिशुपाल श्रीकृष्ण की अग्रपूजा को सह नहीं पाता और उनका अपमान करता है। इससे उत्तेजित दोनों पक्ष के योद्धा युद्ध के लिए उद्यत होते हैं। 

शिशुपाल अपने शिबिर में जाकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण की योजना बनाता है। सोलहवें सर्ग में शिशुपाल का दूत श्रीकृष्ण के पास पहुंच कर स्तुति तथा निन्दापरक द्वîार्थक सन्देश सुनाता है। सात्यकि दूत को समुचित उत्तर देता है। दूतसंवाद से उत्तेजित श्रीकृष्ण की सेना युद्ध के लिए प्रयाण करती हैं। अठाहरवें तथा उन्नीसवें सर्ग में दोनों सेनाओं के मध्य भीषण युद्ध का वर्णन है। अन्ततः बीसवें सर्ग में श्रीकृष्ण तथा शिशुपाल के मध्य युद्ध में शिशुपाल का वध होता है। शिशुपालवध के साथ महाकाव्य पूर्ण हो जाता है।

11. हरविजय - 

कश्मीरी कवि रत्नाकर द्वारा विरचित ‘हरविजय’ महाकाव्य में पचास सर्ग हैं तथा 4321पद्य। इसमें मत्स्यपुराण के 179वें अध्याय में प्राप्त अन्धकासुर की कथा को महाकाव्य के रूप में उपनिबद्ध किया गया है। रत्नाकर का समय नवम शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। रत्नाकर की तीन रचनाएँ मिलती हैं- हरविजय, वक्रोक्तपंचाशिका, ध्वनिगाथापंजिका। 

हरविजय महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में महाकवि ने लिखा है- ‘इति श्रीबालबृहस्पत्यनुजीविनो वागीश्वराङ्कस्य विद्याधिपत्यपरनाम्नो महाकवे राजानकश्रीरत्नाकरस्य कृतौ रत्नाङ्के हरविजये महाकाव्ये’ इससे स्पष्ट होता है कि महाकवि राजानक रत्नाकर ‘बालबृहस्पति’ की उपाधि से सम्मानित राजा जयापीड के सभापण्डित थे जिनका समय 800ई0 माना जाता है। हरविजय महाकाव्य में परम पराक्रमी अन्धकासुर नामक राक्षस के वध की कथा वर्णित है। 

12. श्रीकण्ठचरित- 

कश्मीर के राजा जयसिंह के सभापण्डित महाकवि मङ्ख द्वारा विरचित श्रीकण्ठचरित महाकाव्य 25सर्गों में उपनिबद्ध है। मङ्ख का समय बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है, क्योंकि राजा जयसिंह का समय 1129 से 1150 ई0 माना जाता है। इनके गुरु थे आचार्य रुय्यक। श्रीकण्ठचरित महाकाव्य भगवान् शिव द्वारा किए गए त्रिपुरदाह के पौराणिक इतिवृत्त पर आश्रित है। इस पर जोनराज की टीका उपलब्ध होती है। इसके प्रथम सर्ग में शिववन्दना है। दूसरे सर्ग में महाकवि ने सज्जन-दुर्जन का वर्णन किया है। तृतीय सर्ग में कश्मीर का वर्णन किया है। इस महाकाव्य के शेष सर्गों में त्रिपुरदाह की कथा का सरस वर्णन है। 

13. नैषधीयचरित - 

नैषधीयचरित का संस्कृत महाकाव्यों की बृहत्त्रयी में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके रचयिता दार्शनिक कवि श्रीहर्ष हैं। नैषधीयचरित का कथानक महाभारत के वनपर्व में 52 से 79अध्याय तक प्राप्त होने वाले नलोपाख्यान पर आश्रित है। इस महाकाव्य में निषध देश के राजा नल तथा विदर्भदेश के राजा भीम की पुत्री राजकुमारी दमयन्ती के मध्य प्रणय प्रसंग को महाकवि ने अपने रोचक वस्तुविन्यास तथा शैली से 22सर्गों में उपनिबद्ध किया है।

14. विक्रमांकदेवचरित - 

महाकवि बिल्हण द्वारा विरचित ऐतिहासिक महाकाव्य विक्रमांकदेवचरित में चालुक्यवंशीय नरेश विक्रमादित्य षष्ठ को नायक बनाकर 18 सर्गों में चालुक्य वंश का इतिहास उपनिबद्ध किया गया है। महाकाव्य के अन्तिम सर्ग में महाकवि ने अपना जीवनवृत्त स्वयं प्रस्तुत किया है। 

15. राजतरङ्गिणी - 

कश्मीर के प्रसिद्ध कवि कल्हण द्वारा विरचित राजतरङ्गिणी अपने आठ तरंगों में प्राचीन काल से प्रारम्भ कर 12वीं शताब्दी तक के कश्मीर के इतिहास को प्रकाशित करने वाला महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है। इसमें कश्मीर का राजनीतिक इतिहास, भौगोलिक विवरण, सामाजिक व्यवस्था, साहित्यिक अवदान तथा आर्थिक दशा का विस्तृत विवेचन है।

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