ग्रामोद्योग का तात्पर्य यह है कि जो उद्योग ग्रामीण क्षेत्र में हो जहां की आबादी 20 हजार से अधिक न हो वहां स्थापित हो, जिसके उत्पादन व सेवा कार्य करने में विद्युत शक्ति का प्रयोग हो अथवा न हो एवं 50 हजार रूपये प्रति व्यक्ति पूंजी विनियोग से अधिक न हो ऐसी इकाईयों को ग्रामोद्योग माना जायेगा।
ग्रामोद्योग का अर्थ
ग्रामोद्योग से अर्थ ऐसे उद्योग से है, जो 20 हजार तक कि आबादी वाले क्षेत्र में स्थित हो और उसमें 50 हजार तक का प्रति व्यक्ति पूंजी निवेश हो। ग्रामोद्योग को पारिवारिक या कुटीर उद्योग भी कहते है।
ग्रामोद्योग के कुछ रूप
ग्रामोद्योगों को कुछ रूप से 7 वर्गों में बांटा गया है -
चमड़ा व जूता उद्योग:- इसमे मरे हुए जानवरों की खाल निकालने और उसका चमड़ा बनाकर जूते, चमड़े के थेले बनाए जाते है।
काष्ठ कला उद्योग:- इसमे खिड़कियाँ, छज्जा, स्तम्भ, जंगले, आलमारियाँ, लकड़ी के सन्दूक, फर्नीचर, मूर्तिया व घराट के उपकरण बनाते है।
हस्त निर्मित कागज उद्योग:- इसमे कागज का उपयोग मुख्य रूप से जन्म कुण्डली, धार्मिक ग्रन्थ, राजस्व लेखे, जन्म-मृत्यु का लेखा आदि रखने में किया जाता है।
रेशा उद्योग:- इसमे मोटा घास भीमल (भिमू), मालू, जंगली कंडाली तथा बाबड़ जैसे रेशेदार घास तथा वृक्ष होते है। जिनका रेशा निकाल कर रस्सियां बनाई जाती है गाय, बैल, भैंस, घोड़े आदि जानवरों को बांधने के लिए प्रयोग में लाई जाती थी। साथ ही इन रस्सियों को प्रयोग चटाई बनाने हेतु के लिए भी किया जाता है। भांग व सेल (भीमल के रेशे) से बनी रस्सियां बाहरी बाजारों में बेची जाती थी।
मधुमक्खी पालन:- इसमे मधुमक्खी पालन द्वारा एकत्रित शहद निकाला जाता था।
लौहारगिरी:- इसमे लोहे के कृषि औजार व बर्तन बनाने वाले कारीगरों को लौहार कहा जाता है। खेती के औजारों के अलावा, तलवार, खुकंरी, फर्सा, मूर्तियों सहित देवी देवताओं के निशान बनाते है।
ऊन उद्योग:- इसमे ऊन से बनी वस्तुएँ जैसे ओढ़ने-बिछाने के थुलमा, कोट, दन, ऊनी, कपड़ा, अंगरखा, पैजामा, कम्बल आदि पारिवारिक उपयोग हेतु तैयार किये जाते है।