कुमारगुप्त प्रथम गुप्त वंश के महान शासकों की परम्परा का वाहक था। उसकी उपलब्धियाँ
अपने पूर्वजों समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय के बराबर तो नहीं थीं, तब भी उसने अपने पिता द्वारा
दिया हुआ साम्राज्य को बनाये रखा। चन्द्रगुप्त
द्वितीय विक्रमादित्य की दो रानियाँ- कुबेरनागा एवं ध्रुवदेवी थी। कुबेरनागा से चन्द्रगुप्त
द्वितीय को एक पुत्री हुई थी। जिसका नाम प्रभावतीगुप्ता था। प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश
रूद्रसेन द्वितीय के साथ विवाह हुआ था। चन्द्रगुप्त
द्वितीय की दूसरी रानी ध्रुवदेवी से दो पुत्र हुए जिनमें से एक का नाम कुमारगुप्त प्रथम तथा दूसरे का
नाम गोविन्दगुप्त था। गोविन्दगुप्त को लेकर इतिहासकारों के बीच विवाद रहा है। इतिहासकारों का कहना है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद कुमारगुप्त प्रथम एवं गोविन्दगुप्त
के बीच यु़द्ध लड़ा गया जिसमें कुमारगुप्त प्रथम विजयी रहा और गुप्त साम्राज्य के
सिंहासन पर बैठा।
कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से पता चलता है कि उसके शासन के वर्ष शान्तिपूर्ण रहे और वह व्यवस्थित तरीके से शासन करता रहा। लेकिन उसके शासन का अन्तिम चरण शान्तिपूर्ण नहीं था। स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख से पता चलता है कि इस काल में पुष्यमित्रों ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण किया। इस अभिलेख के अनुसार इस आक्रमण के परिणाम स्वरूप इस कुल की राजलक्ष्मी विचलित हो उठी। इसे स्थिर करने में स्कन्दगुप्त को कठिन प्रयास करना पड़ा पुष्यमित्रों के तेज़ी को रोकने के लिए उसे पूरी रात युद्धभूमि में ही बितानी पड़ी। भीतरी लेख से पता चलता है कि पुष्यमित्रों की सैन्यशक्ति एवं साधन विकसित थे तथा उनसे मुकाबला करना अत्यन्त कठिन कार्य था। इसलिए इस अभिलेख में तीन बार गुप्तों की लक्ष्मी विचलित होने का उल्लेख है। जिससे इस आक्रमण की तेजी का अनुमान लगाया जा सकता है। कुमारगुप्त इस समय तक बूढ़ा हो चुका था। इसलिए उसके पुत्र युवराज स्कन्दगुप्त को इस युद्ध के संचालन का नेतृत्व करना पड़ा। स्कन्दगुप्त ने बड़ी कुशलता-पूर्वक पुष्यमित्रों के आक्रमण को विफल कर दिया तथा अपनी योग्यता और शक्ति को प्रदर्शित किया। स्कन्दगुप्त की यह विजय अत्यन्त महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इस विजय से पुष्यमित्रों ने उत्पात, भय और आतंक की जो स्थिति उत्पन्न कर दी थी वह समाप्त हो गयी और उनके विचलित कर देने वाले प्रहारों से गुप्तवंश विलुप्त होने से बच गया।
अब प्रश्न यह उठता है कि ये पुष्यमित्र कौन थे? विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में पुष्यमित्र नामक जाति थी। वायुपुराण तथा जैनकल्पसूत्र में इस जाति का उल्लेख मिलता है। वे नर्मदा नदी के मुहाने के समीप मेकल में शासन करते थे। पुष्यमित्रों के पहचान का निर्धारण करना कठिन तो अवश्य है किन्तु इतना स्पष्ट है कि आक्रमणकारी बुरी तरह परास्त हुए और उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। इस विजय की सूचना मिलने से पहले ही वृद्ध सम्राट कुमारगुप्त दिवंगत हो चुका था।
कुमारगुप्त प्रथम अपने पूर्वजों की तरह विजेता तो नहीं था लेकिन उसने अपने पुश्तैनी साम्राज्य को सुरक्षित बनाये रखा। भाग्यवश उसे युवराज स्कन्दगुप्त एवं प्रान्तीय पदाधिकारियों का योग्य प्रशासनिक और सैनिक सहयोग प्राप्त था। धार्मिक सहिष्णुता का अनुसरण करते हुए कुमारगुप्त ने सभी धर्मों के प्रति आदर-भाव दिखाया और बिना धार्मिक भेदभाव के वैष्णव होते हुए भी शैवों और बौद्धों को उच्च पद प्रदान किए। उसका शासन काल अधिकांशतः शान्ति एवं समृद्धि का काल था। गुप्तवंश में सबसे अधिक अभिलेख एवं मुद्राएं कुमार गुप्त की ही हैं। उसके मुद्रालेख सुन्दर पदावली के लिए प्रसिद्ध हैं। वत्सभट्टि का मन्दसोर अभिलेख संस्कृत काव्य का सबसे अच्छा नमूना है।
कुमारगुप्त प्रथम की सैनिक एवं राजनैतिक उपलब्धियाॅं
लगभग 40 वर्षों तक कुमारगुप्त ने शासन किया। उसका राज्यकाल 415 ई0 से 455 ई0 तक था। 40 वर्षों में कुमारगुप्त प्रथम ने कोई सैनिक सफलता तो अर्जित नहीं की, लेकिन अपने पूर्वजों से जो विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था, उसे उसने अक्षुण्ण बनाये रखा। उसके राज्यकाल में शान्ति और सुव्यवस्था कायम रही।कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से पता चलता है कि उसके शासन के वर्ष शान्तिपूर्ण रहे और वह व्यवस्थित तरीके से शासन करता रहा। लेकिन उसके शासन का अन्तिम चरण शान्तिपूर्ण नहीं था। स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख से पता चलता है कि इस काल में पुष्यमित्रों ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण किया। इस अभिलेख के अनुसार इस आक्रमण के परिणाम स्वरूप इस कुल की राजलक्ष्मी विचलित हो उठी। इसे स्थिर करने में स्कन्दगुप्त को कठिन प्रयास करना पड़ा पुष्यमित्रों के तेज़ी को रोकने के लिए उसे पूरी रात युद्धभूमि में ही बितानी पड़ी। भीतरी लेख से पता चलता है कि पुष्यमित्रों की सैन्यशक्ति एवं साधन विकसित थे तथा उनसे मुकाबला करना अत्यन्त कठिन कार्य था। इसलिए इस अभिलेख में तीन बार गुप्तों की लक्ष्मी विचलित होने का उल्लेख है। जिससे इस आक्रमण की तेजी का अनुमान लगाया जा सकता है। कुमारगुप्त इस समय तक बूढ़ा हो चुका था। इसलिए उसके पुत्र युवराज स्कन्दगुप्त को इस युद्ध के संचालन का नेतृत्व करना पड़ा। स्कन्दगुप्त ने बड़ी कुशलता-पूर्वक पुष्यमित्रों के आक्रमण को विफल कर दिया तथा अपनी योग्यता और शक्ति को प्रदर्शित किया। स्कन्दगुप्त की यह विजय अत्यन्त महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इस विजय से पुष्यमित्रों ने उत्पात, भय और आतंक की जो स्थिति उत्पन्न कर दी थी वह समाप्त हो गयी और उनके विचलित कर देने वाले प्रहारों से गुप्तवंश विलुप्त होने से बच गया।
अब प्रश्न यह उठता है कि ये पुष्यमित्र कौन थे? विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में पुष्यमित्र नामक जाति थी। वायुपुराण तथा जैनकल्पसूत्र में इस जाति का उल्लेख मिलता है। वे नर्मदा नदी के मुहाने के समीप मेकल में शासन करते थे। पुष्यमित्रों के पहचान का निर्धारण करना कठिन तो अवश्य है किन्तु इतना स्पष्ट है कि आक्रमणकारी बुरी तरह परास्त हुए और उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। इस विजय की सूचना मिलने से पहले ही वृद्ध सम्राट कुमारगुप्त दिवंगत हो चुका था।
कुमारगुप्त प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
1. सहिष्णुता और निर्माण-कार्य
कुमारगुप्त प्रथम का शासन-काल सहिष्णुता और सार्वजनिक निर्माण कार्यों का काल था। वह अपने पूर्वजों की तरह वैष्णव था। उसके मुद्राओं एवं अभिलेखों पर उसकी ‘परमभागवत‘ की उपाधि मिलती है। मुद्राओं पर विष्णु के वाहन गरूड़ की चित्र भी खुदा हुआ है। लेकिन उसने अपने पूर्वजों की धार्मिक सहिष्णुता को कायम रखा। ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतान्त में उल्लेख किया है कि शक्रादित्य (कुमारगुप्त प्रथम महेन्द्रादित्य) ने नालन्दा बौद्ध बिहार की स्थापना की थी। करमदण्डा अभिलेख से पता चलता है कि उसका एक उच्च पदाधिकारी पृथ्वीषेण, जो उसका पहले मंत्री और कुमारामात्या था तथा बाद को उसका महाबलाधिकृत (सेनापति) हो गया, शैव था। करमदण्डा अभिलेख में उसके द्वारा एक शैव-मूर्ति की स्थापना का उल्लेख मिलता है।मन्दसोर अभिलेख से ज्ञात होता है कि पश्चिमी
मालवा के गवर्नर बन्धुवर्मा के शासनकाल में एक दशपुर में एक सूर्यमंदिर का
निर्माण करवाया था। बिलसड़ के अभिलेख से पता चलता है कि ध्रुवशर्मा ने स्वामी महासेन (कार्तिकेय)
का एक मंदिर बनवाया था। मनकँुवर के अभिलेख में बुद्धमित्र द्वारा एक बुद्ध-प्रतिमा की स्थापना का
उल्लेख मिलता है। उदयगिरी के एक गुहा लेख में शंकर द्वारा जैन तीर्थकर पाश्र्वनाथ की मूर्ति-स्थापना
का प्राप्त होता है। उनमें किसी प्रकार का धार्मिक शत्रुता नहीं था। जनता अपनी इच्छा के अनुसार कई धर्मों के मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण कराती थी और उन्हें दान देती थी। राजा की नजर में भी कोई
पक्षपात नहीं था। वह एक मात्र योग्यता के आधार पर अपने पदाधिकारियों को नियुक्त करता था, चाहे
वे किसी भी सम्प्रदाय के हों।
2. अश्वमेघ यज्ञ
कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया था। अश्वमेघ के सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञयूप में बधे हुए घोड़े की चित्र तथा मुख्य भाग पर ‘श्री अश्वमेघमहेन्द्रः‘ मुद्रालेख छपी है। लेकिन कुमारगुप्त ने किस उपलब्धि के लिए यह अनुष्ठान किया था, पता नहीं चलता।कुमारगुप्त प्रथम का प्रान्तीय प्रशासन
कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से प्रान्तीय पदाधिकारियों के नाम ज्ञात होते हैं-- चिरादत्तः- दामोदर के ताम्रपत्र में इसे पुण्ड्रवर्धन भुक्ति (उत्तरी बंगाल) का राज्यपाल बताया गया है।
- घटोत्कचगुप्तः- तुमैन (म0 प्र0) के लेख में इसे एरण प्रदेश (पूर्वी मालवा) का शासक कहा गया है।
- बन्धुवर्माः- यह पश्चिमी मालवा क्षेत्र का राज्यपाल था। इसकी सूचना मन्दसोर अभिलेख में मिलती है।
- पृथिवीषेणः- करमदण्डा अभिलेख से पता चलता है कि पृथिवीषेण अवध प्रदेश का सचिव, कुमारामात्य तथा महाबलाधिकृत के पदों पर कार्य कर चुका था।
कुमारगुप्त प्रथम अपने पूर्वजों की तरह विजेता तो नहीं था लेकिन उसने अपने पुश्तैनी साम्राज्य को सुरक्षित बनाये रखा। भाग्यवश उसे युवराज स्कन्दगुप्त एवं प्रान्तीय पदाधिकारियों का योग्य प्रशासनिक और सैनिक सहयोग प्राप्त था। धार्मिक सहिष्णुता का अनुसरण करते हुए कुमारगुप्त ने सभी धर्मों के प्रति आदर-भाव दिखाया और बिना धार्मिक भेदभाव के वैष्णव होते हुए भी शैवों और बौद्धों को उच्च पद प्रदान किए। उसका शासन काल अधिकांशतः शान्ति एवं समृद्धि का काल था। गुप्तवंश में सबसे अधिक अभिलेख एवं मुद्राएं कुमार गुप्त की ही हैं। उसके मुद्रालेख सुन्दर पदावली के लिए प्रसिद्ध हैं। वत्सभट्टि का मन्दसोर अभिलेख संस्कृत काव्य का सबसे अच्छा नमूना है।
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कुमारगुप्त प्रथम