ग्रामीण ऋणग्रस्तता क्या है इसके कारण एवं परिणाम

ऋणग्रस्तता का आशय है ऋण से ग्रस्त व्यक्ति के लिए ऋण चुकाने की बाध्यता का होना। ग्रामीण भारत में निर्धन किसानों एवं मजदूरों द्वारा अपनी आवश्यकताओं के कारण लिया जाने वाला कर्ज जब बढ़ जाता है एवं वे अपनी कर्ज अदायगी में असमर्थ हो जाते हैं तो यह स्थिति ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या उत्पन्न करती है। ग्रामीण ऋणग्रस्तता वस्तुत: हमारी कमजोर वित्तीय संरचना की सूचक है जो यह प्रदर्शित करती है कि हमारी आर्थिक व्यवस्था जरूरतमंद किसानों, भूमिहीनों एवं कृषक मजदूरों तक पहुँचने में दुर्बल है। 

ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण एवं परिणाम

ग्रामीण कृषक एवं मजदूर कृषि कार्य हेतु अथवा अपने परिवार के भरण-पोषण, शादी-विवाह, बीमारी के इलाज एवं अन्य कार्य हेतु ऋण लेते हैं। अल्प आय, पारिवारिक व्यय, इत्यादि के कारण वे ऋण को चुकाने में असमर्थ हो जाते हैं तथा उन ऋणों पर सूद बढ़ता जाता है। वित्तीय संस्थाओं की जटिल औपचारिकताओं को पूरा न कर पाने एवं समय पर तत्काल ऋण प्राप्त न होने, आदि कारणों की वजह से निर्धन किसान एवं मजदूर निजी सूदखोरों एवं महाजनों से कर्ज लेते हैं जिनके द्वारा मनमाना सूद लेने, बेगार कराने, जैसे अनेक शोषण किया जाता है तथा ऋणग्रस्तता की समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रहती है। 

रायल कमीशन आन लेबर, 1928 ने ब्रिटिश काल में किसानों की दशा पर अपनी रिपोर्ट में यह व्यक्त किया कि ’’भारतीय किसान ऋण में पैदा होता है, ऋण में जीवन व्यतीत करता है तथा अपनी आगामी पीढ़ी को भी ऋणग्रस्तता की विरासत सौंप जाता है।’’

1. ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण 

मोटे तौर पर ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारण हैं-
  1. कम आय
  2. ऋण का अनुत्पादक व्यय एवं उपभोग में अपव्यय
  3. विरासत में प्राप्त ऋणग्रस्तता
  4. विवादों में धन की बर्बादी
  5. दुर्बल वित्तीय समावेश
  6. बैंकिग सुविधाओं एवं सेवाओं की दुर्बल बाजार प्रणाली
  7. कर्ज देने की दोषपूर्ण प्रणाली
  8. मॉनसून की अनिश्चितता
  9. सामाजिक प्रथाओं/रीति-रिवाजों में अपव्यय
  10. कृषि उत्पादों की उच्च लागत

2. ग्रामीण ऋणग्रस्तता के परिणाम 

ग्रामीण ऋणग्रस्तता के परिणाम कारण हैं-
  1.  बंधक जमीन अथवा वस्तुओं को बेचने की बाध्यता
  2. सूदखोरों द्वारा शोषण
  3. श्रम की क्षमता में कमी
  4. ग्रामीण समाज में भेदभाव का बढ़ना
  5. सामाजिक विघटन जैसे आत्म हत्या एवं अपराध में वृद्धि
  6. भूस्वामी एवं भूमिहीन के रूप में समाज का विभाजन
  7. सामाजिक-आर्थिक विकास में बाधा
  8. बधुआ मजदूरी की समस्या का उद्भव
  9. भारतीय अर्थव्यवस्था का हृास
ग्रामीण ऋणग्रस्तता पर नियंत्रण हेतु किये गये प्रयास 
  1. समय-समय पर राज्य एवं केन्द्र सरकारों ने ऋण माफ किया। कृषि ऋण माफी योजना,2008 के अन्तर्गत भारत सरकार ने बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं को 10000 करोड़ रूपये का अनुदान दिया ताकि वे देश भर में कृषि ऋण को माफ करते हुए अपनी भरपाई भी कर सकें। 
  2. केन्द्र सरकार द्वारा सन् 1990-91 में कृषि एवं ग्रामीण ऋण सहायता योजना लागू की गई।
  3. ग्रामीण क्षेत्रों में कोआपरेटिव सोसाइटी, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, वाणिज्यिक बैंक, इत्यादि समेत कई संस्थागत वित्तीय एवं साख एजेन्सी विकसित की गई। 
  4. सूदखोरी पर वैधानिक एवं प्रशासनिक रूप से नियंत्रण किया गया। 
  5. सन् 1985 में विस्तृत फसल बीमा योजना लागू की गई। 
  6. सन् 1998 में किसान के्रेडिट कार्ड कार्यक्रम चलाया गया। 
  7. सन् 2000 में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना क्रियान्वित की गई।
  8. सन् 2004 में कृषि क्षेत्र आय बीमा योजना लागू किया गया। 
  9. सन् 2004 में राष्ट्रीय कृषक आयोग गठित किया गया। 
  10. लघु किसान विकास अभिकरण कार्यक्रम चलाया गया। 
  11. राज्य स्तर पर किसान ऋण माफी योजना लागू की गई। 
  12. लघु वित्त योजना, स्वयं सहायता समूहों को बैंक से जोड़ने का प्रयास किया गया। 
  13. ग्रामीण निर्धनों एवं भूमिहीन श्रमिकों के आर्थिक उत्थान हेतु महात्मा गांधी नेशनल रूरल इम्प्लायमेंट गारंटी कार्यक्रम (मनरेगा) सन् 2006 में लागू किया गया। 
भारत सरकार के श्रम एवं नियोजन मंत्रालय से जारी प्रपत्र यह प्रदर्शित करते हैं ग्रामीण ऋणग्रस्तता वस्तुत: ग्रामीण विकास में एक महत्वपूर्ण बाधा/अवरोध है। ग्रामीण ऋणग्रस्तता न सिर्फ सामाजिक आर्थिक अवसरों में असमानता को बढ़ाती है बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में संवृद्धि प्रक्रिया को बाधित करती है तथा ऋणग्रस्त परिवारों में कुंठा एवं अवसाद के कारण जनतांत्रिक प्रक्रियाओं में सहभागिता हेतु उनमें अन्तरपीढ़िगत विकलांगता उत्पन्न करती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट यह प्रदर्शित करती है कि भारत में ऋणग्रस्तता से ग्रसित अवसादों के कारण 2005 में आत्म हत्या करने वाले व्यक्तियों में सीमांत किसानों एवं कृषक मजदूरों की संख्या 15 प्रतिशत से अधिक थी।

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