भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 क्या है ?

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872 का उद्देश्य व्यापारिक व्यवहारों में निश्चितता लाना तथा उसे व्यवस्थित करना है। इस अनुबन्ध अधिनियम के लागू होने से पूर्व व्यापारिक सौदों में पारस्पारिक परम्पराओं का निर्वहन किया जाता था । क्योंकि व्यवसाय से सम्बन्धित कार्य विभिन्न अनुबन्धों पर ही आधरित होते है, अतः यह अनुबन्ध अधिनियम व्यापारिक वर्ग के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस अनुबन्ध के माध्यम से पक्षकारों को सुरक्षा मिलती है तथा वे वचनपालन के लिए बाध्य होते हैं। 

25 अप्रैल, 1872 को भारतीय संसद में इसे पारित हुआ जो 1 सितम्बर, 1872 से लागू किया गया। यह जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण देश में लागू हैं। आरंभ में इस अधिनियम मे कुल 266 धाराएँ तथा 11 अध्याय थे, परन्तु 1930 में वस्तु विक्रय अधिनियम एवं भारतीय अधिनियम 1932 के अलग होने के बाद भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 के अन्तर्गत नीचे दी धाराएँ सम्मिलित की गई है -

1. धारा 1 से 75 - इन धाराओं के अन्तर्गत ठहराव, वैद्य अनुबन्ध के लक्षण, अनुबन्धों का निष्पादन, संयोग अनुबन्ध भंग करना आदि सम्मिलित किये जाते है।

2. धारा 124 से 238 - हानि रक्षा एवं प्रत्याभूति अनुबन्ध (धारा 124 से 147), निक्षेप एवं गिरवी अनुबन्ध (धारा 148 से 181), एजेन्सी के अनुबन्ध (धारा 182 से 238) सम्मिलित किए जाते है।

इसके अतिरिक्त इस अधिनियम में समय-समय पर कई संशोधन भी हुए है। वर्ष 1886, 1891, 1899, 1930, 1932, 1951, 1988 तथा 1992 में आवश्यक संशोधन किए गये।

इस अधिनियम के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि यह अधिनियम काफी पुराना है तथा एक शताब्दी बीत जाने के बाद भी इसमें कोई विशेष बदलाव नहीं किए गये है। साथ ही बीमा, वस्तु विक्रय, विनियम साध्य विलेख आदि विषयों पर अलग से अधिनियम पारित किए जा चुके है। अतः आज के समय में इस अनुबन्ध अधिनियम का क्षेत्र काफी सीमित हो गया है।

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