औद्योगिक नीति के 1948 मुख्य उद्देश्य

6 अप्रैल 1948 को भारतीय संसद में स्वर्गीय डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने औद्योगिक नीति सम्बन्धी प्रस्ताव रखा। 

औद्योगिक नीति 1948 के मुख्य उद्देश्य

औद्योगिक नीति 1948  के मुख्य उद्देश्य  हैं।

  1. समन्वित आर्थिक विकास के लिए नियोजन।
  2. सबके लिए तथा निजी क्षेत्र को अवसर।
  3. निजी उपक्रमों का नियम में बाँधने का कार्य एवं नियंत्रण।
  4. रोजगार के अवसरों में वृद्धि। 
  5. संसाधनों का उचित उपयोग करना।
  6. कृषि तथा उद्योग दोनों क्षेत्रों को बढ़ावा।
  7. सभी लोगों को न्याय और अवसर की समानता प्रदान करने के लिए सामाजिक ढांचे की स्थापना करना।

1948 की औद्योगिक नीति ने उद्योगों को चार वर्गो में विभाजित किया गया।

  1. प्रथम वर्ग में तीन उद्योगों को सम्मिलित किया गया । इन उद्योगो का पूरी तौर से स्वामित्व एवं नियंत्रण सरकार के पास रखा गया। इसमें अस्त्र शास्त्र उद्योग, रेल उद्योग तथा परमाणु शक्ति उद्योग हैं।
  2. द्वितीय वर्ग में (6) छः आधारभूत उद्योग रखे गये । इन उद्योगो का स्वामित्व तथा नियंत्रण भी सरकार ने अपने पास रखा तथा नयी इकाईयों की शुरूआत करने का अधिकार भी सरकार के पास ही था। इस वर्ग में कोयला, उद्योग, लोहा तथा इस्पात उद्योग, वायुयान निर्माण उद्योग, जलयान निर्माण उद्योग, टेलीफोन व बेतार उपकरण उद्योग तथा खनिज तेल उद्योग मुख्य है। इस क्षेत्र में जो निजी इकाईयों पूर्व में कार्य कर रही थी उन्हें कार्य करते रहने की अनुमति दी गयी और सरकार ने स्पष्ट किया कि उनके उत्पाद का मूल्याकंन 10 वर्ष बाद किया जायेगा फिर उनके राष्ट्रीयकरण पर विचार किया जायेगा।
  3. तृतीय वर्ग में (16) सोलह उद्योग रखे गये इसमें नमक उद्योग कार व टैªक्टर उद्योग, इलैक्ट्रानिक व इंजीनियरिंग उद्योग, कागज उद्योग, मशीन औजार उद्योग, अलौह धातु उद्योग मुख्य हैं। इन उद्योगों को निजी क्षेत्र में संचालित करने की अनुमति दी गयी तथा सरकार ने अपने पास इनके नियमन तथा नियंत्रण का अधिकार रखा।
  4. चर्तुथ वर्ग में शेष सभी उद्योगों को रखा गया । इस क्षेत्र में उद्योगो के संचालन, रख-रखाव तथा नियंत्रण का अधिकार निजी क्षेत्र को दिया गया लेकिन सरकार ने इन पर हस्तक्षेप का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा। विदेशी पूँजी की सहायता- देश की औद्योगिक नीति में तीव्र गति से विकास के लिए विदेशी पूँजी की उपलब्धता को आवश्यक माना गया हैं। विदेशी पूँजी के साथ-साथ भारतीय विशेषज्ञों को विदेशी विशेषज्ञों के समान ही प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी । जिससे योग्य भारतीय विशेषज्ञ विदेशी विशेषज्ञों के स्थान पर कार्य कर सकें। जिससे भारतीय उद्योगों में विशेषज्ञों की सेवायें निरन्तर बनी रहें और औद्योगिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।

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