सावित्रीबाई फुले कौन थी उनके कार्य

सावित्रीबाई फुले

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में ऐसे समय पर हुआ, जब भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति वर्तमान जैसी नहीं थी। महिलाओं को न तो शिक्षा का अधिकार प्राप्त था और न ही वे अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद कर सकती थीं। ऐसे समय में स्त्री-शक्ति को बल देने के लिए सावित्रीबाई फुले सामने आईं। नौ वर्ष की आयु में सावित्रीबाई फुले का विवाह चौदह वर्ष के ज्योतिबा फुले जी के साथ हुआ। 

सावित्रीबाई फुले के कार्य

सावित्री एक ऐसे समाज और मुख्य रूप से परिवार से देश की शिक्षिका बनकर उभरी, जहाँ महिलाओं का दूर-दूर तक शिक्षा से कोई सरोकार नहीं था। पूरा का पूरा माहौल महिलाओं की शिक्षा के विरुद्ध था। नौ साल की उम्र में सावित्री बाई फुले का विवाह हुआ और जब उनका विवाह हुआ, तब वे अनपढ़ थीं। जिस दौर में सावित्री बाई फुले पढ़ने का सपना देख रही थी, उस दौर में अस्पृश्यता, छुआछूत, भेदभाव जैसी कुरीतियां चरम पर थीं। ज्योतिबा जी जैसे सशक्त सामाजिक क्रांति के पुरोधा को जीवन साथी के रूप में मिल जाना उनके लिए नवजीवन के प्रारंभ के समान था। ज्योतिबा फुले स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। वे महिलाओं की आत्मनिर्भरता से लेकर उनकी सामाजिक अन्याय से मुक्ति के लिए शिक्षा को ही अनिवार्य साधन मानते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री को स्वयं शिक्षित ही नहीं किया, बल्कि उन्हें अन्य स्त्रियों को भी शिक्षित करने का उत्तरदायित्व भी सौंपा।

सावित्रीबाई ने अपने अथक प्रयासों से विभिन्न जातियों की नौ बालिकाओं को लेकर सन 1848 में बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता से पूना में विद्यालय की स्थापना कर सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। उनके लिए अकेले यह कार्य करना आसान नहीं था। उन्हें समाज के उलाहने झेलने पड़े। लोग विद्यालय जाते समय उन पर अपशब्दों की बौछार करते और गोबर आदि फेंकते थे ताकि वह विद्यालय न जा सके एवं अपना मार्ग छोड़ दे। इस कार्य में सबसे आगे महिलाएं ही हुआ करती थीं। उन्होंने इसका भी इंतज़ाम कर लिया। वे अपने साथ एक जोड़ी साड़ी अतिरिक्त लेकर जाया करती थीं। इतने कष्टों को झेलने के बाद भी वे अपने मार्ग से नहीं हटीं, अपितु विभिन्न स्थानों पर कई और विद्यालय स्थापित किए और स्त्रियों को शिक्षित तथा जागरूक किया।

शिक्षिका सावित्रीबाई फुले ने न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया, अपितु भारतीय स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए सन 1852 में ‘महिला मण्डल’ का गठन कर भारतीय महिला आंदोलन की प्रथम अगुआ बन गई। इस महिला मण्डल ने महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अत्याचारों, बाल विवाह, विधवाओं के सिर मूंडने की प्रथा तथा स्त्री अशिक्षा के खिलाफ़ मोर्चाबंदी की। अपने द्वारा चलाए गए अनेक आंदोलनों में उन्हें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई। इतना ही नहीं, उन्होंने गोद लिए हुए पुत्र को पढ़ाकर डॉक्टर बनाया और बड़े होने पर उसका अंतरजातीय विवाह करवाया। महाराष्ट्र का यह प्रथम अंतरजातीय विवाह था। वे जीवन-पर्यंत अंतरजातीय विवाह आयोजित कर जाति व वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत रहीं। उन्होंने लगभग 48 वर्षों तक दलित, शोषित, पीडि़त स्त्रियों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया।

उस समय हमारे समाज में लड़कियों का छोटी उम्र में विवाह कर दिया जाता था और कई बार वे महज 12-13 साल की उम्र में ही विधवा हो जाती थीं। इसके बाद उनका केशवपन कर उन्हें कुरूप बनाया जाता था ताकि उनकी तरफ़ कोई पुरुष आकर्षित न हो सके। उनके सिर मुंडवा दिए जाते थे और भी न जाने क्या-क्या यातनाएं उन्हें झेलनी पड़ती थीं, लेकिन ऐसी विधवा लड़कियां या महिलाएं भ्रष्ट सोच के लिए आसान शिकार बन जाती थीं। ऐसे में गर्भवती हुई विधवाओं का समाज बहिष्कार कर देता था और उन पर जुल्म किए जाते थे। इसके अलावा पैदा होने वाले बच्चे का भी कोई भविष्य नहीं होता था। इस अमानवीयता से महिलाओं को बाहर निकालने के लिए ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने गर्भवतियों के लिए प्रसूतिगृह शुरू किया, जिसका नाम था- ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह; जो उन गर्भवती महिलाओं के लिए उनका घर भी था।

सावित्रीबाई ने इस घर को पूरी कुशलता और धैर्य के साथ चलाया। वहाँ के बच्चों को शिक्षा और उज्ज्वल भविष्य दिया। विधवा केशवपन का विरोध करते हुए सावित्रीबाई ने नाइयों की हड़ताल कराई और उन्हें विधवा केशवपन न करने के लिए प्रेरित किया। आज भी गर्भवती विधवाओं के लिए ऐसे किसी मानवता की महानता मानव होने में नहीं, बल्कि मानवीय होने में है।

गृह का निर्माण करना साहस का काम है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि फुले दंपति का यह साहसिक कदम अविस्मरणीय है।

ज्योतिबा फुले की मृत्यु पर सावित्रीबाई ने ही उनकी चिता को अग्नि दी। यह क्रांतिकारी कदम उठाने वाली सावित्री देश की पहली महिला थी। ज्योतिबा की मृत्यु के बाद उन्होंने ज्योतिबा के आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में लिया और पूरी कुशलता से उसे निभाया। सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसंबर, 1873 को कराया गया। ज्योतिबा के निधन के बाद सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले पर आ गई। उन्होंने इस जिम्मेदारी को बख़ूबी निभाया। इसी दौरान उन्होंने ‘काव्य फुले’ और ‘बावन कशी सुबोध रत्नाकर’ नामक ग्रंथों की रचना की और वे आधुनिक जगत में मराठी की पहली कवियत्री बनीं।

सन 1897 में पुणे में फैले प्लेग के दौरान वे मरीज़ों की सेवा में लगी थीं। उन्होंने प्लेग से पीडि़त गरीब बच्चों के लिए कैंप लगाया था। प्लेग से पीडि़त बच्चे पांडुरंग गायकवाड़ को लेकर जब वे जा रही थीं तो उन्हें भी प्लेग ने जकड़ लिया। 10 मार्च, 1897 को अदम्य साहसी, संघर्षशील, सुदृढ़ सावित्रीबाई का देहावसान हो गया। जीवन के अंतिम क्षणों तक वे मानवता की सेवा के लिए कार्य करती रहीं।

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