किरातार्जुनीयम् का परिचय और विषय-वस्तु का वर्णन

‘किरातार्जुनीयम्’ में दो शब्द हैं- ‘किरात’ और ‘अर्जुनीयम्’। भगवान् शिव किरात अथवा वनेचर का रूप धारण करके आए थे और अर्जुन को पाशुपत-अस्त्र देने से पहले उसकी परीक्षा लेने के लिए भयंकर युद्ध किया था। इस प्रमुख घटना के आधार पर ही इस महाकाव्य का नाम ‘किरातार्जुनीयम्’ रखा गया है।

किरातार्जुनीयम् का परिचय


किरातार्जुनीयम् का परिचय

ऐहोल अभिलेख (634 ई.) तथा गंगनरेश दुर्विनीत के समय (481 ई.) के शिलालेख में क्रमशः भारवि तथा उनके महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ का उल्लेख प्राप्त होता है। इस आधार पर भारवि का स्थितिकाल 450 ई. के आसपास माना जाता है। इन्द्रकील पर्वत पर दिव्यास्त्र के लिए तपस्या में लीन अर्जुन एवं अर्जुन के तप की परीक्षा के लिए किरात वेषधारी शिव के युद्ध का वर्णन किया गया है। अर्जुन के बल एवं युद्ध कौशल से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने प्रकट होकर उन्हें पाशुपत अस्त्र प्रदान किया।

किरातार्जुनीयम् का आरम्भ ‘श्री’ शब्द से होता है- श्रियः कुरूणामधिपस्य पालिनीम्- तथा इसके प्रत्येक सर्ग के अंतिम श्लोक में ‘लक्ष्मी’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसकी गणना बृहत्त्रयी में की जाती है। इसका प्रधान रस वीर है। भारवि का अर्थगौरव प्रसिद्ध है। इसके अनेक श्लोकांश सूक्तिवाक्यों के रूप में प्रसिद्ध हैं।

महाभारत के वनपर्व में पांडवों के वनवास के अतंर्गत किरातवेशधारी शिव के साथ अर्जुन के युद्ध की कथा को आधार बनाकर इस महाकाव्य की रचना भारवि ने की है। उसी कथा के अनुरूप रचना का नामकरण ‘किरातार्जुनीयम्’ रखा गया है। भारवि ने कथा के अंतर्गत राजनीति, कूटनीति, राजधर्म तथा सामान्य नीति का हृदयग्राहि-विवेचन किया है। भारवि की एकमात्र रचना किरातार्जुनीयम् ही उपलब्ध है। 

आग्ल भाषा में भी इसके अनेक अनुवाद हो चुके हैं। जर्मन भाषा में अनुवाद कार्ल कैप्पलर नामक विद्वान् ने किया है।

किरातार्जुनीयम् की विषय-वस्तु

भारवि का समय 550 ई. से 620 ई. के बीच माना गया है। किरातार्जुनीयम् नामक सुप्रसिद्ध महाकाव्य भारवि की एकमात्र रचना है। इस काव्य का कथानक महाभारत से लिया गया है लेकिन कवि ने अपनी कल्पनाओं तथा वर्णन-प्रतिभा के द्वारा इस महाकाव्य का विस्तार 18 सर्गों तक कर दिया है। महाकवि भारवि ने संस्कृत साहित्य में अपने अर्थ गौरव के लिए बहुत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है।

‘भारवेऽर्थ गौरवम्’ अर्थात् थाडे ़े से शब्दांे में अधिक अर्थ को भर देना। भारवि ने अपने व्यावहारिक एवं शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर नैतिक सिद्धान्तों की स्थापना की है। कुछ वाक्य जनसामान्य में लोकोक्ति के रूप में प्रयोग किये जाते हैं जैसे- ‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।’ अर्थात् हितकारी वचन कभी भी मन को प्रिय नहीं लगते।

इस महाकाव्य का प्रारम्भ द्वैतवन में जहां कि महाराज युधिष्ठिर द्यतू क्रीड़ा में दुर्योधन से हारकर तेरह वर्ष के वनवास के लिए निवास कर रहे थे युधिष्ठिर के द्वारा दुर्योधन के राज्य की शासन-व्यवस्था की जानकारी प्राप्त करने के लिए नियुक्त गुप्तचर के लाटै आने से होता है। द्रौपदी का उत्तजेनापूर्ण भाषण भी प्रथम सर्ग में है। 

दूसरे सर्ग में युधिष्ठिर और भीष्म का संवाद, भीम के द्वारा द्रौपदी का समर्थन करते हुए पराक्रम की महत्ता प्रदर्शित करना, व्यास जी का आगमन उल्लिखित हैं।

तीसरे सर्ग में व्यास जी के द्वारा अर्जुन को शिव की आराधना करके पाशुपत अस्त्र प्राप्त करने का उपदेश, व्यास द्वारा भजे े गए यक्ष के साथ अर्जुन का प्रस्थान। 

चौथे सर्ग में अर्जुन का इन्द्रकील पर्वत पर पहुँचना तथा शरद् ऋतु का मनोरम चित्रण किया गया है।

पाँचवें सर्ग में हिमालय वर्णन तथा यक्ष का अर्जुन को इन्द्रिय-संयम का उपदेश देना उल्लिखित है।

छठे सर्ग में अर्जुन की तपस्या, इन्द्र द्वारा भेजी गई अप्सराओं के द्वारा तपस्या में बाधा डालना है।

सातवाँ सर्ग में गन्धर्वों एवं अप्सराओं के विलास वणर्न , वन विहार आदि प्रतिपादित है। 

आठवें सर्ग में गन्धर्वों तथा अप्सराओं की उद्यान क्रीड़ा एवं जल-क्रीड़ा का मनोहर चित्रण है।

नवें सर्ग में सायंकाल, चन्द्रोदय, मानभङ्ग तथा प्रभात का वर्णन है।

दसवें सर्ग में अप्सराओं की चेष्टाए और उनकी विफलता का वर्णन है। 

ग्यारहवें सर्ग में मुनि-वेष में इन्द्र का आगमन, इन्द्र-अर्जुन का संवाद तथा अर्जुन को इन्द्र के द्वारा शिव-आराधना का उपदेश है।

बारहवें सर्ग में अर्जुन की शिव-आराधना, अर्जुन के तप से दग्ध सिद्ध तापसियांे का शिव के पास जाना तथा अर्जुन के तप के तेज का कथन करना, किरात वश्े ाधारी शिव का आगमन प्रतिपादित किया गया है।

तेरहवें सर्ग में शूकर रूपधारी मूक दानव पर शिव और अर्जुन दोनों का बाण-प्रहार, दानव की मृत्यु, बाण के विषय में शिव के अनुचर तथा अर्जुन का विवाद वर्णित किया गया है।

चौदहवें सर्ग में सेना सहित शिव का आगमन तथा सेना के साथ अर्जुन का युद्ध वर्णित है।

पन्द्रहवें सर्ग में अर्जुन तथा शिव का घोर युद्ध, किरात के युद्ध-कौशल को देखकर अर्जुन का क्रोधित होना तथा परास्त होने पर अपनी विफलता पर आश्चर्य करना वर्णित किया गया है।

सौलहवें सर्ग में शिव और अर्जुन का अस्त्रयुद्ध तथा मल्लयुद्ध का वर्णन किया गया है।

सत्रहवें सर्ग में शिव और उनकी सेना के साथ अर्जुन का युद्ध प्रतिपादित है। अठारहवें सर्ग में अन्त में अर्जुन के बल पर प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने दर्शन देकर अपना अमोघ पाशुपत अस्त्र देकर अर्जुन की अभीष्ट सिद्धि को पूर्ण किया।

इस महाकाव्य में प्रकृति-वर्णन एवं युद्ध-वर्णन के द्वारा मुख्य कथानक का विस्तार किया गया है। इस महाकाव्य का आरम्भ ‘श्रियः’ शब्द से होता है, प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में ‘लक्ष्मी’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार माङ्गलिक शब्दों का प्रयोग करके महाकाव्य को मङ्गलमय बनाया गया है।

प्रश्न-1 किरातार्जुनीयम् के रचयिता का क्या नाम है?
उत्तर - भारवि

प्रश्न-2 ‘किरातार्जुनीयम्’ महाकाव्य का आरम्भ किस शब्द से हुआ है?
उत्तर - श्रियः

प्रश्न-3 किरातार्जुनीयम् महाकाव्य में कुल कितने सर्ग हैं?
उत्तर - 18 सर्ग

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