लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत की व्याख्या

लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत पिछले 20-30 वर्षों में ही लोकप्रिय हुआ है। यह सिद्धांत लोकतंत्र के परंपरागत सिद्धांत के विचार, कि सभी शक्ति जनता के पास होती है, और लोकतंत्र के विशिष्ट वर्गीय सिद्धांत के इस विचार को भी नकारता है कि राज्य में शक्ति एक विशिष्ट वर्ग में होती है। इन दोनों सिद्धांतों के विपरीत बहुलवादी सिद्धांत यह वकालत करता है कि समाज में शक्ति कई प्रकार के समूहों के पास होती है। न तो यह अमीर वर्ग के हाथ में केंद्रित होती और न ही यह सरकार के हाथ में है। समाज में यह सरकार तथा अन्य सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समूहों के हाथ में विकेंद्रित होती है। समाज का ढांचा बहुलवादी अथवा संघीय होता है। इसलिए समाज का शक्ति ढांचा भी बहुलवादी अथवा संघीय ही होता है और ऐसा होना भी चाहिए।

लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत की परिभाषा

साधारण रूप में हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत लोकतंत्र को ऐसी राजनीतिक व्यवस्था मानता है जिसमें नीतियों का निर्माण विभिन्न समूहों के आपसी विचार-विमर्श तथा विचारों के आदान-प्रदान के द्वारा होता है। 

वी. प्रेस्थस के अनुसार, ’’बहुलवादी लोकतंत्र एक ऐसी सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था होती है जिसमें राज्य शक्ति में बहुत-से निजी समूहों हित संगठनों द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले व्यक्तियों की भागीदारी होती है।

दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत यह मानता है कि समाज में शक्ति न तो केवल सरकार के पास होती है न ही लोगों के पास तथा न ही विशिष्ट वर्ग के पास, यह तो समाज में सरकार तथा विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित समूहों तथा निजी संस्थाओं में होती है। 

लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धांत के प्रमुख समथर्क हैं: राॅबर्ट डाहल, सारतोरी, लिपसेट, प्रेस्थस, मोरिस डुबर्जर, हंटर, बरल्सन, तथा इसके साथ-साथ अन्य बहुलवादी विचारक।

लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धांत प्रमुख विशेषताएं 

लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धांत के समर्थकों के विचारों का विश्लेषण करने पर इस सिद्धांत की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं सामने आती हैं-
  1. लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत यह विचार देता है कि राजनीतिक शक्ति न तो केवल सरकार के पास, न ही जनता के पास, न ही नेतृत्व के पास तथा न ही विशिष्ट वर्ग के पास होती है बल्कि राजनीतिक शक्ति तो उन कई समूहों, वर्गोंं, संस्थाओं तथा संगठनों के पास सांझे रूप में होती है जो समाज में सक्रिय होते हैं।
  2. कई सामाजिक प्रक्रियाओं का प्रतिनिधि करने वाले समूह ही मिलकर सरकार बनाते हैं तथा राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करते हैं।
  3. राजनीतिक शक्ति का प्रयोग सरकार के साथ-साथ कई सामाजिक, राजनीतिक समूहों तथा संस्थाओं द्वारा किया जाता है।
  4. राजनीतिक शक्ति के किसी एक केंद्र-विशिष्ट वर्ग अथवा नेतृत्व अथवा एक राजनीतिक दल अथवा सरकार में केंद्रीयकरण का समर्थन करने वाले सिद्धांत हानिकारक हैं। ये सिद्धांत व्यवहार में सत्तावाद का ही समर्थन करते हैं। 
  5. बहुलवादी लोकतंत्र एक ऐसी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था होती है जिसमें राज्य-शक्ति में बहुत से निजी समूहों, संगठनों द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले व्यक्तियों की भागीदारी होती है।
  6. सभी राजनीतिक व्यवस्था के निर्णय सहमति से ही लिए जाते हैं और ऐसा होना भी चाहिए। लोकतंत्र में आपसी सहमति की राजनीति ही कार्य करती है। 
  7. समाज में मौजूद सभी समूह, संगठन तथा संस्थाएं निर्णय-निर्माण में भूमिका अदा करते हैं तथा ऐसा होना भी चाहिए।
  8. राज्य में कई सामाजिक समूहों तथा संगठन को महत्व प्राप्त होना चाहिए। उनकी भूमिका को मान्यता मिलनी चाहिए तथा निर्णय-निर्माण में उनकी भूमिका सुरक्षित रहनी चाहिए।
  9. लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत यह स्वीकार करता है कि लोगों का व्यवहार तार्किक होता है। वे अच्छे और सही निर्णय ले सकते हैं और वे अपने-अपने समूहों और संगठनों में संगठित होकर राजनीति में भाग लेते हैं। लोगों के संगठित समूह और संस्थाएं ही वास्तव में राजनीति की प्रमुख इकाइयां होती हैं। 
  10. यह सिद्धांत चुनावों के महत्व को स्वीकार करता है। चुनाव जनमत को प्रकट करते हैं। यह जनता की राजनीति एवं निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में भूमिका को विश्वसनीय बनाते हैं। लेकिन राजनीति में भागीदारी केवल चुनावों में भागीदारी तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए। चुनाव केवल विशिष्ट वर्ग को निर्वाचित करने का साधन नहीं होते, ये तो जनमत को प्रकट करने तथा राजनीतिक भागीदारी का उपकरण होते हैं।
  11. एक वास्तविक लोकतंत्र में राजनीतिक-शक्ति सरकार द्वारा प्रयुक्त नहीं की जाती, बल्कि सरकार के साथ-साथ कई सामाजिक-राजनीतिक समूह भी राज्य-शक्ति के प्रयोग में भागीदार होते हैं।
  12. यह सिद्धांत शक्तियों के विकेंद्रीयकरण, शक्तियों के पृथक्करण तथा संघीय व्यवस्था में मौजूद शक्तियां े के विभाजन के सिद्धातों का समर्थन करता है।
  13. लोकतंत्रीय राजनीति में शासकों तथा शासितां,े सरकार तथा समूहों में लगातार, संचार होता है। राजनीतिक अंतक्र्रियाओं में सभी समूहों तथा संस्थाओं की भागीदारी होती है। समूह जनता तथा राजनीतिक व्यवस्था में अंतर को कम रखने तथा उनमें संचार संपर्क बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।
  14. बहुलवादी समाज में शक्ति के लिए खुले संघर्ष का समर्थन करते हैं जिसमें सभी समूह, संस्थाएं और संगठन स्वतंत्रता से भाग ले सकते हैं।
  15. समाज में शक्ति का केवल एक केंद्र न होकर कई एक केंद्र होने चाहिए, तभी राजनीतिक व्यवस्था खुली तथा लोकतंत्रीय हो सकती है।
  16. लोकतंत्र में आपसी सहमति की राजनीति को लोकप्रियता प्राप्त होनी चाहिए, तभी लोकतंत्र वास्तव में लोकतंत्र बन सकता है।
  17. सभी समूहों, संस्थाओं और संगठनों को निर्णय-निर्माण तथा नीति-निर्माण प्रक्रियाओं में भागीदारी प्राप्त होनी चाहिए।

लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत का मूल्यांकन

लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत के आलोचक इन तर्कों के आधार पर इस सिद्धांत की आलोचना करते हैं-
  1. यह सिद्धांत राज्य की प्रभुसत्ता के सिद्धांत का विरोधी है। यह राज्य की सर्वोच्च शक्ति के सिद्धांत का विरोधी है। समाज में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य की प्रभुसत्ता के सिद्धांत को मान्यता देना नितांत आवश्यक है। 
  2. यह सिद्धांत व्यक्ति के स्थान पर व्यक्तियों के समूहों को अधिक महत्ता देता है जो कि सही नहीं।
  3. समाज में असंख्य सामाजिक, राजनीतिक, आथिर्क , सांस्कृतिक समूह मौजूद होते है, लेकिन न तो सभी एक समान सक्रिय होते है और न ही सभी एक जैसे महत्वपूर्ण होते है। 
  4. राज्य की प्रभुसत्ता को नकारने तथा सरकार की अपेक्षा समूहों को अधिक महत्व देने वाला यह सिद्धांत अराजकता को निमंत्रण देता है।
  5. आम सहमति की राजनीति सैद्धांतिक रूप में तो आदर्श है परंतु व्यावहारिक रूप में यह प्रत्येक अवसर पर संभव नहीं होती।
  6. विशिष्ट वर्गीय सिद्धांत के समर्थक यह नहीं मानते कि समाज में सभी समूहों का महत्व एक समान होता है तथा सभी समूह राजनीति, नीति-निर्माण तथा निर्णय-निर्माण में भाग ले सकते हैं तथा भाग लेते भी हैं।
  7. परंपरागत लोकतंत्र के समर्थक लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धांत की इस आधार पर आलोचना करते है कि यह लोक प्रभुसत्ता के सिद्धांत में विश्वास नहीं रखता। यह लोगों को तार्किक तथा बुद्धिमान तो मानता है परतं ु लोगों की अपेक्षा समूहों को अधिक महत्व देता है।
  8. राज्य की प्रभुसत्ता कानूनी रूप में सर्वोच्च एवं अविभाज्य होती है। समाज में मौजूद समूह, संस्थाएं तथा संगठन राज्य के कानूनों के अधीन ही कार्य करते हैं। समाज में शांति स्थापना बनाए रखने के लिए ऐसा होना बिल्कुल आवश्यक है।
  9. समाज में कई एक ऐसे समूह एवं संगठन होते हैं जो एक-दूसरे का हमेशा विरोध करते हैं। उन पर राज्य की शक्ति का लागू होना आवश्यक होता है।
माक्र्सवादी विचारक इस सिद्धांत की आलोचना करते हुए यह मत देते हैं कि इस सिद्धांत का एक मात्र उद्देश्य, लोकतंत्र के माक्र्सवादी सिद्धांत जो कि एक दलीय शासन का समर्थन करता है, को नकारना है। फिर यह सिद्धांत बुर्जुआ लोकतंत्र का समर्थन करता है।

लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत का महत्व केवल इतना ही माना जाता है कि यह आम सहमति की राजनीति का समर्थन करता है। इसे लोकप्रिय सरकार अथवा जनतंत्रीय व्यवस्था के एक सिद्धांत के रूप में महत्व दिया जा सकता है। लेकिन इसे लोकतंत्र का एक पूरी तरह से तथा पूर्णतया सिद्धांत नहीं माना जा सकता।

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