लॉर्ड कर्जन के प्रमुख सुधार, कार्यकाल और अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

लाॅर्ड रिपन के प्रमुख सुधार

लाॅर्ड लिटन के बाद लाॅर्ड रिपन भारत का वायसराय नियुक्त हुआ। 1880 से 1884 ई. तक वह भारत का सचिव रहा। लाॅर्ड रिपन सबसे अधिक लोकप्रिय वायसराय था। वह प्रथम वायसराय था जिसने भारतीयों तथा अंग्रेजों में कोई अंतर नहीं समझा तथा भारतीयों को अंग्रेजों के समान ही अधिकार दिलाने का प्रयास किया। उसे भारतीयों से सहानुभूति थी तथा वह यथार्थ में उनका कल्याण चाहता था। इसी कारण वह भारत में अत्यंत लोकप्रिय हो गया। 

फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने रिपन को ‘‘भारत के स्वर्णयुग का आरंभ कहा, एक इतिहासकार ने लिखा है किसी वायसराय ने लाखों व्यक्तियों के कल्याण के लिये इतनी तत्परता तथा निरंतरता के साथ कार्य नहीं किया, जितना लाॅर्ड रिपन ने किया। उसकी लोकप्रियता के कारण ही 1884 में जब उसने त्यागपत्र दे दिया, भारतीय जनता ने उसके प्रति अत्यंत सौहार्दपूर्ण प्रदर्शन किया तथा अभिनंदन पत्रों से उसे लाद दिया। 

लाॅर्ड रिपन के प्रमुख सुधार

लाॅर्ड रिपन ने अनेक ऐसे सुधार किये जिससे भारतीय जनता का बड़ा कल्याण हुआ- 

1. वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट को समाप्त करना- लाॅर्ड लिटन के द्वारा पारित वर्नाक्यूलर पे्रस एक्ट हद से ज़्यादा दमनकारी एवं कुटिलता पर आधारित था। इससे भारत के लोग बहुत कष्ट में थे। 1882 ई. में लाॅर्ड रिपन ने इस घोषित अधिनियम को रद्द कर दिया और भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों को अंग्रेजी समाचार पत्रों के समान स्वतंत्रता प्रदान की। जिससे वह भारतीयों में अत्यंत लोकप्रिय हो गया।

2. स्थानीय स्वशासन- लाॅर्ड रिपन भारत के लोगों को स्वायत्त शासन की शिक्षा देना चाहता था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उसने 1881 ई. में स्थानीय स्वायत शासन संबंधी एक प्रस्ताव पास कराया। प्रांतीय सरकारों को आदेश दिया कि वे अपनी आय का एक निश्चित भाग स्थानीय बोर्डों को हस्तांतरित करें। उसने बोर्डों को आदेश दिया कि वे इस धन की सहायता से स्थानीय समस्याओं को स्वयं हल करें। स्थानीय बोर्डों को वे विषय ही हस्तांतरित किये जाने थे जिन्हें वे समझ सकें और सुचारु रूप से उचित कार्यवाही कर सके। 1882 में लाॅर्ड रिपन ने अपने प्रस्तावों को प्रकाशित किया और यह स्पष्ट किया कि राजनीतिक और लोकप्रिय शिक्षा का आरंभ करने के लिये यह आवश्यक है।

रिपन ने प्रांतीय सरकारों को आदेश दिया के वे जिलांे में स्थानीय बोर्डों को गठित करें। जिले के उपविभागों में स्थानीय बोर्ड बनाने की आज्ञा दी गयी। नगरों में नगरपालिकाएँ स्थापित की गयीं। इन संस्थाओं में गैर सरकारी सदस्यों की संख्या अधिक रखी गयी। सरकार का हस्तक्षेप कम किया गया और उसका काम मार्ग निर्देशन का हो गया। इन बोर्डों के अध्यक्ष इन्हीं सदस्यों द्वारा चुने जाते थे। कुछ कार्यों के लिये सरकारी अनुमति आवश्यक होती थी, जैसे- ऋण लेना, निश्चित राशि से अधिक व्यय करने वाले कार्य, अधिकृत मदों से भिन्न पर कर लगाना, नगरपालिका की संपत्ति को बेचना आदि। सरकारी अधिकारियों का काम स्थानीय संस्थाओं का निरीक्षण करना था। सरकार स्थानीय बोर्डों की कार्यवाही स्थगित करने का अधिकार रखती थी।

रिपन द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों के अनुपालन में 1883 से 1885 के मध्य अनेक स्थानों पर स्वशासन अधिनियम पारित किये गये। इस लिये लाॅर्ड रिपन को ‘‘स्थानीय स्वशासन का जन्मदाता’’ कहा जाता है।

3. शिक्षा में सुधार, हण्टर आयोग- लाॅर्ड रिपन को भली-भाँति मालूम था कि बड़ी संख्या में शिक्षित होने पर ही भारतीयों का उत्थान हो सकता है। अतः शिक्षा के क्षेत्र में प्रसार करने के उद्देश्य से ही उसने 1882 ई. में सर विलियम हण्टर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। 1883 में हण्टर आयोग ने निम्नलिखित सिफारिशें की-
  1. नगरपालिकाओं एवं जिला परिषदों को प्रारंभिक शिक्षा का उत्तरदायित्व सौंप देना चाहिये। संस्थाओं पर सरकार का कड़ा नियंत्रण रहना चाहिए।
  2. माध्यमिक शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्थाएँ की जानी चाहिये। एक तो साधारण साहित्यक शिक्षा की पद्धती तथा दूसरी व्यवहारिक शिक्षा, जिसमें विद्यार्थियों को वाणिज्यिक और रोजगारोन्मुखी शिक्षा दी जाये। सभी माध्यमिक स्कूलों को यथासंभव निजी प्रबंध में सौंपा जाना चाहिये।
  3. आयोग ने बडे़ महाविद्यालयों में वैकल्पिक पाठ्यक्रम का प्रस्ताव किया।
  4. उच्च शिक्षा का कार्य यथासंभव प्राइवेट संस्थाओं को दे देना चाहिये तथा सरकार उन्हें अनुदान दे।
  5. प्रांतीय आय का एक निश्चित प्रतिशत शिक्षा पर व्यय किया जाना चाहिये। सरकार ने हण्टर आयोग की अनेक सिफारश को स्वीकार कर लिया फलस्वरुप विद्यालयों तथा महाविद्यालयों की संख्या में असाधारण वृद्धी हो गयी। पंजाब में 1882 ई. में एक विश्वविद्यालय स्थापित किया गया।
4. आर्थिक सुधार- लाॅर्ड रिपन ने समस्त राजस्व को ‘इम्पीरियल, प्रांतीय तथा विभाजित, तीन वर्गो में विभाजित कर दिया। इम्पीरियल भाग पर केन्द्र का अधिकार था जबकि प्रांतीय भाग पर प्रांतों का अधिकार तथा विभाजित भाग का केन्द्र तथा प्रांतों के बीच विभाजन हो जाता था। प्रांतीय सरकार के घाटे को पूरा करने के उद्देश्य से केन्द्रीय सरकार ने उन्हंे भू-राजस्व का कुछ भाग देना भी स्वीकार कर लिया। आरंभ में यह व्यवस्था 5 वर्ष के लिये की गयी थी परंतु आगे इसकी अवधि में निरंतर वृिद्ध की गयी। रिपन ने स्वतंत्र व्यापार की नीति का और भी विकास किया। अनेक वस्तुओं से 8 प्रतिशत कर समाप्त कर दिया गया। केवल राजनीतिक कारणों से शराब, शस्त्रों एवं बारुद आदि वस्तुओं पर ही यह कर रहने दिया गया। नमक कर में भी कमी की गयी थी।

5. नागरिक सेवाओं में सुधार- लाॅर्ड रिपन नागरिक सेवा नियमों में सुधार करना चाहता था। लाॅर्ड लिटन ने इसमें सम्मिलित होने की अधिकतम आयु 19 वर्ष निश्चित की थी। लाॅर्ड रिपन ने इंग्लैन्ड के उच्च अधिकारियों से परामर्श किया और परीक्षार्थियों की आयु में वृिद्ध कराने में सफलता प्राप्त कर ली थी। 

6. जनगणना- रिपन के पूर्व किसी भी वाइसराय ने जनगणना का कार्य नहीं कराया था। रिपन ने भारतीय जनसंख्या, व्यवसाय आदि के बारे में सूचनाएँ एकत्र कराने के लिये जनगणना कराना आवश्यक समझा। 1881 ई. में प्रथम बार भारत में जनगणना करायी गयी।

7. फैक्टरी एक्ट- लाॅर्ड रिपन के कार्यकाल में 1881 ई. में प्रथम फैक्टरी एक्ट पारित किया गया, इसके अंतर्गत सात से बारह वर्ष तक की आयु के बच्चों के काम करने के घण्टे निश्चित कर दिये गये तथा अब उनसे अधिक से अधिक नौ घंटे काम लिया जा सकता था। इस अधिनियम को लागू करवाने के लिये अधिकारियों की नियुक्ति भी की गयी।

सर सी.पी. इल्बर्ट वायसराय रिपन की विधि परिषद का सदस्य था। उस समय भारत में फौजदारी दंड संहिता के अंतर्गत किसी भी भारतीय न्यायधीश को यूरोपीय अपराधियों के मुकदमे सुनने का अधिकार नहीं था। रिपन ने इस अन्याय को दूर करने के उद्देश्य से इल्बर्ट की सहायता के लिये बिल पारित कराने का प्रयास किया अतः 2 फरवरी 1883 ई. को एक बिल प्रस्तुत किया गया। बिल के द्वारा भारतीय और यूरोपीय न्यायाधीशों को शक्तियाँ समान करने का प्रयास किया गया था। यूरोपीय लोगांे ने इस बिल का घोर विरोध किया, क्योंकि वे इसे अपने विशेषाधिकारों पर कठोराघात मानते थे।

यूरोपीय समुदाय ने अपने विशेषाधिकारों की रक्षा के लिये एक संघ बनाया। बिल का विरोध इतना जबरदस्त था कि रिपन को झुकना पड़ा और बिल में परिवर्तन करना पड़ा। 26 जनवरी 1884 ई. को नया विधेयक पारित किया गया, इस बिल के द्वारा भारतीयों में एक राजनीतिक चेतना का संचार हुआ।

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