निवारक निरोध अधिनियम क्या है

यह भारतीय संविधान की सबसे अधिक विवादास्पद धाराओं में से है। यद्यपि संविधान में निवारक निरोध की कोई परिभाषा तय नहीं की गई है किन्तु यह कहा जा सकता है कि निवारक निरोध किसी अपराध के किये जाने से पहल े तथा बिना किसी न्यायिक कार्यवाही के ही नजरबन्दी है। अनुच्छेद 22 के खण्ड 4 में निवारक निरोध की चर्चा की गई है। यह चर्चा खण्ड 4 से 7 तक विस्तार से की गई है। 

निवारक निरोध सामान्यकाल और संकटकाल दोनों में लागू होता है। भारत के अतिरिक्त किसी अन्य प्रजातंत्र में यह व्यवस्था नहीं है। ब्रिटेन और अमेरिका में युद्धकाल में निवारक निरोध की व्यवस्था को अपनाया जाता है। भारत मं े यह व्यवस्था दोनों समय के लिये है। निवारक के लिये अंगे्रजी भाषा के शब्द (Preventive) का प्रयोग किया जाता है जिसका अर्थ होता है, ‘रोकना’। अर्थात् निवारक निरोध का उद्देश्य दण्ड देने के उद्देश्य से गिरफ्तार करना है वरन् उसे अपराध करने से रोकना है अर्थात् निरुद्ध व्यक्ति को किसी निश्चित उद्देश्य को पूरा करने से रोकना है। इसमें निरुद्ध व्यक्ति पर कोई आरोप नहीं लगाया जाता है। यह कार्यवाही अपराध को रोकने के लिये की जाती है, इसमें केवल एक के आधार पर व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है। 

अनुच्छेद 22 के (4 से 7) के अन्तर्गत निवारक निरोध के अन्तर्गत बन्दी बनाये गये व्यक्ति जो संरक्षण प्रदान किये गये हैं, वे निम्नलिखित हैं-
  1. परामर्शदाता मण्डल द्वारा पुनरावलोकन,
  2. बन्दी बनाए जाने का कारण जानने एवं अभ्यावदेन प्रस्तुत करने का अधिकार और 
  3. परामर्शदाता मण्डल की प्रक्रिया।
अनुच्छेद 22 के भाग 4, 5 और 6 के अन्तर्गत निवारक निरोध का जो उल्लेख किया गया है उसी के आधार पर संसद ने सन् 1950 पर इस अधिनियम की समयावधि बढ़ाई जाती रही और यह अधिनियम 31 दिसंबर, 1969 तक चला।

1975 में देश में आपातकाल की घोषणा होने के साथ ही निवारक निरोध और मीसा को व्यापक विस्तार मिल गया था। जिस प्रकार इनका दुरुपयोग हुआ उससे यह मांग उठने लगी कि शान्तिकाल में निवारक निरोध को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। दिसम्बर, 1978 को इस संबंध में दिल्ली में राज्यों के मुख्यमंत्रियों की जो बैठक हुई उसमें सर्वसम्मति से यह विचार व्यक्त किया गया कि, ‘‘राज्य सरकारों के द्वारा कानून और व्यवस्था बनाये रखने का कार्य निवारक निरोध कानून के अभाव में नहीं किया जा सकता।’’ 44वें संविधान संशोधन 1978 के द्वारा अनुच्छेद 22(4) में महत्वपूर्ण संशोधन किये गये। अनुच्छेद 22 का खण्ड (4) (ब) यह उपबन्धित करता है कि निरोध किसी भी दशा में उस अधिकतम अवधि से अधिक नहीं हो सकता है जो संसद विधि द्वारा इस प्रकार के मामलों में निरुद्ध व्यक्तियों के वर्गों के लिए विहित करेगी। 44वंे संशोधन द्वारा यह भी सुनिश्चित कर दिया गया है कि ‘निवारक नजरबन्दी’ संबंधी कानून किसी भी दशा में 2 महीने से अधिक की अवधि के लिए नजरबन्द रखने का अधिकार नहीं दे सकता जब तक कि एक परामर्शदाता मण्डल नजरबन्दी के पर्याप्त कारण बताते हुए उसकी स्वीकृति ने दे दे। 

अनुच्छेद 22 (5) के अनुसार यह आवश्यक है कि निरुद्ध व्यक्ति को यथाशीघ्र बन्दी बनाये जाने के कारणों की जानकारी दी जानी चाहिए तथा यह अवसर दिया जाना चाहिए कि वह उन कारणों को न्यायालय में चुनौती दे सके। अनुच्छेद 22 (6) के अन्तर्गत यह प्रावधान है कि जनहित के आधार पर निरोध के कारण बताने से इंकार किया जा सकता है।।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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