अरस्तु के न्याय सिद्धांत का वर्णन

अरस्तु के न्याय सिद्धांत का वर्णन

अरस्तू के अनुसार, न्याय का सरोकार मानवीय संबंधों के नियमन से है। अरस्तू का विश्वास था कि लोगों के मन में न्याय के बारे में एक जैसी धारणा के कारण ही राज्य अस्तित्व में आता है। न्याय के प्रयोग क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए अरस्तू ने दो प्रकार के न्याय में अंतर किया है-पहला, वितरण-न्याय तथा दूसरा, प्रतिवर्ती-न्याय। प्रतिवर्ती-न्याय को परिशोधनात्मक या प्रतिकारात्मक न्याय भी कहा जाता है।

वितरण-न्याय का सरोकार सम्मान या धन-संपदा के वितरण से है। यह विधायक अथवा कानून निर्माता के कार्यक्षेत्र में आता है। इसका मूल सिद्धांत यह है कि ‘समान लोगों के साथ समान बर्ताव किया जाए।’ इसके लिए सबसे पहले यह पता लगाना जरूरी है कि नागरिकों को किस आधार पर समान या असमान माना जाएगा? अरस्तू का विचार था कि इस मामले में प्रचलित प्रथाओं और प्रथागत कानून का सहारा लेना अधिक उपयुक्त होगा।

वितरण-न्याय के अंतर्गत पद-प्रतिष्ठा और धन-सपंदा का वितरण अंक गणितीय अनुपात से नहीं होना चाहिए बल्कि रेखागणितीय अनुपात में होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि इनमें से सबको हिस्सा मिलना चाहिए। परंतु याग्े यता कैसे निर्धारित की जाए? अरस्तू के अनुसार, भिन्न-भिन्न संविधानों के अंतर्गत योग्यता के भिन्न-भिन्न आधार स्वीकार किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, गुटतंत्र के अंतर्गत योग्यता का स्तर व्यक्ति की अपनी संपदा से निर्धारित होता है। दूसरी ओर, अभिजात तंत्र के अंतर्गत इसे सद्गुण के पैमाने से मानते हैं।

अरस्तू का विश्वास है कि आदर्श राज्य में वितरण-न्याय के उद्देश्य से सद्गुण को ही योग्यता का मानदंड माना जाएगा। जो जितने सद्गुण-संपन्न होंगे, उन्हें उतने ऊंचे पद और पुरस्कार के योग्य समझा जाएगा, क्योंकि सद्गुणवान मनुष्य ही सांसारिक पद-प्रतिष्ठा और धन-संपदा को गौण मानते हुए मानव-जीवन के ध्येय को सबसे ऊंचा स्थान देगा।

प्रतिवर्ती न्याय का सरोकार लोगों के परस्पर लेन-देन को नियमित करने और अपराधों का दंड निर्धारित करने से है। यह न्यायाधीश के विचार क्षेत्र मे आता है। इसका ध्येय यह है कि व्यक्तियों के परस्पर लेन -देन में दोनों पक्षों का पलड़ा बराबर रहे, किसी को नुकसान न हो। अपराध के मामले में प्रतिवर्ती न्याय की मांग यह होगी कि इससे जिस पक्ष को हानि पहुंची हो, उसकी संपूर्ण क्षतिपूर्ति कर दी जाए। 

संक्षेप में, प्रतिवर्ती या परिशोधनात्मक न्याय का उद्देश्य व्यक्तियों के परस्पर व्यवहार में संतुलन स्थापित करना या बिगडे़ हुए संतुलन को फिर से स्थापित करना है। 

अरस्तू के अनुसार, प्रतिवर्ती न्याय के क्षेत्र में अंकगणितीय अनुपात का प्रयोग उपयुक्त होगा। मतलब यह कि इस मामले में किसी व्यक्ति की योग्यता-अयोग्यता या सामाजिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा, बल्कि सबको समान मानते हुए केवल व्यक्ति के कृत्य पर विचार किया जाएगा।

इस तरह हम देखते हैं कि अरस्तू के ‘वितरण न्याय’ के अंतर्गत ‘योग्यता की संकल्पना’ इसकी आधुनिक संकल्पना से सर्वथा भिन्न है।

आधुनिक अर्थ में योग्यता व्यक्ति के अपने गुणों और अपने कृत्य से निर्धारित की जाती है। परंतु अरस्त ू प्रचलित परंपरा को योग्यता के मानदंड का स्रोत बना देता है जिस पर व्यक्ति का अपना कोई वश नहीं है। दूसरी ओर, प्रतिवर्ती न्याय का सीधा संबंध व्यक्ति के अपने ‘कृत्य’ से है। अतः कुछ हद तक यह योग्यता के आधुनिक अर्थ के निकट आ जाता है।

सिसरो के अनुसार, न्याय चार मुख्य सद्गुणों- बुद्धि, न्याय, साहस एवं शौर्य में से एक है। न्याय समाज को एकसूत्र में बांधता है तथा उस सामान्य हित की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहता है जिसके लिए समाज अस्तित्व में आता है। अन्याय को वह शक्ति की लालसा एवं लालच मानता है।

स्टोइक विचारकों के अनुसार, नैतिकता सामान्य हित को प्रोत्साहित करती है। नैतिकता ऐसे संबंधों को भी जोड़ती है जो टूट गए हों। सिसरो एवं स्टोइक विचारक न्याय को सामान्य हित का न्याय मानने वाले आरंभिक विचारकों में से है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

1 Comments

  1. Is it fully correct article about aarestu..?

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