‘कादम्बरी’ में चन्द्रापीड एवं उसके मित्र पुण्डरीक के तीन जन्मों की कथा वर्णित है। कथा के आरम्भ में विदिशा के राजा शूद्रक की राजसभा में चांडालक वैशम्पायन नामक तोते को लेकर आती है। शुक वैशम्पायन राजा को बताता है कि जाबालि ने उसे उसके पूर्वजन्म की कथा सुनाई थी और उस कथा के अनुसार राजा चन्द्रापीड अपने मित्र मंत्रिपुत्र वैशम्पायन के साथ दिग्विजय के लिए निकलता है। हिमालय के क्षेत्र में अच्छोद सरोवर के निकट वह महाश्वेता की वीणा के संगीत से आकृष्ट होकर शिवालय पहुँच जाता है, जहाँ महाश्वेता एवं उसकी सखी कादम्बरी से उसका परिचय होता है।
महाश्वेता एक तपस्वी कुमार पुण्डरीक के साथ अपने अधूरे प्रणय की कथा सुनाती है। चन्द्रापीड और कादम्बरी के हृदय में एक-दूसरे के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है, किन्तु अपने पिता तारापीड के द्वारा वापस उज्जयिनी बुला लिए जाने के कारण चन्द्रापीड के प्रणय की पूर्ति नहीं हो पाती है। अपनी राजधानी पहुँचने के बाद चन्द्रापीड को दूती पत्रलेखा के माध्यम से कादम्बरी का प्रणय संदेश मिलता है। यहाँ बाण लिखित कादम्बरी का पूर्वार्ध समाप्त हो जाता है।
पांचाली रीति में निबद्ध इस ग्रन्थ में रस, छन्द, अलंकार, गुण, रीति आदि समस्त काव्यशास्त्रीय उपादानों का सम्यक् प्रयोग हुआ है। अपनी कल्पनाशक्ति से बाणभट्ट ने कादम्बरी की कथा को अत्यन्त विस्तार प्रदान किया है। विषयानुरूप वर्णन-शैली, शब्द और अर्थ का समुचित गुम्फन, पात्रों का सजीव चित्रण, श्लेष की स्पष्टता, रस की स्फुटता एवं अक्षर की विकटबंधता का दुर्लभ सन्निवेश कादम्बरी को संस्कृत साहित्य में वह स्थान प्रदान करता है, जहाँ आलोचक अनायास कह उठते हैं- ‘बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।’।
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