खैर की लकड़ी का उपयोग

खैर के वृक्ष की लकड़ी कठोर होती है। साधारणतः वृक्ष 3-4 मीटर ऊँचा होता है। यह वृक्ष पंजाब से असम तक तथा समस्त दक्षिणी प्रायद्वीप पर पाया जाता है। इसकी तीन किस्में होती हैं। पहली किस्म पंजाब, उत्तरांचल, बिहार, उत्तरी आंध्रप्रदेश में पाई जाती है। दूसरी किस्म असम, कर्नाटक तथा तामिलनाडु (नीलगिरि की पहाडि़याँ) में पाई जाती हैं। तीसरी किस्म प्रायद्वीपीय भाग में पाई जाती है। खैर से कत्था तथा कच निकाला जाता है। कत्था पान में प्रयोग होता है। यह कई रोगों में दवा के रूप में भी प्रयोग होता है। कच का प्रयोग रूई तथा रेशम की रंगाई और कपड़ों की छपाई में किया जाता है। इसका उपयोग मत्स्याखेट के जालों, नाव के पालों तथा डाक के थैलों को रंगने के लिए किया जाता है।

खैर की लकड़ी अच्छी, मूल्यवान तथा टिकाऊ होती है। इसमें दीमक नहीं लगती और इस पर पाॅलिश अच्छी चढ़ती है। मकानों के खम्भे, तेल तथा गन्ने के रस निकालने वाले यंत्रों, हलों तथा औजारों के दस्ते भी अच्छे बनाये जाते हैं। इस लकड़ी का कोयला बहुत अच्छी श्रेणी का होता है।

देश में लकड़ी चीरने की साढ़े तीन हजार मिलें हैं, जो जम्मू व कश्मिर, हिमाचल प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश, तामिलनाडु तथा कर्नाटक में हैं। उत्तरांचल प्रदेश के जनपदों में मिलों की संख्या पर्याप्त मिलती है। भारत में लकड़ी का वार्षिक उत्पादन 87.9 लाख घनमीटर लट्ठा लकड़ी तथा 14.4 लाख घनमीटर ईंधन लकड़ी है।

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