कोहरा के प्रकार
निर्माण प्रक्रिया के अनुसार कोहरा चार प्रकार का होता है-
(1) विकिरण कोहरा - जब भूमि से शीतल लहरों का विकिरण होता है तो अत्याधिक ठण्डी भूमि के कारण आर्द्र वायु की पतली परत संघनन द्वारा कोहरे में बदल जाती है। सूर्यातप द्वारा उष्मा प्राप्त करने के बाद जब पृथ्वी विकिरण द्वारा ठण्डी होने लगती है तो धरातलीय वायुमण्डल की वायु में संघनन होने लगता है जिससे कोहरा बनता है। विकिरण के कारण इसकी उत्पत्ति होती है। अतः इसे विकिरण कोहरा कहा जाता है। इसमें कोहरे की परत की मोटाई 15 से 50 मीटर तक ही होती है।
(2) सम्पर्कीय या अभिवाहनिक कोहरा - अभिवाहनिक कोहरे की उत्पत्ति धरातल पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर वायु की धाराओं के ठण्डी होने से होती है। जब आर्द्र एवं अपेक्षतया उष्ण वायु राशी समुद्र से भूमि की और बहती है तो शीतकाल में या शीतोष्ण प्रदेशों में रात्रि को मन्द-मन्द हवा के कारण तापमान तेजी से भूमि की ठण्डी के सम्पर्क में आने से गिरने लगते है। इससे सद्यन एवं अधिक ऊँचाई वाला कोहरा उत्पन्न होता है। इसका क्षेत्र भी अधिक विस्तृत होता है। इनकी मोटाई कई बार आधा किलोमीटर से भी अधिक रहती है।
(3) वाताग्री या सीमाग्री कोहरा - वाताग्र का अर्ध वायु का अगला भाग होता है। ठण्डी व शुष्क एवं गर्म व आर्द्र वायु राशि के गुण धर्म अलग-अलग होते हैं। ठण्डी हवा भारी एवं भूमि के साथ बहती है। गर्म हवा हलकी होती है। अतः जब कभी गर्म हवा ठण्डी हवा की ओर बढ़ती है, तो वह तेजी से ऊपर उठ जाती है जिससे ठण्डी व गर्म हवा के मिलने के स्थल पर वाताग्र बनतें है। ऐसे भागों में भूमि पर कोहरे की दशा तथा कुछ ऊँचाई पर मेघ दिखाई देने लगते है। अतः इस प्रकार का कोहरा वाताग्री कोहरा कहलाता है। गर्म गल्फस्ट्रीम के ऊपर की हवा जब ठण्डी लेबोडोर की ठण्डी हवा से मिलती है तो विशेष सघन कोहरा बनता है एवं दृश्यता भी शून्य हो जाती है।
(4) पहाडी कोहरा - जब गर्म व आर्द्र हवाएँ मार्ग में पड़ने वाले पहाड़ की ओर ऊपर उठती है तो ऊपरी ढलानों की शीतल वायु के सम्पर्क में आने से वहाँ शीघ्र संघनन होने से कोहरा छा जाता है। इससें पहाड़ी ढालों पर पाला नहीं गिरता। पहाड़ी ढालांे पर उत्पन्न होने के कारण इसे पहाड़ी कोहरा कहते है।
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