विटामिन डी की अधिकता से कौन सा रोग होता है?

विटामिन डी

Vitamin D स्नेह में विलेय तथा जल में अविलेय यह विटामिन उष्णता को सहन कर सकता है। काॅड तथा हेलीबुट मछलियों के यकृत तैल में सर्वाधिक मिलता है। इसके अतिरिक्त मक्खन, घी, दूध, अण्डा तथा सामान्य मछलियों के यकृत आदि से प्राप्त होता है। दो प्रकार के विटामिन ‘डी’ मिलते हैं। डी2 यह निम्न श्रेणी की वनस्पतियों तथा फंगाई, किण्व में उपस्थित अर्गाेस्टेराॅल पर अल्ट्रावाॅयलेट किरणों की प्रतिक्रिया से प्राप्त होता है तथा डी3 यकृत-तैलों, अण्डों तथा मक्खन मे उपस्थित रहता है। प्राणियों की त्वचा के नीचे हाइड्रोकोलेस्टराॅल होता है, जिस पर परानील लोहित किरणों के प्रभाव से विटामिन डी3 उत्पन्न होता है।

एक मिलीग्राम विटामिन डी में 40,000 अ0 मा0 मान लिये गये हैं।

विटामिन डी के कार्य

  1. अन्त्र के कैल्शियम तथा फाॅस्फेट के अवशेषण को बढता है।
  2. कैल्श्यिम तथा फाॅस्फेट के अस्थि निर्माण कार्य में सहायक होता है। 
  3. दाँतों के विकास में सहायक होता है। इनकी कमी से दाँतों का निर्माण सम्यक् प्रकार से नहीं होता है।
  4.  रक्त तथा अस्थियों में कैल्श्यिम का सन्तुलन बनाए रखता है। 
  5. मूत्र द्वारा फास्फेट के उत्सर्जन को प्रभावित करता है।

विटामिन डी की कमी से होने वाले रोग

कैल्श्यिम तथा फाॅस्फेट का अन्त्र में अवशेषण नहीं होने से वे पुरीष द्वारा शरीर से निष्कासित हो जाते हैं। इस कारण शिशुओं की अस्थियों के निर्माण में कैल्श्यिम एवं फाॅस्फेट के पर्याप्त मात्रा में प्राप्त नहीं होने से अस्थियाँ कोमल रहती हैं। शरीर के भार के कारण टाँगों की अस्थियाँ अन्दर या बाहर की ओर मुड़ जाती है। वक्ष, श्रोणि में अस्थि भवन के सामान्य न होने से कुरचना हो जाती है। 6 मास से 18 मास के बच्चों में ऐसा होता है। इस दश को रिकेट्स कहते हैं। वयस्क में विटामिन डी की न्यूनता में अस्थि मृदुता दश हो जाती है। 

विटामिन डी की दैनिक आवश्यकता

एक वर्ष तक के शिशुओं के लिए 400 अ0 मा0, 20 वर्ष की आयु तक के बच्चों को 400 म0 आ0 एवं साथ में कैल्श्यिम तथा फाॅस्फेट की पर्याप्त मात्रा लेनी चाहिये। गर्भवती स्त्री को 400-800 अ0मा0 लेते रहना चाहिए। वयस्कों को 250 अ0 मा0 पर्याप्त है।

विटामिन डी की अधिक मात्रा लेने से हानियां

इस विटामिन की लगातार अधिक मात्रा लेते रहने से-
  1. शरीर का भार कम हो जाता है। 
  2. मूत्र में कैल्श्यिम तथा फाॅस्फेट का उत्सर्जन कम हो जाता है एवं रक्त में कैल्श्यिम की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे वह वृक्कों, हदृय तथा धमनियों में निक्षेप कर जाता है। 
  3. उत्कलेश्, वमन, सिरदर्द तथा निद्रालुता के लक्षण प्रकट हो जाते है।

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