रैले कमीशन- भारतीय शिक्षा के विकास के इतिहास में लार्ड कर्जन का शासनकाल
(1899-1905) अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं कर्जन एक घोर साम्राज्यवादी था और भारतीय
शिक्षा-पद्धति पर वह पूर्ण सरकारी नियंत्रण रखना चाहता था। उसने शिक्षा विभाग में
केन्द्रीयकरण की नीति का अनुसरण किया एवं शिक्षा-व्यवस्था पर नियंत्रण तथा निरीक्षण
स्थापित करने का भी प्रयत्न किया।
जनवरी, 1902 ई. में लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालयों के
संगठन तथा कार्य पर रिपोर्ट देने, शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाने तथा शिक्षा को उन्नत बनाने
के लिये सिफारिशें करने के लिये रैले की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की।
रैले कमीशन 1902 कीं सिफारिशें
इस
कमीशन ने निम्नलिखित सिफारिशें पेश कीं-
- विश्वविद्यालयों के प्रशासन का पुनर्गठन किया जाय।
- विश्वविद्यालयों से सम्बन्धित कालेजों पर कड़ी देख-रेख तथा उन्हें सम्बद्ध करने के लिये कठोर शर्तें रखी जायें।
- विद्यार्थियों के आवास-स्थल तथा कार्य की दशाओं पर अधिक ध्यान दिया जाय।
- निर्धारित सीमाओं के अंतर्गत विश्वविद्यालयों द्वारा शिक्षण का प्रबन्ध किया जाय।
- पाठ्यक्रम तथा परीक्षा-पद्धति में सारमय परिवर्तन न हो।
कमीशन की सिफारिशों का मुख्य उद्देश्य
उपर्युक्त रैले कमीशन की सिफारिशों का मुख्य उद्देश्य शिक्षा पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण कायम करना था। अतः भारतीयों ने इसका विरोध किया। लेकिन लार्ड कर्जन ने इस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और उन सिफारिशों के आधार पर 1904 ई. में विश्वविद्यालय अधिनियम (Universities Act, 1904) पास करवाया। इस ऐक्ट ने विश्वविद्यालयों की प्रबन्धक संस्थाओं का पुनर्निर्माण किया। विश्वविद्यालय की सिनेट में कम-से-कम 50 और अधिक-से-अधिक 100 सदस्य हो सकते थे। कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास विश्वविद्यालयों के लिये निर्वाचित सदस्यों की संख्या 20 और शेष दो विश्वविद्यालयों के लिये 15 रखी गई।सिंडीकेट को कानूनी मान्यता दे दी गई और उसमें अध्यापकों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया
गया। कालेजों पर सरकारी नियंत्रण रखने का निश्चय किया गया। कालेजों को किसी
विश्वविद्यालय से संबंधित करने या न करने का अंतिम निर्णय भी भारत सरकार के हाथ में
था। अभी तक विश्वविद्यालय परीक्षा लेने वाली संस्थाएं ही थीं।
इस कानून द्वारा उन्हें शिक्षण
कार्य के योग्य बनाने की व्यवस्था की गई।