ब्रह्म समाज || ब्रह्म समाज के सिद्धान्त || ब्रह्म समाज के उद्देश्य

ब्रह्म समाज के प्रमुख उद्देश्य

ब्रह्म समाज हिन्दू धर्म में पहला सुधार आन्दोलन था। इस आन्दोलन को राजा राममोहन राय ने 1828 में प्रारंभ किया था। जो बाद में ब्रह्म समाज के नाम से जाना जाने लगा वास्तविक रूपबह्म समाज धार्मिक एवं सामाजिक कुरीतियों के विरोध में सतत् संघर्ष का आह्वान था। 

ब्रह्म समाज के प्रमुख उद्देश्य

बह्म समाज का प्रमुख उद्देश्य हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराईयों को दूर करना और एकेश्वरवाद का प्रचार-प्रसार करना था। अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए राजा राममोहन राय ने अन्य धर्मों की श्रेष्ठ शिक्षाओं को इसमें समाविष्ट कर हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न किया। उनका यह प्रयत्न मानवतावाद एकेश्वरवाद तथा सामाजिक पुनरूत्थान के लिए एक मजबूत आधार था। 

पालक तथा रक्षक है। ईश्वर निराकार है तथा शाश्वत है। अदक्ष्य और सत्य है। इसमें ईश्वर की आध्यात्मिक उपासना पर बल दिया गया है। बहुदेववाद, मूर्ति पूजा, सन्यास आदि कर्मकाण्डों की आलोचना कर धर्म को आड़म्बर से मुक्त करने का प्रयास किया गया है। राजाजी ने पापकर्म से पश्चाताप ही मनुष्य के मोक्ष का मार्ग बताया है।

उपर्युक्त तर्क को सिद्ध करने हेतु राजा राममोहन राय ने वेदोक्तियों का विवरण दिया है। ब्रह्म समाज ने हिन्दू समाज मे व्याप्त कुरीतियों, सती प्रथा बहुपत्नि प्रथा, वेश्यागमन, जातिवाद इत्यादि की भी भर्त्सना की तथा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया समाज में महिला उत्पीड़न एवं निम्नस्तर का विरोध किया। ब्रह्म समाज ने भारतीय समाज में उन्नति हेतु तथा समाज की जड़ता को खत्म करने के लिए महिला शिक्षण को भी प्रोत्साहित करने का प्रयास किया।

1833 में राजा राममोहन राय की असामयिक मृत्यु हो गई। इससे ब्रह्म समाज को बहुत बड़ा आघात पहुंचा। संकट की इस घड़ी ने इस आन्दोलन को महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर (1817-1905) बढ़ाया। देवेन्द्रनाथ टैगोर 1942 में ब्रहम समाज में सम्मिलित हुये इससे पहले उन्होने 1839 में तत्वबोधिनी सभा द्वारा स्थानीय भाषा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में योगदान दिया। उनका मुख्य लक्ष्य ईसाई धर्म की तेज प्रगति का प्रतिरोध वेदांत के प्रसार द्वारा करना था। 1843 में ही देवेन्द्रनाथ टैगोर ने विचारों को अपनाकर उसी वर्ष इसका पुर्नगठन किया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने विधवा विवाह तथा नारी शिक्षा पर जोर दिया। और अपने अनुयायियों को मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड तीर्थ यात्रा तथा प्रायश्चित करने से रोका उन्होंने ईश्वर को किसी भी रूप में पूजन पर बल दिया।

देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 1843 में ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्म समाज का आचार्य नियुक्त कर दिया। केशवचन्द्र की शक्ति वाक पटुता, और उदारवादी विचारों ने इस आन्दोलन को लोकप्रिय बना दिया और इस आन्दोलन का विस्तार बंगाल से बाहर उत्तरप्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र और मद्रास में भी हो गया।

 केशवचन्द्र सेन हिन्दू धर्म को संकीर्ण मानते थे। इसलिए संस्कश्त के मूलपाठों का प्रयोग करना उचित नहीं समझते थे। उन्होने यज्ञोपवीत पहनने का विरोध किया और सभी धर्मों की पुस्तकों का पाठ इनकी सभाओं में होने लगा। उन्होने हिन्दू धर्म में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को भी दूर करने का प्रयत्न किया  केशवचन्द्र सेन का यह उदारवाद शीघ्र ही बह्म समाज में फूट का कारण बन गया। अतः 1865 में देवेन्द्रनाथ टैगोर ने  केशवचन्द्र सेन को आचार्य की पद से हटा दिया।

केषवचन्द्र सेन और उनके अनुयायियों ने 1866 में एक नवीन ब्रह्म समाज की स्थापना की जिसे ’’आदि ब्रह्म समाज’’ कहा जाने लगा। इनमें धर्म सुधार के अतिरिक्त स्त्रियों की मुक्ति, विधवा विवाह, एक-विवाह, महिला षिक्षा का समर्थन किया। इसके अतिरिक्त सस्ते साहित्य बांटना, मद्य निषेध को प्रोत्साहन दिया गया।  केशवचन्द्र ने जातीय व्यवस्था का खण्डन किया तथा मानव में धार्मिक भाव को उत्तेजित करने के लिए प्रार्थना में भक्ति तत्वों को सम्मिलित किया।

संकीर्तन को उन्होंने आदि ब्रह्म समाज का महत्वपूर्ण अंग बनाया। इनके प्रयत्नों से यह आन्दोलन अत्यन्त लोकप्रिय हो गया। 1878 में इस आन्दोलन में एक और फूट पड़ी।  केशवचन्द्र सेन बह्म समाजियों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु सीमा का प्रचार-प्रसार करते थे लेकिन 1878 में उन्होंने अपनी 13 वर्षीय पुत्री का विवाह कूच बिहार के महाराजा से पूर्ण वैदिक कर्मकाण्डों के साथ कर दिया।  केशवचन्द्र सेन के अधिकांश अनुयायियों ने दुखी होकर एक नया ब्रह्म समाज स्थापित किया जिसे ’’साधारण ब्रह्म समाज’’ का नाम दिया। संकीर्तन को उन्होंने आदि ब्रह्म समाज का महत्वपूर्ण अंग बनाया। इसके पश्चात ब्रह्म समाज की प्रारम्भिक नवीनता और उद्देश्य इतिहास के अंधकार में खो गये।

बह्म समाज के कमजोर होने के विविध कारण थे। ब्रह्म समाज में क्रमबद्ध फूट के कारण इसके संगठन तथा कार्य शक्ति पर विशेष प्रभाव पड़ा। ब्रह्म समाज का विस्तार शिक्षित भारतीयों तक ही हो पाया था। वास्तविक रूप से उसमें निहित सिद्धांत तथा कार्य योजना अशिक्षित व्यक्ति के समझ से परे थे। उदाहरण स्वरूप- सती प्रथा सिद्धांत ऊँची जातियों में ही प्रचलित थी और नारी षिक्षा और नारी मुक्ति नीची जाति के लोगों के लिए कोई विशेष महत्व नहीं रखती थी।

यद्यपि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि ब्रह्म समाज ने धर्म सुधार आन्दोलन द्वारा पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बह्म समाज ने हिन्दू धर्म ने नई जाग्रति एवं चिन्तन पैदा कर हिन्दुओं को ईसाई बनने से रोका जिसका प्रभाव हिन्दु समाज पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ। लेकिन जातिवाद तथा अस्पृश्यता हटाने के प्रयत्न में वे अधिक सफल नहीं हो सके।

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