चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियां का वर्णन

चंद्रगुप्त द्वितीय

चंद्रगुप्त द्वितीय (375-414ई०) चंद्रगुप्त द्वितीय गुप्त राजवंश का दूसरा महान शासक एवं भारत के योग्य शासकों में से एक था। चंद्रगुप्त द्वितीय ही इतिहास में चंद्रगुप्त ‘विक्रमादित्य’ के नाम से भी प्रसिद्धि प्राप्त है । उसका अन्य नाम ‘देवगुप्त’, ‘देवराज’, ‘देवश्री’ भी थे। वह समुद्रगुप्त का पुत्र था। समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद 375 ई० में चंद्रगुप्त का बड़ा भाई रामगुप्त गद्दी पर बैठा। वह एक कमजोर शासक था। चंद्रगुप्त द्वारा वह मारा गया और इस प्रकार चंद्रगुप्त ने सिंहासन छीन लिया। 

चंद्रगुप्त द्वितीय गुप्त वंश का पहला शासक है जिसके राज्यारोहण की तिथि निश्चित रूप से 376-77ई० के रूप में विदित है। इसके कई अभिलेखीय प्रमाण भी उपलब्ध हैं। इस बात के भी प्रमाण हैं कि अपने अनेक पुत्रों और प्रपौत्रों में से समुद्रगुप्त ने चंद्रगुप्त को अपने जीवनकाल में ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। आधुनिक शिलालेखों में ‘तत्परिगृहीत’ शब्द पाया जाता है। जिसका तात्पर्य है कि-चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त द्वारा अपने साम्राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। 

सिंहासनारोहण के समय चंद्रगुप्त द्वितीय की प्रारम्भिक कठिनाइयां

चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यारोहण के समय देश की राजनैतिक स्थिति असंतोषजनक थी। उसके पिता समुद्रगुप्त ने एक बहुत बड़ा गुप्त साम्राज्य स्थापित किया था। उसने उत्तर में कुछ राज्यों को विजित करके उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया था। वह समझता था कि पूरा भारत को एक शासक के अधीन रखना संभव नहीं होगा। अतः उसने दक्षिण तथा सीमांत क्षेत्रों के कई राज्यों को अधीनता स्वीकार करने की शर्त पर उनके राज्य वापस कर दिये थे। इस प्रकार अपने शासनकाल में समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य और उससे भी अधिक प्रभाव क्षेत्र स्थापित किया।

लेकिन समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद  गुप्त साम्राज्य की राजनैतिक स्थिति पतनोन्मुख हो गई। ‘शकों’ की शक्ति और प्रभाव बढ़ने लगा। केन्द्रीय शक्ति के कमजोर होने के साथ-साथ प्रान्तीय शासक अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने लगे। चंद्रगुप्त द्वितीय एक महत्वाकांक्षी शासक था और अपने पिता की तरह ही साम्राज्य विस्तार की उसकी महत्वाकांक्षा थी । अतः इन स्थितियों का सामना उसको करना था। शकों तथा अन्य जनजातीय शक्तियों की बढ़ती ताकत को दबाना दूसरी समस्या थी। 

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यारोहण के साथ ही उसे कई समस्याओं का सामना करना था। बिखरते साम्राज्य को एकता के सूत्र में पिरोना तथा राज्य में कानून और व्यवस्था बनाये रखना सबसे पहली समस्या थी।

1.अन्य राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध

चंद्रगुप्त द्वितीय अपने समय की शक्तियों को अपने नियंत्रण में लाने के लिये उसने मात्र सैन्य शक्ति का प्रयोग ही नहीं किया बल्कि वैवाहिक संबन्धों की कूटनीति से भी काम लिया। उसने उन अधीन राज्यों से, जो असंतुष्ट या शक्तिसंपन्न थे, वैवाहिक संबन्धों द्वारा अपना मित्र बना लिया।

यहाँ आप यह जान लें वैवाहिक सबन्धों के द्वारा अपनी स्थिति को सुदृ्ढ़ या सुरक्षित बनाने की नीति कोई नयी नहीं थी। इससे पूर्व भी गुप्त वंश के लगभग सभी महत्वपूर्ण राजाओं ने अपनी वैदेशिक नीति में वैवाहिक संधियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया । उदाहरण के तौर पर आप देखें कि लिच्छवी वंश में चंद्रगुप्त प्रथम के विवाह से उसकी स्थिति सुदृढ़ हुई। आर्यावर्त की विजय के बाद गुप्त राजाओं ने अन्य राजवंशों से भी वैवाहिक संबन्ध स्थापित करने की चेष्टा की, जिससे गुप्त साम्राज्य को सुदृढ़ किया जा सके और नये प्रदेशों की विजय के लिये भी संभावना बन जाये। उसी प्रकार समुद्रगुप्त ने कुषाण तथा अन्य शासकों से कन्याओं को उपहार स्वरूप स्वीकार किया तथा शक और कुषाण वंश से मैत्री संबन्ध स्थापित किये।

इतिहासकारों का मत है कि कुन्तल के कादम्ब शासक काकुत्स्थवर्मा की पुत्रियों के विवाह गुप्त शासकों से हुए। भोज तथा क्षेमेन्द्र ने कहा है कि विक्रमादित्य ने एक दूत मंडल कुन्तल भेजा।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि वैवाहिक मित्रता की नीति के द्वारा चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। ये सभी वैवाहिक संबन्ध राजनैतिक महत्व के और गुप्त सम्राज्य को दृढ़ करने वाले थे। इससे यह प्रमाणित होता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय उच्च कोटि का कूटनीतिज्ञ था।

चंद्रगुप्त द्वितीय की दिग्विजयें/उपलब्धियां

यद्यपि समुद्रगुप्त अपने उत्तराधिकारी के लिये एक विस्तृत साम्राज्य छोड़ गया था, तथापि चंद्रगुप्त द्वितीय ने साम्राज्य विस्तार हेतु कई युद्ध किये।

चंद्रगुप्त द्वितीय की दिग्विजयों का सबसे महत्वपूर्ण एवं अधिकारिक स्रोत ‘मेहरौली का लौह स्तम्भ लेख’ माना गया है। इस पर संक्षिप्त किन्तु काव्यमय वर्णन पाया जाता है। यद्यपि इस पर उत्कीर्ण ‘चन्द्र’ का संबन्ध किससे है, इस संबन्ध में इतिहासकारों ने विभिन्न मत व्यक्त किये हैं। 

‘डा० आयंगर ’के मतानुसार-‘चन्द्र’ का तात्पर्य चंद्रगुप्त प्रथम से है जबकि ‘राखाल दास बनर्जी’ तथा ‘डा० हर प्रसाद शास्त्री’ का मत है कि मेहरौली स्तम्भ के ‘चन्द्र’ का तात्पर्य पुशरमान (जोधपुर) के राजा चन्द्रवर्मन से है। किन्तु चन्द्रवर्मन एक प्रान्तीय और कम प्रसिद्ध राजा था। 

‘विन्सेंट स्मिथ’ सहित अनेक इतिहासकारों का मत है कि ‘चन्द्र’ गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय की ओर संकेत करता है। 

इस प्रकार अब तक हुए शोध से यह स्पष्ट है कि इस स्तम्भ के ‘चन्द्र’ का तात्पर्य चंद्रगुप्त द्वितीय से ही है। चंद्रगुप्त द्वितीय की विजयों की विवेचना निम्नलिखित रूपों में की जा सकती है।

गणराज्यों का विनाश

उस समय पश्चिमोत्तर भारत में कुषण और अवन्ति के महाक्षत्रपों के बीच मद्र-गण से लेकर खरपरिक-गण तक बहुत से छोटे-छोटे गणराज्य थे। स्वतंत्रता प्रेमी होने के कारण ये गणराज्य असंगठित थे।किन्तु सैन्य दृष्टि से इतने दुर्बल थे कि किसी संगठित विदेशी आक्रमणकारी का सामना नहीं कर सकते थे। चंद्रगुप्त ने इनकी दुर्बलता का पूरा लाभ उठाया। अपने विजय अभियान का पहला निशाना चंद्रगुप्त द्वितीय ने इन्हीं गणराज्यों को बनाया। 

चंद्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि में मिले हुए उत्कीर्ण लेखों से पता चलता है कि मध्यभारत की ओर विजय के प्रयोजन से चंद्रगुप्त गया हुआ था। (फ़्लीटरू गुप्त अभिलेख, संख्या-11 “ कृत्स्रापृथ्वी-जयार्थेन राज्ञैवेह सहागतरू” ) इस घटना के बाद भारत के इतिहास में गणराज्यों का अस्तित्व समाप्त हो गया। 

डा० राजबली पाण्डेय का मत है कि चंद्रगुप्त न केवल ‘शकारि’ अपितु ‘गणारि’ भी था।

अवन्ति के क्षत्रपों का अन्त

मध्यभारत के गणराज्यों का विनाश करने के बाद चंद्रगुप्त ने अपना विजय अभियान जारी रखा तथा अवन्ति के क्षत्रपों का विनाश किया। रुद्रसिंह तृतीय के 388 ई० तक के सिक्के मिलते हैं। इसके बाद का कोई सिक्का नहीं मिलता। वह अन्तिम क्षत्रप था जिसका३३.यह घटना संभवतः 395 से 400 ई० के बीच घटी। क्षत्रप सिक्कों का अनुकरण कर चंद्रगुप्त ने मालवा में अपने चाँदी के सिक्के चलाये।

बंगाल (पूर्वी प्रत्यान्त /सीमावर्ती राज्यों) की विजय

मेहरौली लौह स्तम्भ से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद पूर्वी भारत में स्थित गुप्त वंश के शत्रु राजे फिर से एकजुट होने लगे थे। जिनमें बंगाल प्रांत के कुछ प्रमुख सरदार-प्रत्यन्त-नृपतिसमतट, दवाक एवं कामरूप के राजा सम्मिलित थे। परन्तु चंद्रगुप्त ने उन सभी को बलपूर्वक पराजित कर दिया। इन विजयों के द्वारा गुप्त साम्राज्य की सीमा आसाम तक विस्तृत हो गई।

मेहरौली लौह स्तम्भ अभिलेख’ में कहा गया है कि-
“यस्योद्धर्तयतःप्रतीपमुरसा शत्रून्समेत्यागता-
न्वंङगेष्वाहव-वत्र्तिनोऽभिलिखता खड्गेन कीर्तिभुजे।”

राजा चन्द्र ने अपने विरुद्ध संगठित राजाओं के एक संघ को परास्त करके वंग देश को विजित किया । कालिदास की मान्यता है कि ‘वंग’ शब्द का अर्थ गंगा की दो शाखाओं भागीरथी और पद्मा के बीच की भूमि है। इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख में कहा गया है कि समतट जिसमें वंग का कुछ भाग भी सम्मिलित था, एक ‘प्रत्यान्त’ या सीमावर्ती राज्य था, जो समुद्रगुप्त की प्रभुता को स्वीकार करता था। सम्भव है कि कुछ राजाओं ने चंद्रगुप्त द्वितीय को मान्यता न दी हो और उसे उनके विरुद्ध युद्ध करना पड़ा हो। संभव है कि वंग विजय चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल के अंत में हुई हो और इसीलिये सिक्कों तथा अभिलेखों से इस घटना का उल्लेख नहीं मिलता।

पश्चिमोत्तर भारत विजय

मेहरौली के लौह स्तम्भ लेख में यह स्पष्ट रूप से वर्णित है कि पूर्व के सीमावर्ती राज्यों को अपने राज्य में मिलाने के बाद चंद्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर भारत, जहाँ संभवतः कुषाणों के वंशज अभी भी शासन कर रहे थे, पर आक्रमण किया। लौह स्तम्भ में यह भी स्पष्ट वर्णित है कि-“तीत्र्वा सप्तमुखानि येन समरे सिन्धोजिता वाह्निकारू” अर्थात ‘सिन्धु नदी के सात मुँह’ ( सिन्धु नदी की सात सहायक नदियों सतलज से लेकर काबुल) पार करके उसने वाहलिक पर भी विजय प्राप्त की। 

डा० आर० सी० मजुमदार के अनुसार, वाहलिक हिन्दुकुश पर्वतों के पार बल्ख को ही मानना होगा। यह भी कहा गया है कि राजा चन्द्र ने अपनी भुजाओं के पराक्रम से संसार में प्रभुता प्राप्त की। उसने पंजाब और सीमान्त पर अधिकार जमाकर भारत के प्राचीन दिग्विजयी राजाओं की परिपाटी के अनुसार हिन्दुकुश के पास तक दिग्विजय करते हुए वाह्निकों को परास्त किया।

शक क्षत्रपों पर विजय

पश्चिम भारत के शक क्षत्रपों पर विजय चंद्रगुप्त द्वितीय की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। यद्यपि चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों पर विजय की तिथि विवादास्पद है तथापि विभिन्न तर्कों के बाद विद्वान इतिहासकारों ने यह तिथि 389 ई० से 413 ई० के बीच की मानी है।

कई शताब्दी तक शक भारतीय राजनीति की विकट समस्या थे। इलाहाबाद स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने शकों के साथ मैत्री संबन्ध रखे तथा उन पर अपना आधिपत्य नहीं जमाया। 

स्मिथ का मत है कि जाति, धर्म और रिति-रिवाज की विभिन्नता के कारण चंद्रगुप्त द्वितीय को पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य को विजित करने का विशेष कारण दिखायी दिया। उसका कुछ भी उद्देश्य रहा हो उसने सत्य सिंह के पुत्र क्षत्रप रुद्रसेन पर आक्रमण किया, उसे सिंहासन से उतारा और और उसका बध किया । तत्पश्चात उसने उसका राज्य भी गुप्त साम्राज्य में मिला लिया। युद्ध अवश्य ही बहुत लम्बा रहा होगा। उस प्रदेश के विलीन किये जाने का प्रमाण सिक्कों से मिलता है,अभिलेखों से नहीं। किन्तु वीरसेन शाब के उदयगिरि गुफा अभिलेख में कहा गया है कि “वह(शाब) यहाँ (पूरवी मालवा) आया, उसके साथ स्वयं राजा (चंद्रगुप्त) भी था जो समस्त संसार पर विजय पाने का अभिलाषी था।” यह विचार प्रकट किया गया है कि शाब पाटलिपुत्र का निवासी था और वह चंद्रगुप्त द्वितीय का ‘सचिव’ या मंत्री बना। वह युद्ध तथा शान्ति विभाग का अधिकारी था। जब चंद्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी क्षत्रपों को परास्त करने का निश्चय किया तो वह भी उसके साथ गया। शकों के विरुद्ध चंद्रगुप्त के अभियानों का केन्द्र पूर्वी मालवा था। साँची तथा उदयगिरि के अभिलेखों से प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने मंत्री, सेनानी और सामंत पूर्वी मालवा में विदिशा के स्थान पर या उसके निकट एकत्र किये।

23 बाण ने भी पश्चिमी क्षत्रपों के पतन का उल्लेख किया है, किन्तु चंद्रगुप्त द्वारा चलाये गये चाँदी के सिक्कों का प्रमाण तो निर्णायक है। रैपसन की मान्यता है कि “अन्तिम महाक्षत्रपों के सिक्कों की तरह, जिनसे वे धातु और शैली की दृष्टि से बहुत मिलते जुलते हैं और उनके मुख भाग पर, राजा के पीछे तिथि दी गई है जिसके साथ ‘वर्षे’ का कोई तुल्यार्थ शब्द भी है और यूनानी अक्षरों में पुराने मुद्रा लेख के कुछ कुछ अवशेष भी हैं और पृष्ठ भाग पर गुप्त चिन्ह (मोर) के स्थान पर चैत्य, चन्द्र और तारे को अंकित कर दिया गया है।”

दक्षिणापथ की पुनर्विजय

मेहरौली लौह स्तम्भ में वर्णित है “यस्याद्याप्य्धिवास्यते जसनिधिवीर्यानिलैद्द्क्र्षिणः”। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि रामगुप्त के शासनकाल में दक्षिण-भारत के राजाओं ने गुप्तों के साम्राज्य से निकलने का प्रयत्न किया और चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी भुजाओं के बल पर दक्षिण में पुनः अपना आधिपत्य स्थापित किया।

3. ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण

चूंकि ऐसा माना जाता था कि शकों को पराजित करने वाले की कीर्ति चारों दिशाओं में फ़ैल जाती थी। इसलिये चंद्रगुप्त ने शक क्षत्रपों को विजित करने में अधिक रुचि दिखायी।ऐसा अनुमान है कि शकों को पराजित करने के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय ने ‘शकारि’ की उपाधि धारण की। 57 ई० में उज्जयिनी के विक्रमादित्य ने शकों को हराकर संवत का प्रदर्शन किया था। चंद्रगुप्त ने भी उत्तरापथ और अवन्ति के शक राज्यों का उन्मूलन करके ‘विक्रमादित्य’ का विरुद धारण किया। चंद्रगुप्त ने अपने पराक्रम और प्रताप से पुनः अपना आधिपत्य स्थापित किया। अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने ‘देवराज’, ‘देवगुप्त’,सिंहविक्रम’,सिंहचन्द्र’ इत्यादि उपादियाँ धारण कीं।

चंद्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य एवं मुख्य नगर

चंद्रगुप्त द्वितीय योग्य प्रशासक के साथ-साथ एक महान योद्धा और महान विजेता था। उसने पिता के समान ही साम्राज्य विस्तार की नीति का अनुपालन किया।उसने अपने शौर्य और पराक्रम से गुप्त साम्राज्य का प्रसार किया। उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल और आसाम से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक विस्तृत था। उसने कुषाणों को पराजित कर पश्चिमोत्तर में हिन्दुकुश तक तथा गांधार एवम कम्बोज में गुप्त साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। इस प्रकार,चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत गुजरात, सौराष्ट्र, मालवा,उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल व पंजाब का अधिकांश भाग सम्मिलित था। 
अधिकांश इतिहासकारों ने यही स्वीकार किया है कि है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने एक निवास स्थान मालवा में भी बना लिया था। उसके पहले संभवतः विदिशा में और फिर उज्जैन में उसका निवास था। चंद्रगुप्त द्वितीय को ‘श्रेष्ठतम नगर उज्जैन का स्वामी’ और ‘सर्वश्रेष्ठ नगर पाटलिपुत्र का स्वामी’ कहा गया है। 

वसुबन्धु की जीवन-कथा के लेखक ने अयोध्या को विक्रमादित्य की राजधानी कहा है। 

एलन के अनुसार, “चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा चलाये गये ताँबे के सिक्के प्रायः अयोध्या में और उसके निकट पाये गये हैं। इससे ज्ञात होता है कि अयोध्या भी एक राजधानी थी तथा उसमें एक टकसाल था।” ब्लोच द्वारा बसाड़ में की गई खुदाई से बहुत-सी मिट्टी की मुहरें प्राप्त हुईं जिनसे चंद्रगुप्त द्वितीय के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। एक मुहर से ज्ञात होता है कि ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त द्वितीय की ‘महादेवी’ और गोविन्दगुप्त की माता थी। यह भी सिद्ध हो जाता है कि अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में गोविन्दगुप्त तीर या तीरभुक्ति का गवर्नर था। 

मुहरों में उस समय के कई कर्मचारियों को पदवियां दी गई हैं,जैसे‘उपरिक’, ‘कुमारामात्याधिकरण’, ‘बलाधिकार’,‘ रणभन्डाधिकरण’,‘ दन्डपाशाधिकरण’, ‘महादन्डनायक’, भटाश्वपति’, ‘महाप्रतिहार’, विनयस्थितिस्थापक ‘विनयसुर’ तथा 24 ‘तलवार’। इन मुहरों से प्रान्तीय प्रशासन पर ही नहीं बल्कि जिला और स्थानीय प्रशासन पर भी प्रकाश पड़ता है। 

प्रतीत होता है कि उज्जैन और उत्तरी भारत के बीच मुख्य मार्ग पर स्थित कौशाम्बी को भी राजा ने अपना निवास स्थान बनाकर सम्मानित किया।

Post a Comment

Previous Post Next Post