चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध के कारण

1. टीपूँ द्वारा शक्ति संगठन - यद्यपि तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध और श्रीरंगपट्टम की संधि ने टीपू को शक्ति हीन और पंगु बना दिया था, किन्तु वह निराश और हतोत्साहित नहीं हुआ। उसने अपनी शक्ति और साधनों को पुनः संगठित करना प्रारंभ कर दिया था। उसने आश्चर्यजनक द्रुतगति से तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के विनाशकारी प्रभावों से मुक्त होकर अपनी सैनिक एवं आर्थिक स्थिति में सुधार कर उन्हें अधिक सुदृढ़ कर लिया। उसने अपने जिलों की समुचित किलेबंदी करना प्रारंभ कर दिया, अश्वारोही और पैदल सैनिकों की संख्या में भी वृद्धि कर उन्हें युद्ध के लिए यथेष्ठ रूप से प्रशिक्षित किया और कृषि की उन्नति कर आय के स्त्रोतों में वृद्धि की।

2. टीपू द्वारा फ्रान्स-तुर्की से सहायता का प्रयत्न - टीपू अंग्रेजों को अपना कट्टर शत्रु मानता था। उनके विरूद्ध मित्र बनाने और सहायता प्राप्त करने के लिये टीपू ने काबुल के बादशाह जमानशाह, तुर्की में कुस्तुनतुनिया के सुल्तान के पास और माॅरीसश द्वीप में फ्रांसीसी गवर्नर के पास अपने राजदूत मण्ड़ल भेजे। जमानशाह ने भारत पर आक्रमण का आश्वासन दिया और उसके लिये तैयारी प्रारंभ कर दी। 

माॅरीशस के फ्रांसीसी गवर्नर ने टीपू को मैसूर का सुल्तान स्वीकार कर लिया। फ्रांसीसी सैनिकों की एक टुकड़ी टीपू की सहायता के लिये 20 अप्रेल 1798 ई. को मैंगलौर पहुँच गयी। टीपू ने अनेक फ्रांसीसियों को अपनी सेना में भरती कर लिया और अपने सैनिक संगठन के लिये फ्रांसीसी अधिकारी भी नियुक्त किये।

3. वैलेजली द्वारा युद्ध की तैयारी - इस समय भारत में बिट्रिश राज्य का गवर्नर जनरल वेलेजली था। वह साम्राज्यवादी विचारधारा का था और भारत में फ्रांसीसी प्रभाव को पूर्णतया समाप्त कर बिट्रिश राज्य का विस्तार करना चाहता था। इसीलिये टीपू द्वारा विदेशियों से और विशेषकर फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त करने के प्रयासों को वेलेजली शत्रुतापूर्ण कार्य मानता था। फ्रांसीसी सैनिकों के टीपू के राज्य में आगमन को उसने अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध की चेतावनी माना इसलिये उसने युद्ध कर टीपू की शक्ति को समाप्त करने का निश्चय किया। किन्तु युद्ध की घोषणा और टीपू पर आक्रमण करने के पहले वेलेजली ने टीपू के विरूद्ध मराठों और निजाम को अपनी ओर मिलाया। 

1 सितम्बर 1798 ई. को निजाम ने वेलेजली द्वारा प्रस्तावित सहायक संधि स्वीकार कर ली व अंग्रेजों का मित्र बन गया। उसने टीपू के विरूद्ध अंग्रेजों का साथ देने का वचन दिया। तत्पश्चात उसने मराठों को अपने पक्ष में करने के लिये पेशवा को यह प्रलोभन दिया कि वह मैसूर के जीते हुए प्रदेशों में से आधा भाग पेशवा को देगा। 

इसके बाद वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण के लिये स्वयं मद्रास की ओर प्रस्थान किया।

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध की घटनाएँ

फरवरी 1799 ई. में वेलेजली ने टीपू के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और पूर्व दिशा से मैसूर राज्य पर दो सेनाओं ने, एक जनरल हैरिस के नेतृत्व में और दूसरी आर्थर वेलेजली के नेतृत्व में, आक्रमण किये। पश्चिम दिशा से जनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में एक अन्य अंग्रेज सेना ने मैसूर पर आक्रमण किया। मराठों और निजाम की सेनाओं ने भी मैसूर राज्य पर आक्रमण किया। 

जनरल स्टुअर्ट ने 26 मार्च 1799 ई. को सदासीर के युद्ध में और इसके बाद मलावली के युद्ध में जनरल हैरिस ने टीपू को परास्त किया। फलतः टीपू ने रणक्षेत्र से पीछे हटकर अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम के दुर्ग में शरण ली। अब अंग्रेज सेना ने 17 अप्रेल 17़99 ई. को श्रीरंगपट्टम का घेरा डाला दिया। इससे टीपू तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उसने अपनी वीरता, अदम्य उत्साह और साहस से अंग्रेज सेना का डटकर सामना किया। अंत में अपनी राजधानी के रक्षार्थ दुर्ग प्राचीर पर प्रवेश द्वार के समीप अंग्रेजों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। 

टीपू के मृत्यु के बाद 4 मई 1799 ई. को अंग्रेजों ने श्रीरंगपट्टम पर अधिकार कर लिया। इसके बाद अंग्रेज सेनाओं ने श्रीरंगपट्टम के समस्त नगर और टीपू के राजमहल को खूब लूटा तथा विभिन्न स्थानों को जला दिया। अंग्रेजों को इस लूट में दो करोड़ का माल और अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त हुईं।

मैसूर का विभाजन

टीपू की मृत्यु के बाद समस्त मैसूर राज्य पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। इतने बड़े राज्य को दक्षिण के तत्कालीन अंग्रेजी राज्य में मिलने से निजाम और मराठें अत्यंत ही रूष्ट हो जाते। अतः परिस्थितियों को देखते हुए वेलेजली ने मैसूर का विभाजन ही श्रेयस्कर समझा। निजाम को मैसूर राज्य का उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र जो उसके राज्य से मिला हुआ था, दे दिया गया। इसमें गुठी, गरम कोण्डा और चिŸालदुर्ग के जिले थे। मैसूर राज्य का कुछ क्षेत्र हरपन्हाली और सूण्डा के जिले मराठों को देने का प्रस्ताव रखा गया, यदि पेशवा अंग्रेजों के साथ सहायक संधि स्वीकार कर ले। किन्तु पेशवा ने ऐसा करना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उसे मैसूर का क्षेत्र नहीं दिया गया। पेशवा को दिए जाने वाले प्रदेश को अंग्रेजों और निजाम ने परस्पर बाँट लिया। अंग्रेजों ने मैसूर राज्य का समस्त पश्चिमी समुद्र तट तथा दक्षिण और पूर्व के कुछ क्षेत्र अपने पास रख लिए। इन क्षेत्रों में पश्चिम में कनारा, दक्षिण पश्चिम में बाईनाद, कोयम्बटूर और दारापुरम के जिले तथा श्रीरंगपट्टम थे। शेष बचा हुआ मैसूर का राज्य प्राचीन वाडियार राजवंश के दो वर्षीय बालक कृष्णराज को देकर उसे मैसूर का राजा स्वीकार कर लिया गया।

अंग्रेजों की कृष्णराज के साथ संंधि

अंग्रेजों ने मैसूर के नए राजा कृष्ण के साथ संधि की। जिसके अनुसार (1) मैसूर राज्य की सुरक्षा के लिए एक अंग्रेज सेना रखी गयी जिसका व्यय सात लाख पेगोडा प्रति वर्ष मैसूर के राजा को वहन करना पड़ेगा। (2) आवश्यकता पड़ने पर मैसूर नरेश को अंगे्रजों की सहायता करनी होगी। (3) आवश्यकता या कुशासन होने पर अंग्रेज मैसूर प्रशासन में हस्तक्षेप कर सकते हैं और प्रशासन को अपने नियंत्रण में ले सकते हैं। (4) राजा ने यह वचन दिया कि वह न तो विदेशी को अपने यहाँ प्रशासन में नौकरी देगा और न किसी विदेशी शक्ति से व्यवहार और संबंध ही रखेगा। (5) टीपू के पुत्रों को पेंशन दे दी गयी।

मैसूर-विभाजन और संंधि की समीक्षा

(1) अंग्रेजों के सबसे कट्टर और शक्तिशाली शत्रु टीपू का अंत हो गया। बंगाल में क्लाइव की विजय के बाद भारत में अंग्रेजों की यह सर्वाधिक शानदार विजय थी।

(2) मैसूर राज्य इतना छोटा, सीमित, पंगु और शक्तिहीन कर दिया गया कि वह कभी भी सशक्त और संपन्न होकर अंग्रेज के विरूद्ध खड़ा नहीं हो सके। 

(3) मैसूर के आर्थिक साधनों का उपयोग अंग्रेजों को उपलब्ध हो गया। इसका उपयोग अन्य क्षेत्रों में अंग्रेजों के हित में किया जा सकता था। 

(4) मैसूर राज्य के तीन ओर अंग्रेजी राज्य की सीमाएँ हो गयीं। मैसूर राज्य की उत्तरी सीमा भी अंग्रेजों के मित्र निजाम के राज्य से मिलती थी। यह क्षेत्र भी बाद में निजाम ने अंग्रेज सेना के व्यय के बदले में अंग्रेजों को दे दिया। इस प्रकार अब मैसूर राज्य चारों ओर अंग्रेजी राज्य से घिर गया। 

(5) मैसूर राज्य के प्रदेशों को प्राप्त कर लेने से अंग्रेजी राज्य दक्षिण भारत में पश्चिम समुद्र तट से पूर्वी समुद्र तट तक फैल गया। अंग्रेजों का अधिकार अरब सागर से लेकर बंगाल तक स्थापित हो गया। इससे अंग्रेजों की राजनीतिक प्रतिष्ठा और सैनिक यश गौरव में बहुत वृद्धि हुई।

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