कुषाण काल की कला का दूसरा केंद्र मथुरा था। सहिष्णुता इस काल की एक खास विशेषता थी।
यही कारण था कि इस कला शैली में जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण तीनों धर्माें के देवताओं की मूर्तियां बनाई गई।
मथुरा - शैली की मूर्तियों में विविधता है। ये मूर्तियां सफेद चित्तीदार पत्थर पर बनाई गई हैं। इस शैली में
मानव शरीर का यथार्थ दिखाने का प्रयत्न नहीं किया है। परंतु मुखाकृति आध्यात्मिक सुख और शांति से
ओतप्रोत है।
जैन तीर्थंकर की प्रथम मूर्ति बनाने का श्रेय इसी शैली को है। मथुरा के कंकाली टीले से चार प्रकार की तीर्थंकर मूर्तियां प्राप्त होती हैं - (1) खड़ी कायोत्सर्ग मुद्रा में दिगंबर मूर्ति (2) पद्यासन मूर्तियां (3) खड़ी चैमुखी मूर्तियां (4) बैठी चैमुखी मूर्तियां।
जैन तीर्थंकर की प्रथम मूर्ति बनाने का श्रेय इसी शैली को है। मथुरा के कंकाली टीले से चार प्रकार की तीर्थंकर मूर्तियां प्राप्त होती हैं - (1) खड़ी कायोत्सर्ग मुद्रा में दिगंबर मूर्ति (2) पद्यासन मूर्तियां (3) खड़ी चैमुखी मूर्तियां (4) बैठी चैमुखी मूर्तियां।
इस शैली की कुछ बुद्ध मूर्तियां इस प्रकार हैं- सारनाथ की महाकाल बोधिसत्व की मूर्ति, कौशाम्बी की
खड़ी मूर्ति, कटरा एवं अन्योर की बैठी हुई मूर्तियां, बोधिसत्व-मैत्रेय की खड़ी-दायें हाथ में अमृत कलश लिए
अभय-मुद्रा की मूर्ति, अवलोकितेश्वर की कुछ मूर्तियां इत्यादि।
मथुरा कला शैली की प्रमुख विशेषताएं
मथुरा कला शैली की प्रमुख विशेषताएं हैं -- मूर्तियां सफेद चित्तीदार लाल पत्थर पर बनी हैं।
- बुद्ध सिंहासनासीन हैं, और पैरों के पास सिंह आकृति है।
- मथुरा शैली के मुख पर आभा एवं प्रभामंडल है, तथा दिव्यता एवं आध्यात्मिकता की अभिव्यंजना है।
- मथुरा शैली में शरीर का धड़ भाग नग्न वस्त्रहीन है, दक्षिण कर अभय मुद्रा में तथा वस्त्र सलवटों युक्त हैं।
- मथुरा शैली की मूर्तियां आदर्श प्रतीक भावना युक्त हैं।
- मूर्तियां विशालता से युक्त हैं।