1814 ई. में कलकत्ता में उन्होंने ’’आत्मीय सभा’’ की
स्थापना की उन्होंने मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए यह विचार समाज के समक्ष
रखे कि -‘‘ सभी प्राचीन मौलिक ग्रंथों ने एक ब्रहम का उपदेश दिया है।’’ उन्होंने
वेदो और पांच मुख्य उपनिषदों का बंगला भाषा में अनुवाद प्रकाशित किया और
समाज के सामने निरर्थक धार्मिक अनुष्ठानों का विरोध किया तथा पंडित पुरोहितों
के द्वारा बनाये और अपनाये गये आडंबरों का खुलकर विरोध किया ।
1820 में
उन्होंने ’प्रीसेप्टस् आफ जीसस’ नामक पुस्तक प्रकाशित की, इस पुस्तक में
उन्होंने न्यू टेस्टामेंट के नैतिक एवं दार्शनिक संदेश को उसकी चमत्कारी
कहानियों से अलग करने की कोशिश की । उनका मानना था कि ’’संसार के
सभी धर्मो का मौलिक उद्देश्य एक ही है और सभी धर्मावलंबी भाई भाई है।’’
1828 ई. में उन्होंने ’ब्रह्म सभा’ के नाम से एक नए समाज की स्थापना की
जो ब्रह्म समाज के नाम से जाना जाने लगा। इस सभा का मुख्य उद्देश्य था
- हिन्दू धर्म में सुधार लाना। मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए उन्होंने एक ब्रह्म की
उपासना और सभी धर्माे की समानता पर बल दिया।
राजा राममोहनराय ने समाज में फैली कुरीतियों और आडंबरों का विरोध करते हुए जाति प्रथा, सती प्रथा और विधवा विवाह जैसे कार्यो में सामाजिक सुधार करने का प्रयास किया। वे स्त्रियों के अधिकार के समर्थक थे। आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के लिये उन्होंने 1817 में कलकत्ता में एक इंग्लिश स्कूल चलाया । 1811 ई. में उनके बडे भाई की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी भाभी को सती प्रथा की धधकती ज्वाला में भेट होना था। इस स्थिति को देखकर वे सती प्रथा के कट्टर विरोधी हो गये थे। इस संबंध में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि -’’राजा रामामोहन राय ने 1818 में दो व्यक्तियों सती प्रथा के समर्थक तथा विरोधी के मध्य एक वार्तालाप प्रकाशित किया जिसमें स्त्री जाति के पक्ष में तर्क देते हुए मानवता के आधार पर लोगों से अपील की गई कि उन्हें जीवित जलाया जाना अनुचित है।’’ गृह सरकार से अनुमति प्राप्त होने पर 1829 ई. को बंगाल में सतीप्रथा को आत्महत्या के समान अपराध घोषित किया। इस कानून के तहत सती होने वाली स्त्री और उसको सहयोग देने वाले व्यक्तियों के लिये दण्ड का प्रावधान किया गया।
राजा राममोहनराय ने समाज में फैली कुरीतियों और आडंबरों का विरोध करते हुए जाति प्रथा, सती प्रथा और विधवा विवाह जैसे कार्यो में सामाजिक सुधार करने का प्रयास किया। वे स्त्रियों के अधिकार के समर्थक थे। आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के लिये उन्होंने 1817 में कलकत्ता में एक इंग्लिश स्कूल चलाया । 1811 ई. में उनके बडे भाई की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी भाभी को सती प्रथा की धधकती ज्वाला में भेट होना था। इस स्थिति को देखकर वे सती प्रथा के कट्टर विरोधी हो गये थे। इस संबंध में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि -’’राजा रामामोहन राय ने 1818 में दो व्यक्तियों सती प्रथा के समर्थक तथा विरोधी के मध्य एक वार्तालाप प्रकाशित किया जिसमें स्त्री जाति के पक्ष में तर्क देते हुए मानवता के आधार पर लोगों से अपील की गई कि उन्हें जीवित जलाया जाना अनुचित है।’’ गृह सरकार से अनुमति प्राप्त होने पर 1829 ई. को बंगाल में सतीप्रथा को आत्महत्या के समान अपराध घोषित किया। इस कानून के तहत सती होने वाली स्त्री और उसको सहयोग देने वाले व्यक्तियों के लिये दण्ड का प्रावधान किया गया।
1830 में बम्बई और मद्रास प्रान्तों में इसे
लागू कर दिया गया। इससे प्रसन्न होकर राजा राममोहन राय ने 16 जनवरी
1830 ई. को कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों और ईसाई मिशनरियों के साथ अंग्रेजी
गर्वनर जनरल को बधाई दी।
राजा मोहनराय ने जात-पांत के भेदभाव को दूर करने, आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार करने के लिये - 1825 ई. में वेदांत कालेज मे सामाजिक और भौतिक विज्ञानों की पढाई की व्यवस्था की । समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिये भी उन्होंने 1833 ई. में एक आन्दोलन किया।
राजा मोहनराय ने जात-पांत के भेदभाव को दूर करने, आधुनिक और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार करने के लिये - 1825 ई. में वेदांत कालेज मे सामाजिक और भौतिक विज्ञानों की पढाई की व्यवस्था की । समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिये भी उन्होंने 1833 ई. में एक आन्दोलन किया।
जगदीश नारायण
सिन्हा के अनुसार -‘‘राममोहन का दृष्टिकोण उदार, व्यापक एवं अपेक्षाकृत
आधुनिक था। उनके विचारों एवं व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप उनके सुधारों पर पड़ी।
लेकिन इसी बीच 1833 में इंग्लैण्ड में उनकी अकाल मृत्यु हो गई । उसके बाद
ब्रह्म समाज का संगठन एवं काम ढीला पड़ने लगा।’’
राजा राममोहन राय द्वारा किये गये सामाजिक और धार्मिक सुधारों का मूल्यांकन करते हुए ताराचंद के शब्दों में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि -‘‘ राममोहन ने यह समझ लिया कि स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धान्त पर आधारित लोकतांत्रिक समाज तभी बन सकता है कि जब जात-पांत का अंत कर दिया जाए। उन्होंने लिखा जांत-पांत के भेदभाव से हिन्दू समाज के असंख्य टुकड़े पैदा हुए है। इससे हिन्दू, देश भक्ति की भावना से वंचित हो गए है। हम लोग लगभग 9 शताब्दियों से पराधीनता के शिकार रहे हैं और इसका कारण यह रहा है कि हम जांत पांत में बटें हैं जो हममें आपसी एकता के अभाव का कारण रहा है।’’
राजा राममोहन राय द्वारा किये गये सामाजिक और धार्मिक सुधारों का मूल्यांकन करते हुए ताराचंद के शब्दों में यह कहना उचित प्रतीत होता है कि -‘‘ राममोहन ने यह समझ लिया कि स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धान्त पर आधारित लोकतांत्रिक समाज तभी बन सकता है कि जब जात-पांत का अंत कर दिया जाए। उन्होंने लिखा जांत-पांत के भेदभाव से हिन्दू समाज के असंख्य टुकड़े पैदा हुए है। इससे हिन्दू, देश भक्ति की भावना से वंचित हो गए है। हम लोग लगभग 9 शताब्दियों से पराधीनता के शिकार रहे हैं और इसका कारण यह रहा है कि हम जांत पांत में बटें हैं जो हममें आपसी एकता के अभाव का कारण रहा है।’’
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