शैव धर्म क्या होता है || शैव धर्म के प्रमुख संप्रदाय

शैव धर्म क्या है

भगवान शिव तथा उनके अवतारों को मानने वालों को शैव कहते हैं। शैव धर्म शिव से सम्बद्ध धर्म को शैव धर्म कहा जाता है जिसमें शिव को इष्टदेव मानकर उनकी उपासना की जाती है। संभवतः शैव धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म था। सैन्धव सभ्यता की खुदाई में मोहनजोदड़ों से एक मुद्रा पर पद्मासन में विराजमान एक योगी का चित्र मिलता है। योगी के सिर पर त्रिशूल जैसा आभूषण तथा तीन मुख है। सर जान मार्शल ने इस देवता की पहचान ऐतिहासिक काल के शिव से स्थापित की है।

अनेक स्थलों से कई शिवलिंग भी प्राप्त होते हैं जो कि प्राचीनतम धर्म होने का प्रमाण प्रस्तुत करते है। ऋग्वेद में शिव को ‘रूद्र’ कहा गया है। भारत की प्राचीनतम आहत मुद्राओं के ऊपर भी शिवोपसना के प्रतीक वृषभ, नन्दिपद आदि चिन्ह मिलते है। पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि ईसा पूर्व दूसरी शती में शिव की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती थी। गुप्त शासनकाल में वैष्णव धर्म के साथ ही साथ शैव धर्म की भी बहुत प्रगति हुई। पुराणों में लिंगपूजा का उल्लेख मिलता है। संभवतः लिंग रूप में शिव पूजा का प्रसार गुप्तकाल में ही हुआ था। 

दक्षिण भारत में शैव धर्म का प्रसार नायनार संतों के द्वारा किया गया जिनमें अय्पार, सम्बन्दर, सुन्दर मूर्ति मुख्य थे। कथाओं में 63 नयनारों के नाम बताये गये हैं। नयनारों में कराइकल की एक महिला और आदतूर का निम्न जाति का एक व्यक्ति नन्दन भी था।

शैव धर्म या मत के जितने अनुयायी हैं जो भगवान् शंकर के विभिन्न स्वरूपों एवं आकारों की उपासना करते हैं, उतने अन्य किसी देवता के उपासक नहीं जान पड़ते । 

शैव सम्प्रदायों का सबसे पहला उल्लेख पतंजलि के 'महाभाष्य' में हुआ है, जो ईसा के दो शताब्दि पूर्व का है। पतंजलि, शुंग पुष्यमित्र के समकालीन थे । 'महाभाष्य' में शिव के अनेक नामों का उल्लेख तो है ही। इसके अतिरिक्त एक स्थल पर पतंजलि ने शिव - भागवतो' का भी उल्लेख किया है, जो सम्भवतः शिवोपासकों का एक सम्प्रदाय था । इन शिव भागवतों का एक विशेष लक्षण यह था कि ये अपने देवता के प्रतीक स्वरूप एक माला लेकर चलते थे । अतः ये शिव- भगवान शैव धर्म (मत) का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है, परन्तु इस सम्प्रदाय का शीघ्र ही लोप हो गया जान पड़ता है, क्योंकि शिव- भागवतो का फिर कहीं उल्लेख नहीं हुआ ।

महाभारत के शांति पूर्व में पाशुपत शैवों का उल्लेख किया गया है। जिसको तत्कालीन धर्म पंचांग में से एक माना गया है। इस सम्प्रदाय के विषय में इस से कुछ अधिक कुछ नहीं कहा गया है कि इस सिद्धान्त को भगवान शिव ने प्रकट किया था। शांति-पर्व के ही एक अन्य भाग में 'शिवसहस्रनाम' प्रसंग में कहा गया है कि स्वयं भगवान् शिव ने ही पाशुपत सिद्धान्त को प्रकट किया था, जो कुछ में वर्णाश्रम-धर्म के अनुकूल और कुछ अंशों में उसके प्रतिकूल था । महाभारत में इस सम्प्रदाय के संस्थापक के विषय में कुछ कहा नहीं गया है, परन्तु बाद में पुराण ग्रन्थों में यह चर्चा है कि 'लकुलिन' अथवा 'नकुलिन' ने लोगों को 'माहेश्वर' अथवा 'पाशुपत योग' सिखाया था । इस 'लकुलिन' को भगवान 'शिव' का अवतार और कृष्ण का समकालीन माना जाता था। 'लकुलिन' की ऐतिहासिकता पर संदेह करने का कोई कारण नहीं हैं, यद्यपि उसके समय के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है । 'सर्वदर्शनसंग्रह ' नामक ग्रन्थ में उनको पाशुपत - सम्प्रदाय का संस्थापक माना गया है और नागराज - मन्दिर के शिलालेख और अन्य कई शिलालेखों से भी इसकी पुष्टि होती है। महाभारत में 'कापालिक' वृत्ति का उल्लेख हुआ है । परन्तु महाभारत के उल्लेखों से हम निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकते कि शिव को इस रूप में पूजने वालों का संगठन का स्वरूप कैसा था ? अतः महाभारत के समय तक 'पाशुपत - सम्प्रदाय' का प्रारम्भिक रूप का पता चल गया था।

इसके बाद दूसरी शताब्दी ईसवी एक सिक्के के लेख में कुषाण राजा 'विमकडफाइजिज' ने अपने आपको 'माहेश्वर' कहा है । यह पाशुपत संम्प्रदाय का ही दूसरा नाम है । अतः यह सिद्ध होता है उस समय में भी यह सम्प्रदाय अस्तित्त्व में था। इस समय तक इसे राजकीय संरक्षण प्राप्त था अन्य शैव सम्प्रदायों का पूर्व - पौराणिक काल में कोई उल्लेख नहीं मिलता। 

लिङ्ग-पुराण और वायु-पुराण से सबसे पहले लगता है कि पौराणिक काल में शैव सम्प्रदाय पाशुपातो का उल्लेख मिलता है। कपालिकों का भी पौराणिक काल तक एक संगठित सम्प्रदाय बन गया था, और जैसा कि देखते हैं कि इसको इस समय साधारण रूप से शिव के उपासकों को शैव कहा जाता था, और इन्हीं के धार्मिक आचार-विचारों का पुराण-ग्रन्थों के मुख्य रूप वर्णन किया गया है। किसी अन्य शैव सम्प्रदाय का पुराणों में कोई निश्चित उल्लेख नहीं मिलता।

पुराणोत्तर काल में हम अनेक शैव सम्प्रदायों के अस्तित्त्व के प्रमाण मिलते है। शिव लिङ्ग को अपने मस्तक पर धारण करने वाले 'भार- शिवो' की चर्चा मिलती है। इनका उल्लेख दो शिलालेखों में भी हुआ है। चीनी यात्री 'ह्वेनसांग' ने भारत की यात्रा के दौरान अनेक स्थलों पर उसका नाम लेकर पाशुपत सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। अन्य शैवों का ह्यूनसांग ने 'जटाधारी' तथा शैवों की भी चर्चा की है, जो वस्त्रहीन अवस्था में फिरा करते थे । अतएव निष्कर्ष यही प्रतीत होता है कि एक निश्चित ऐतिहासिक व्यक्ति प्रधान शैव सम्प्रदाय का संस्थापक था और यह शैव मत माधव द्वारा 'नकुलीश पाशुपत' कहा गया। आगे चलकर इसी से तीन अन्य सम्प्रदाय उदय हुए। महर्षि बादरायण-प्रणीत 'ब्रह्म सूत्र' के शाङ्कर - भाष्य पर वाचस्पति मिश्र जो ‘भामती' नामक टीका लिखी है। इसके अन्तर्गत दूसरे अध्याय के दूसरे पाद सैतीसवें सूत्र की व्याख्या में शैव, पशुपत, कारुणिक, सिद्धान्ती, कापालिक - इन चार शैव-सम्प्रदायों का उल्लेख किया गया है। उसी सूत्र की टीका में टीकाकार- भाष्कराचार्य ने कारुण सिद्धान्तियों के स्थान पर 'काठक सिद्धान्ती' यह नाम दिया है । निम्बार्क-सम्प्रदाय के अनुयायी श्री निवास ने अपनी 'वेदान्त कौस्तुभ' नामक टीका में, तथा 'वेदोत्तम' ने अपने 'पाञ्चरात्रप्रामाण्य' नामक टीका में उसी सूत्र की व्याख्या में 'काठक' अथवा 'कारुणिक' के स्थान पर एक तीसरे ही नाम 'कालामुख' का निर्देश किया है । इसका भी कुछ पता नहीं चलता ।
ऊपर लिखे अनुसार इन सम्प्रदायों की संख्या चार यह कब से निर्धारित हुई । कम से कम गुणरत्नविरचित षड्दर्शन - समुच्चय की टीका तथा अन्यान्य अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थों में इन चार नामों के अतिरिक्त अनेक दूसरे सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है। इस बात का निर्णय करने का हमारे पास कोई स्रोत नहीं कि ये सारे सम्प्रदाय उपर्युक्त चार प्रधान सम्प्रदायों के ही अवान्तर भेद अथवा उनसे सम्बद्ध सम्प्रदाय थे अथवा स्वतन्त्र सम्प्रदाय थे । सम्भवतः 'लङ्कलीश' सम्प्रदाय तो, जिसे मध्वाचार्य ने ‘पाशुपत' नाम से निर्दिष्ट किया है, 'पाशुपत सम्प्रदाय' का ही एक अवान्तर सम्प्रदाय था । अप्पथ्य दीक्षित ने अपनी 'शिवार्कमणि दीपिका' नामक ब्रह्मसूत्र की टीका में दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के अड़तीसवें सूत्र की व्याख्या में वायुसंहिता नामक एक ग्रंथ का उल्लेख किया है । उसमें तथा वैसे ही कतिपय दूसरे ग्रन्थों में शैव ग्रन्थों के वैदिक तथा अवैदिक इस प्रकार दो विभाग किये हैं । समस्त शैव सम्प्रदायों को इस प्रकार के दो विभागों में विभक्त करना सहज कार्य नहीं है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म के नाम पर ( नर मुण्डों, चिताभस्म तथा सुरा इत्यादि के उपयोग की भाँति ) विविध प्रकार के बीभत्स आचारों का उपदेश देने वाले सम्प्रदाय अवैदिक माने जाने लगे । लक्ष्मीधर ने श्रीशंकराचार्य प्रणीत 'सौन्दर्यलहरी' की स्वरचित टीका में इसी बात को लेकर 'कापालिकों' की गर्हणा की है ।

इन्हीं सम्प्रदायों में से एक सम्प्रदाय लगता है कि बौद्धों से मिल गया या उससे प्रभावित हुआ और उसी से नाथों तथा जोगियों का सम्प्रदाय बन गया जिसके अनुयायी सारे भारतवर्ष में पाये जाते हैं । फिर भी इस बौद्ध और अन्य से प्रभावित शैव सम्प्रदाय के विषय में कुछ विशेष कहने से पूर्व ऐतिहासिक गवेषणा करनी आवश्यक है।
इस समय इन सम्प्रदायों की दशा यह है कि इनके आचारों तथा सिद्धान्तों की तो बात ही दूर रही, इनकी निश्चित संख्या, नाम, मूल स्थान तथा इनके आदि प्रर्तकों तक का भी दृढ़ रूप से पता नहीं है । इसलिए विद्वानों में इनके सम्बन्ध में बहुत से मतभेद उभरते हैं, किन्तु अस्तित्त्व को नकारा नहीं जा सकता है जो किसी न किसी रूप में हमें देखने को मिलते हैं ।

शैव धर्म के प्रमुख संप्रदाय

सबसे प्राचीन सम्प्रदाय शैव सम्प्रदाय को ही माना जाता है। शैव में शाक्त, नाथ, दसनाम, नग आदि उप सम्प्रदाय हैं। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के चार सम्प्रदाय बताए गए हैं- शैव, पाशुपत, कालदामन और कापलिक । शैव मत का मूलरूप ऋग्वेद में रूद्र की आराधना में है। बारह रूद्रों में प्रमुख रूद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए।

शिव पुराण में शिव के दशावतारों के अतिरिक्त अन्य का भी वर्णन मिलता है, जो निम्नलिखित है- 1. महाकाल, 2. तारा, 3. भुवनेश, 4. षोडश, 5. भैरव, 6. छिन्नमस्तक गिरिजा, 7. धूम्रवान, 8. बगलामुखी, 9. मातंग तथा 10. कमल । ये दसों अवतार तन्त्र शास्त्र से सम्बन्धित है।

शास्त्रों में शैवों के निम्नांकित संस्कारों का उल्लेख मिलता है-

1. शैव सम्प्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं। वे शिवलिंग की ही पूजा करते हैं।
2. इसके संन्यासी जटा रखते हैं।
3. इनमें सिर तो मुडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते।
4. इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं।
5. इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं।
6. ये निर्वस्त्र भी रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमण्डल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं।
7. शैव चन्द्र पर आधारित व्रत-उपवास करते हैं।
8. शैव सम्प्रदाय में समाधि लेने की परम्परा है।
9. शैव मन्दिर को शिवालय कहते हैं, जहां सिर्फ शिवलिंग होता है।
10. ये भभूति एवं आड़ा तिलक भी लगाते हैं।

शिव के अन्य ग्यारह अवतारों, 1. कपाली, 2. पिंगल, 3. भीम, 4. विरूपाक्ष, 5. विलोहित, 6. शास्ता, 7. अजपाद, 8. आपिर्बुध्य, 9. शम्भू, 10. चण्ड तथा 11. भव, माने गये हैं। इन अवतारों के अलावा शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सनुटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात तथा नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी शिव पुराण में हुआ, जिन्हें अंशावतार माना जाता है (Agnihotri 2014b: 91-92) | 

शिव के उपासकों के कई सम्प्रदाय बन गये जिनके आधार और नियम पृथक् पृथक् थे। कुछ सम्प्रदायों का परिचय इस प्रकार है-

1. पाशुपत सम्प्रदाय: - यह शैवों का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है, जिसकी उत्पत्ति ईसा पूर्व दूसरी शती में हुई थी। पुराणों के अनुसार इसकी स्थापना 'लकुलीश ' या ' लकुली' ब्रह्मचारी ने की थी, जिसका अवलोकन हम इसी परिच्छेद के प्रारम्भ में हम कर चुके हैं। इस सम्प्रदाय के अनुयायी 'लकुलीश' को शिव का अवतार माना जाता है। इस सम्प्रदाय के लोग अपने हाथ में एक लगुड़ या दण्ड धारण करते थे, जिसे शिव का प्रतीक समझा जाता था । इसका प्राचीनतम अंकन कुषाण शासक 'हुविष्क' (द्वितीय शती) की एक मुद्रा पर हम देख चुके हैं। 

गुप्त काल में इस सम्प्रदाय के अनुयायी थे, राजपूतकाल चाहमान तथा कलचुरि - चेदि वंश के शासन में भी इस सम्प्रदाय के जनों का विभिन्न स्रोतों से उल्लेख मिलता है, जो इस शोध की विषय-वस्तु के कालक्रम के अन्तर्गत नहीं आता। महेश्वर कृत 'पाशुपत सूत्र' तथा वायु-पुराण से पाशुपत सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का ज्ञान होता है । 'पाशुपत सम्प्रदाय' के अन्तर्गत पाँच पदार्थों की सत्ता को स्वीकार की गयी है-
  • कार्य — जिसमें स्वतन्त्र शक्ति नहीं है कार्य किया जाता है इसमें जड़ तथा - चेतन की सभी सत्ताएँ आ जाती है ।
  • कारण — जो सभी वस्तुओं को सृष्टि तथा संहार करता है यही कारण है । यह स्वतन्त्र तत्त्व है जिसमें असीम ज्ञान तथा शक्ति होती है । यही परमेश्वर (शिव) हैं।
  • योग- इसके द्वारा चित्त के माध्यम से जीव तथा परमेश्वर में सम्बन्ध स्थापित होता है ।
  • विधि— जीव को महेश्वर की प्राप्ति कराने वाले साधन को विधि कहा गया है । शरीर पर भस्म लगाना, मन्त्र, जप, प्रदक्षिणा आदि इसके प्रमुख अंग माने गये है।
(2) कापालिक सम्प्रदाय:- शैव धर्म का दूसरा सम्प्रदाय कापालिक है जिसके उपासक 'भैरव' को शिव का अवतार मानकर उनकी उपासना करते हैं । 'मालतीमाधव' नाम के रूपक में तत्कालीक कापालिन सम्प्रदाय का बड़ा अच्छा चित्रण किया है। जिन मन्दिरों में ये उपासना करते थे, वे श्मशान भूमि होते थे । तत्कालीन कापालिक सम्प्रदाय का नया - लक्षण था कि अब इसमें स्त्रियाँ भी सम्मिलित हो सकती थी । और पुरुषों के समान ही वे भी अपने सम्प्रदाय की विशेष वेश-भूषा को धारण करती थी । कापालिकों ने वर्ण भेद को मिटा दिया था ।

कापालिकों के सम्बन्ध में आनन्दगिरि ने कुछ अधिक विस्तार से बताया। शंकर से उनकी भेंट उज्जयिनी में हुई थी जहाँ उनका बड़ा प्रावल्य था । उनके वर्णन से हमें पता चलता है, कि वे जटाएँ रखते थे, जिन पर नवचन्द्र की प्रतिमा रहती थी, उनके हाथ में कपाल का कमण्डल रहता था, वे माँस और मदिरा का सेवन करते थे, और शिव के 'भैरव' अथवा 'कापालिक' रूप की उपासना करते थे । 

(3) लिंगायत सम्प्रदाय:- 'लिङ्गायत' या 'वीर- शैव' सम्प्रदाय दक्षिण में नये सम्प्रदाय का प्रचार हुआ जिसका आगे चलकर बड़ा महत्व हुआ । यह 'लिङ्गायत' अथवा 'वीरशैव' सम्प्रदाय के नाम से विख्यात हुआ । इस सम्प्रदाय का जन्म कब और कैसे हुआ और इसका संस्थापक कौन था ? अभी तक इसके विषय में सर्वमान्य मत नहीं प्राप्त है । बसव पुराण के प्रवर्तकों में 'अल्लभ प्रभु' और उनके शिष्य 'बसव' को बताया गया है। इसी प्रकार 'एकानन्द रामय्य' को फ्लीट ने इस सम्प्रदाय का संस्थापक माना है । डॉ० जी० आर० भण्डारकर मानते हैं कि वीरशैव अथवा लिङ्गायत सम्प्रदाय 'बसव' से पूर्व ही अस्तित्त्व में आ चुका था । इस प्रकार बसव इस सम्प्रदाय के संस्थापक कैसे हो सकते है ? - यह एक विचारणीय प्रश्न है । ऐसा लगता है कि इन्होंने इस सम्प्रदाय को बहुत ही संरक्षण दिया तथा इसे आगे और शक्तिशाली रूप देने में एक अद्वितीय योगदान प्रदान किया होगा । इसी प्रकार 'लिङ्गायतों' का एक संगठित सम्प्रदाय बनाने में अनेक 'आराध्य' होने का विवरण मिला है, जिन्होंने बड़ी तत्परता से इस 'सम्प्रदाय' के सिद्धान्तों को आगे बढ़ाया। इनका समाज में बड़ा आदर था, जैसा 'धर्मगुरुओं' का होता है ।

इस सम्प्रदाय में लड़कियों का उपनयन संस्कार लड़कों के समान किया जाता था, और यज्ञोपवीत के स्थान पर उपनयन का चिह्न 'शिव लिङ्ग' को बनाया जाता था। इसे वे शरीर पर धारण करते थे जिसके कारण उनका लिङ्गायत नाम पड़ा। उनका मूल मन्त्र 'ओं नमः शिवाय' था । वे वर्ण-बन्धन को स्वीकार नहीं करते थे । लिङ्गायत सम्प्रदाय में मांस-मदिरा का निषेध तथा आत्मसंयम के कड़े नियम उल्लेखनीय हैं। बाह्य उपासना पर अधिक जोर नहीं देते थे; क्योंकि जिसमें आत्म- ज्ञान को प्राप्ति में बाधा न पड़े।

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